५८ गाथाबद्ध जैन शौरसेनी प्राकृत भाषा का एक लघु ग्रन्थ है, जिसमें षट् द्रव्यों का सलक्षण एवं सभेद संक्षिप्त प्रतिपादन हुआ है, अतः अध्यात्म-ग्रन्थ है। लघु होता हुआ भी यह बड़ा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि गागर में सागर वाली उक्ति चरितार्थ होती है। वीर निर्वाण संवत् २५०४, विक्रम संवत् २०३५ की श्रुतपंचमी-ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, शनिवार, ११ जून १९७८ को ग्राम अभाना, दमोह (म० प्र०) में इस द्रव्यसंग्रह' का पद्यानुवाद 'ज्ञानोदय छन्द' पूर्ण हुआ तथा दूसरा पद्यानुवाद वीर निर्वाण सं० २५१७ की अक्षय तृतीया (द्वितीय वैशाख शुक्ल तृतीया), विक्रम संवत् २०४८, गुरुवार, १६ मई, १९९१ के दिन श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि (मेंढागिरि) जिला बैतूल (म० प्र०) नित्यानन्द को देने वाला यह अनुवाद समाप्त हुआ।
इसमें जैनदर्शन के विवेच्य विषय चर्चित हुए हैं। जैसे—जीव स्वदेह परिमाण है। वह स्वभाववश ऊर्ध्वगामी होता है। दर्शन के चार भेद, ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि जैसे भेद, प्रत्यक्ष और परोक्षज्ञान का निरूपण, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् द्रव्य, चतुर्विध गुणयुक्त पुद्गल, पाँच अस्तिकाय, कर्म, बन्ध, संवर तथा निर्जरा आदि तत्त्वों की चर्चा की गई है। सबका पर्यवसान मोक्ष में है।