लेखनी लिखती है कि-
गुरु का अर्थ दीर्घ भी होता है भारी भी
दूरदृष्टि के साथ गहरी दृष्टि भी
स्वयं के साथ शिष्य की सँवारते वृत्ति भी
इत्यादि अनेक विशेषताओं के कारण
कहलाते वह गुरु।
वैसे गुरु शब्द के अनेक अर्थ हैं
गुरु में सर्व सामर्थ्य है
अनर्थ के गर्त से बचाते हैं
बुराईयों की पर्त दर पर्त
निश्चित होकर हटाते हैं।
व्यर्थ से हटाकर सार्थ बनाते हैं जीवन
अमावस को कर देते पूनम
जिन्हें वे कर लेते शिष्य रूप में स्वीकार
उसे अवश्य देते आनंद का उपहार
ऐसे गुरु की महिमा
बृहस्पति भी गा न सके
गुरु का व्यक्तित्व है इतना विराट कि
शिष्य अपने हृदयाकाश में समा न सके
तभी तो माला फेरते उनके नाम की
स्तुति गाते उनके काम की।
जो पहुँचा देते शिष्य की पाती
सीधे परमात्मा तक,
और परमात्मा का संदेश
सुना देते शिष्यों तक।
ऐसे गुरु दाता
सुपात्र को ही मिल पाते,
जिसने अर्जित किया
जन्म-जन्मान्तर का पुण्य
वही गुरु श्रीविद्यासागरजी के
शिष्य बन जाते।