भारत कैसा था और कैसा हो गया
एक रोज वह था कि नहीं भारत में कही भिखारी था।
निजभुज से स्वावश्यकता पूरण का ही अधिकारी था॥
बेटा भी बाप की कमाई खाना बुरी मानता था।
अपने उद्योग से धनार्जन, करना ठीक जानता था ॥८१॥
जिनदत्तादि सरीखे धनिक सुतों का स्मरण सुहाता है।
जिनकी गुण गाथाओं का वर्णन शास्त्रों में आता है॥
सब कोई निज धन को देखा परार्थ देने वाला था।
किन्तु नहीं कोई भी उसका मिलता लेने वाला था॥ ८२॥
क्योंकि मनुज आवश्यकता से अधिक कमाने वाला था।
कौन किसी भाई के नीचे पड़ कर खाने वाला था।
इसीलिए चोरी जारी का यहाँ जरा भी नाम न था।
निर्भय होकर सोया करते ताले का तो काम न था ॥८३॥
ईति भीति' से रहित सुखप्रद था इसका कोना कोना।
कौन उठाने लगा कही भी पड़ा रहो किसका सोना॥
जनधन से परिपूर्ण यहाँ वालों की मृदुतम रीति रही।
सदा अहिंसा मय पुनीत भारत लालों की नीति सही ॥८४॥
आज हमारे उसी देश का हाल हुआ उससे उलटा।
मानो वृद्धावस्था में हो चली अहो नारी कुलटा॥
दिन पर दिन हो रही दशा सन्तोष भाव में खूनी है।
अब हरेक की आवश्यकता आमदनी से दूनी है ॥८५॥
इसीलिए बढ़ रही परस्पर लूट मार मदमत्सरता।
विरले के ही मन में होती इतर प्रति करुणा परता॥
अतः प्रकृति देवी ने भी अपना है अहो कदम बदला।
आये दिन आया करती है, यहाँ एक से एक बला ॥८६॥
कही समय पर नीर नहीं तो कही अधिक हो आता है।
पकी पकाई खेती पर भी तो पाला पड़ जाता है।
जल का बन्ध भङ्ग हो करके कहीं बहा ले जाता है।
अथवा आग लग जाने से भस्म हुआ दिखलाता है॥८७॥
हैजा कहीं कहीं मारी या, मलेरिया ज्वर का डर है।
यों इसमें सब और से अहो, विपल्व होता घर घर है॥
देश प्रान्तमय प्रान्त नगरमय नगर घरों का समूह हो।
इसीलिए घर की बावत में इतला देना आज अहो ॥८८॥
1 Comment
Recommended Comments
Create an account or sign in to comment
You need to be a member in order to leave a comment
Create an account
Sign up for a new account in our community. It's easy!
Register a new accountSign in
Already have an account? Sign in here.
Sign In Now