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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 9. मंगलाचरण : यात्रा का

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    माटी की विकास यात्रा का आज मंगलाचरण है। मार्ग के एक ओर पथ के प्रारम्भ पर पथिक यानि कुम्भकार का पहला कदम पड़ता है तभी दूसरी ओर छोर पर पड़ी माटी के तन मन में कुछ हलचल-सी मचती है। स्पन्दन-सा अनुभूत होता है। कुम्भकार की अहिंसक पगतली से मानो संप्रेषण प्रेषित हुआ हो कि मैं तुम्हें लेने आ रहा हूँ। इधर निराशता में डूबी किन्तु पथिक की प्रतीक्षा में भवोंभवों से सुप्त (सोई हुई) सफलता रूपी स्त्री सविनय खड़ी हो गई मानो कुम्भकार का स्वागत कर रही हो ।

     

    "विचारों के ऐक्य से

    आचारों के साम्य से

    सम्प्रेषण में

    निखार आता है,

    वरना

    विकार आता है!" (पृ. 22)

     

    संप्रेषक और जिसके प्रति संप्रेषण किया जा रहा है उसके विचारों की एकता और आचरण की समानता होने पर ही संप्रेषण सफल होता है अन्यथा नहीं। यहाँ माटी के मन में अपने उत्थान का भाव है और शिल्पी के मन में माटी को घट बनाने का भाव, यही विचारों की एकता है तथा दोनों का आचरण सात्विक, अहिंसक है, दोनों सरल परिणामी हैं, यह आचरण की साम्यता है तभी तो बिजली के समान संप्रेषण माटी तक पहुँच गया है।

     

    नदी जैसे दोनों तटों के बन्धन में रहकर निरन्तर अपने लक्ष्य सागर की ओर बहती है, उसी प्रकार आत्मा के परिणाम/उपयोग का बिना किसी भटकन के सीधे लक्ष्य की ओर बढ़ना/जाना ही सही-सही संप्रेषण है।

     

    हाँ! संप्रेषण करते समय इतना जरूर ध्यान रखना चाहिए कि जिसके प्रति संप्रेषण किया जा रहा है ऐसे व्यक्ति के प्रति भूलकर भी अधिकार का भाव, स्वामीपन नहीं आना चाहिए। मैं व्यक्ति के लिए सहयोग करूं केवल इतना ही भाव आना चाहिए। यही संप्रेषण का सदुपयोग है ऐसे भावों के साथ ही संप्रेषण सफल होता है। अन्यथा अधिकारिक भावों के साथ किया संप्रेषण दुरुपयोगी होता हुआ असफल होता है।

     

    संप्रेषण वह खाद है, जिसके द्वारा सद्भावों का लघु पौधा भी पालितपोषित हो वृद्धि को प्राप्त होता है तथा संप्रेषण वह स्वाद भी है जिसके सेवन से, उपयोग से तत्वों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान विकसित हो, पूर्ण ज्ञान को प्राप्त होता है।

     

    लेकिन यह बात जरूर है कि प्रारम्भिक दशा में संप्रेषण का साधन बोझ जैसा, सारहीन लगता है, करने वाले के मन में कुछ-कुछ तनाव की अनुभूति भी होती है। (क्योंकि उपयोग को एकाग्र करना सरल नहीं) परन्तु कुछ अभ्यास और समय के बाद की स्थिति प्राथमिक दशा से उल्टी होती है। जैसे कुशल लेखक भी जब नई निब वाली लेखनी लेकर लिखता है तो उसे प्रारम्भ में खुरदरापन अनुभव में आता है, लिखने में कष्ट का अनुभव होता है, किन्तु लिखते-लिखते जब निब की घिसाई हो जाती है, पूर्व की अपेक्षा लेखन में सफाई आती जाती है। फिर विचारों के पीछे-पीछे लिखने वाली लेखनी, विचारों के साथ-साथ ही लिखने वाली सहचरी हो जाती है और अन्त अन्त में तो लेखनी जल में तैरती-सी संवेदित होती (लगती) है, यह सहज प्रक्रिया ही है ऐसा समझना चाहिए।



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