Jump to content
सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

समाज सुधार


संयम स्वर्ण महोत्सव

1,362 views

सामाजिक सुधार के बारे में हम आज बताते हैं।

जो इसके सच्चे आदी उनकी गुण गाथा गाते हैं।

व्यक्ति व्यक्ति मिल करके चलने से ही समाज होता है।

नहीं व्यक्तियों से विभिन्न कोई समाज समझौता है॥ १५॥

 

सह निवास तो पशुओं का भी हो जाता है आपस में।

एक दूसरे की सहायता किन्तु नहीं होती उनमें॥

इसीलिए उसको समाज कहने में सभ्य हिचकते हैं।

कहना होती समाज नाम, उसका विवेक युत रखते हैं॥१६॥

 

बूंद बूंद मिलकर ही सागर बन पाता है हे भाई।

सूत सूत से मिलकर चादर बनती सबको सुखदाई॥

है समाज के लिए व्यक्ति के सुधार की आवश्यकता।

टिका हुआ है व्यक्ति रूप पैरों पर समाज का तख्ता॥ १७॥

 

यदि व्यक्तियों का मानस उन्नतपन को अपनावेगा।  

समाज अपने आप वहाँ फिर क्यों न उच्च बन पावेगा।

इसीलिए यदि समाज को हम, ठीक रूप देना चाहें।

तो व्यक्तित्व आपके से लेनी होगी समुचित राहें ॥१८॥

 

नहीं दूसरे को सुधारने से सुधार हो पाता है।

अपने आप सुधरने से फिर सुधर दूसरा जाता है।

खरबूजे को देख सदा खरबूजा रंग बदलता है।

अनुकरणीयपने के द्वारा पिता पुत्र में ढलता है ॥१९॥

 

पानी को जिस रुख का ढलाव मिलता है बह जाता है।

जन समूह भी जो देखे वैसा करने लग पाता है।।

यदि हम सोच करें समाज का समाज अच्छे पथ चाले।

तो हम पहले अपने जीवन में, अच्छी आदत डालें ॥२०॥

 

मैं हूँ सुखी और की मेरे, को क्या पड़ी यही खोटी।

बात किन्तु हों सभी सुखी, यह धिषणा होवे तो मोटी॥

विज्ञ पुरुष निज अन्तरंग में, विश्व प्रेम का रंग भरे।

सबके जीवन में मेरा जीवन है ऐसा भाव धरे ॥२१॥

 

अनायास ही जनहित की बातों पर सदा विचार करे।

भय विक्षोभ लोभ कामादिक दुर्भावों से दूर टरे॥

आशीर्वाद बडों से लेकर बच्चों की सम्भाल करे।

नहीं किसी से वैर किन्तु सब जीवों में समभाव धरे ॥२२॥

 

क्योंकि अकेला धागा क्या गुह्याच्छादन का काम करे।

तिनका तिनके से मिलकर पथ के काँटों को सहज हरे॥

यह समाज है सदन तुल्य इसमें आने जाने वाले।

लोगों के पैरों से उसमें कूड़ा सहज सत्त्व पाले ॥२३॥

 

जिसको झाड़ पोछकर उसको सुन्दर साफ बना लेना।

नहीं आज का काम सदा का उसको दूर हटा देना॥

किन्तु यह हुआ पूर्व काल में संयमी जनों के कर से।

जिनका मानस ढका हुआ होता था सुन्दर सम्वर से ॥२४॥

 

इसीलिए वे समझ सोचकर इस पर कदम बढ़ाते थे।

पाप वासनाओं से इसको, पूरी तरह बचाते थे।

किन्तु आज वह काम आ गया, हम जैसों के हाथों में।

फँसे हुए जो खुद हैं भैया, दुरभिमान की घातों में ॥२५॥

 

तलाक जैसी बातों का भी, प्रचार करने को दौड़े।

आज हमारी समाज के नेताओं के मन के घोड़े॥

तो फिर क्या सुधार की आशा, झाडू देने वाला ही।

शूल बिछावे उस पथ पर क्यों, चल पावे सुख से राही ॥२६॥

 

साथी हो तो साथ निभावे क्यों फिर पथ के बीच तजे।

दुःख और सुख में सहाय हो, वीर प्रभु का नाम भजे॥

यही एक सामाजिकता की, कुंजी मानी जाती है।

बढ़ा प्रेम आपस में समाज को, जीवित रख पाती है॥२७॥

 

एक बात है और सुनो, हम चाहे अनुयायी करना।

तो उनको पहले बतलावे, ऐहिक कष्टों का हरना॥

प्यासे को यदि कहीं दीख, पावे सहसा जल का झरना।

पहले पीवेगा पानी फिर, पीछे सीखेगा तरना ॥२८॥

 

गाड़ी को हो वाङ्ग वगैरह, ताकि न कहीं अटक जावे।

तथा ध्यान यह तो गढे में गिर करके न टूट पावे॥

वैसे ही समाज संचालक, पाप पंक में नहीं फँसे।

आवश्यकता भी पूरी हो, ताकि समय बीते सुख से ॥२९॥

1 Comment


Recommended Comments

Create an account or sign in to comment

You need to be a member in order to leave a comment

Create an account

Sign up for a new account in our community. It's easy!

Register a new account

Sign in

Already have an account? Sign in here.

Sign In Now
  • बने सदस्य वेबसाइट के

    इस वेबसाइट के निशुल्क सदस्य आप गूगल, फेसबुक से लॉग इन कर बन सकते हैं 

    आचार्य श्री विद्यासागर मोबाइल एप्प डाउनलोड करें |

    डाउनलोड करने ले लिए यह लिंक खोले https://vidyasagar.guru/app/ 

     

     

×
×
  • Create New...