देव-शास्त्र-गुरु-स्तवन
‘सन्मति' को मम नमन हो, मम मति सन्मति होय।
सुर-नर-पशुगति सब मिटे गति पंचम गति होय ॥१॥
चन्दन चन्दर चांदनी, से जिनधुनि अति शीत।
उसका सेवन मैं करूं मन-वच-तन कर नीत ॥२॥
सुर, सुर-गुरु तक, गुरु चरण-रज सर पर सुचढ़ाय।
यह मुनि-मन गुरु भजन में, निशि-दिन क्यों न लगाय ॥३॥
श्री कुन्दकुन्दाय नमः
‘कुन्दकुन्द' को नित नमू, हृदय कुन्द खिल जाय।
परम सुगंधित महक में, जीवन मम घुल जाय ॥४॥
श्री ज्ञानसागराय नमः
तरणि ‘ज्ञानसागर' गुरो! तारो मुझे ऋषीश।
करुणाकर! करुणा करो कर से दो आशीष ॥५॥
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