जीवन विकास की भावना से ओत-प्रोत माटी ने अपनी व्यथा धरती के सम्मुख कही, धरती माँ ने कुछ संकेत दिये जिसे माटी ने ध्यान पूर्वक सुना, समझा और चिन्तन किया। चर्चा-परिचर्चा हुई और दिन का समय व्यतीत हुआ। चारों ओर अन्धकार छा गया रात्रि का आगमन हुआ। धरती माँ की नींद लग गई, किन्तु माटी के लिए रात्रि लम्बी-सी लग रही है क्योंकि माटी की आँखों में निद्रा का नामोनिशान नहीं है, वह जाग रही है। बार-बार करवटें ले रही है, प्रभात की प्रतीक्षा में। आत्मोत्थान की भावना का फल और उपयोग की यह बात है कि नींद के दूर भग जाने पर भी दु:ख की नहीं किन्तु सुख की अनुभूति हो रही है माटी को रात भी प्रभात-सी लग रही है। सच ही है-
"दु:ख की वेदना में
जब न्यूनता आती है
दुख भी सुख-सा लगता है।
और यह
भावना का फल है
उपयोग की बात. !" (पृ. 18 )
जब दुख की वेदना में कमी आती है तो हल्का हुआ दु:ख भी सुख जैसा लगता है। अन्तरंग परिणति (भीतरी परिणाम) की बात है।
रात्रि व्यतीत हुई और वह समय आ ही गया, जिस पर माटी टक-टकी लगाकर देख रही थी-प्रभातकाल। माटी ने प्रात:कालीन अवसर का स्वागत किया और बोल उठी-मैंने अपने जीवन में कई प्रभात देखे पर आज जैसा प्रभात अतीत में कभी नहीं दिखा। ऐसा लग रहा है, मानो आज का प्रभात मेरे जीवन की काली रात्रि की पीठ पर हल्की लाल स्याही से लिख रहा है कि-आज यह तुम्हारी अन्तिम रात है, प्रथम प्रभात। यह तुम्हारा अन्तिम शरीर है और आगे की विशालता का प्रथम दर्शन ।
और प्रसन्नता के साथ प्रभात उपहार के रूप में नवीन पत्तियों के हरे रंग की आभा घुली हरी साड़ी रात को भेंट करता है, जिसे पहनकर रात्रि जा रही है | तथा मंद मुस्कान के साथ प्रभात को सम्मानित कर रही है जैसे-एक बहन भाई की भेंट स्वीकार करती हुई मुस्कुराती है।