समाज के अंग
समाज के हैं मुख्य अंग दो श्रमजीवी पूंजीवादी।
इन दोनों पर बिछी हुई रहती है समाज की गादी॥
एक सुबह से संध्या तक श्रम करके भी थक जाता है।
फिर भी पूरी तोर पर नहीं, पेट पालने पाता है ॥६९॥
कुछ दिन ऐसा हो लेने पर बुरी तरह से मरने को।
तत्पर होता है अथवा लग जाता चोरी करने को॥
क्योंकि बुरा लगता है उसको भूखा ही जब सोता है।
भूपर भोजन का अभाव यों अनर्थ कारक होता है ॥७०॥
यह पहले दल का हिसाब, दूजे का हाल बता देना।
कलम चाहती है पाठक उस पर भी जरा ध्यान देना॥
उसके पैरों में तो यद्यपि लडडू भी रुलते डोले।
खाकर लेट रहे पलङ्ग पर दास लोग पंखा ढोले ॥७१॥
फिर भी उसको चैन है न इस फैसनेविल जमाने में।
क्योंकि सभी चीजें कल्पित आती हैं इसके खाने में॥
जहाँ हाथ से पानी लेकर पीने में भी वहाँ है।
भारी लगता कन्धे पर जो डेढ़ छटांक दुपट्टा है ॥७२॥
कुर्सी पर बैठे हि चाहिये सजेथाल का आ जाना।
रोचक भोजन हो उसको फिर ठूंस ठूंस कर खा जाना॥
चूर्ण गोलियों से विचार चलता है उस पचाने का।
कौन परिश्रम करे जरा भी तुनके हिला डुलाने का ॥७३॥
हो अस्वस्थ खाट अपनाई तो फिर वैद्यराज आये।
करने लगे चिकित्सा लेकिन कड़वी दवा कौन खाये॥
यों अपने जीवन का दुश्मन आप अहो बन जाता है।
अपने पैरों मार कुल्हाड़ी मन ही मन पछताता है ॥७४॥
एक शिकार हुआ यों देखों खाने को कम मिलने का।
किन्तु दूसरा बिना परिश्रम ही अतीव खा लेने का॥
बुरा भूख से कम खाने को मिलना माना जाता है।
वहीं भूख से कुछ कम खाना ठीक समझ में आता है॥७५॥
चार ग्रास की भूख जहाँ हो तो तुम तीन ग्रास खावो।
महिने में उपवास चतुष्टय कम से कम करते जावो॥
इस हिस्से से त्यागी और अपाहिज लोगों को पालो।
और सभी श्रम करो यथोचित ऐसे सूक्त मार्ग चालो ॥७६॥
तो तुम फलो और फूलो नीरोग रहो दुर्मद टालो।
ऐसा आशीर्वाद बड़ों का सुनलो हे सुनने वालो॥
स्वोदर पोषण की निमित्त परमुख की तरफ देखना है।
कुत्ते की ज्यों महा पाप यों जिनवर की सुदेशना है॥ ७७॥
फिर भी एक वर्ग दीख रहा शशी में कलंक जैसा है।
हष्ट पुष्ट होकर भी जिस का भीख मांगना ऐसा है॥
उसके दुरभियोग से सारी प्रजा हमारी दु:खी है।
वह भी अकर्मण्यपन से अपने जीवन में असुखी है॥ ७८॥
हन्त सुबह से झोली ले घर घर जा नित्य खड़ा होना।
अगर नहीं कोई कुछ दे तो फूट फूट कर के रोना॥
यों काफी भर लाना, खाना बाकी रहे बेच देना।
सुलफा गांजा पी, वेश्या बाजी में दिलचस्पी लेना॥७९॥
ऐसे लोगों को देना भी काम पाप का बतलाया।
मांग मांग पर वित्तार्जन करना ही जिनके मन भाया॥
क्योंकि इन्हीं बातों से पहुँचा भारत देश रसातल को।
आज हुआ सो हुआ और अब तो बतलायेंगे कल को॥८०॥
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