लो धन्य! अब तो पूरा का पूरा एक चेहरा सामने प्रकट हुआ है, यह चेहरा आत्मीय भावों से तथा अदमनीय उत्साह से भरा हुआ है। यह एक कुशल शिल्पी है, जिसका माथा अनुभवों की वृद्धता को लिए, विस्तृत भाग्य का भण्डार है। अज्ञानता से घिरा हुआ नहीं और ना ही इस माथे पर तनाव झलकता है।
"अविकल्पी है वह
दृढ़-संकल्पी मानव
अर्थहीन जल्पन
अत्यल्प भी जिसे
रुचता नहीं कभी!" (पृ. 27)
दृढ़ संकल्प से बंधा हुआ यह मानव समस्त विकल्पों से रहित है व्यर्थ बोलना जिसे थोड़ा-सा भी अच्छा नहीं लगता।
यह शिल्पी अपनी शिल्पकला से कण-कण में बिखरी माटी की अनेक प्रकार के सुन्दर-सुन्दर रूप प्रदान करता है। अपने शिल्प की वजह से वह सदा चोरी के दोष से मुक्त रहता है इसलिए तो सरकार उससे कर नहीं माँगती।
यह शिल्प धन का अपव्यय तो दूर, धन का व्यय भी नहीं करता अपितु निर्धन शिल्पी को धनवान बना देता है। युग के प्रारम्भ से आज तक इसने अपनी परम्परा को कलंकित नहीं किया है। बिना दाग है यह शिल्पकला और कुशल है यह शिल्पी।
तभी तो युग के आदि में इसका नाम कुम्भकार रखा। ‘कु' यानि धरती और 'भ' यानि भाग्य जो धरती का भाग्य विधाता हो वही 'कुम्भकार' कहलाता है। निश्चय से प्रत्येक पदार्थ अपना कर्ता स्वयं ही होता है, फिर भी व्यवहार से उपचार वशात् निमित्त को स्वीकारते हुए शिल्पी का नाम 'कुम्भकार' हुआ सो ठीक ही है।
1. मांगलिक कार्य = कुम्भकार का आना, माटी को उठाकर अपने उपाश्रम में ले जाना
2. इष्ट = जो प्रयोजवान हो ।
3. अदमनीय = जिसकी दमन / दबाया न जा सके।