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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सर्व विशुद्धज्ञान-अधिकार

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    कर्तृ-भोक्तृ-मय विभाव भावों घटा, मिटा अघ-अंजन से,

    दूर रहा है, पद पद पल पल बंध मोक्ष के रंजन से।

    अचल प्रकटतम महिमाधारी ज्ञानपुंज दृग मंजु सही,

    शुद्ध, शुद्धतम, विशुद्ध शोभित स्वरस-पूर्ण द्युति पुण्यमही ॥१९३॥ |

     

    जैसा चेतन आतम का निज संवेदन निज भाव रहा,

    वैसा कर्तापन आतम का होता नहिं पर भाव-रहा।

    मूढ़पना वश करता आत्मा विषयी मोही अज्ञानी,

    मिटा मूढ़पन, कर्ता नहिं हो मुनिवर निर्मोही ज्ञानी ॥१९४॥

     

    यदपि स्वरस से भरा जीव है विदित हुवा नहिं कर्ता है,

    तीन लोक में फैल रहा ले शुचि-चिति-द्युति शिव धर्ता है।

    तदपि मूढ़ता की कोई है महिमा सघना-गम न्यारी,

    इसीलिए विधि बंधन होता दुखकारी, सुख-शम-हारी ॥१९५॥

     

    जैसा कर्तापन आतम का होता नहिं निज भाव रहा,

    वैसा होता चेतन का नहिं भोक्तापन भी भाव रहा।

    मूढ़पना वश भोक्ता आत्मा विषयी मोही अज्ञानी,

    उसे नाशकर सुखी अवेदक मुनि हो निर्मोही ज्ञानी ॥१९६॥

     

    अज्ञानी विधिफल में रमता निश्चित विधि का वेदक है,

    ज्ञानी विधि में रमता नहिं है वेदक ना, निज-वेदक है।

    इस विध विचार मुनिगण! तुमको मूढ़पना बस तजना है,

    ज्ञानपने के शुद्ध तेज में निज में निज को भजना है ॥१९७॥

     

    ज्ञानी विराग मुनि नहिं विधि का करता वेदन, विधि करता,

    केवल विधिवत विधि का विधिपन जाने, गुण-वारिधि धरता।

    कर्तापन वेदन-पन को तज केवल साक्षी रह जाता,

    शुचितम स्वभाव रत होने से कर्म-मुक्त ही कहलाता ॥१९८॥

     

    निज को पर का कर्ता लखते पर में मुनि जो अटक रहे,

    मोहमयी अति घनी निशा में, इधर उधर वे भटक रहे।

    यदपि मोक्ष की आशा रखते, तदपि सदा भव दुख पाते,

    साधारण जनता सम वे भी नहिं अक्षय शिव सुख पाते ॥१९९॥

     

    आत्म-तत्त्व औ अन्य तत्त्व ये स्वतन्त्र-स्वतन्त्र रहते हैं,

    एक-मेक हो आपस में मिल प्रवाह बन ना बहते हैं।

    कर्तृ-कर्म संबंध सिद्ध वह इसविध जब ना होता है,

    फिर किस विध पर कर्तृ-कर्म-पन हो, क्यों फिर तू रोता है॥२००॥

     

    सभी तरह सम्बन्ध निषेधित करते जग के नाथ सभी,

    सम्बन्ध न हो एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ कभी।

    वस्तु भेद होने से, फिर क्या कर्तृ-कर्म की दशा रही,

    निज के अकर्तृपन मुनि फलतः लखते, अब ना निशा रही ॥२०१॥

     

    ज्ञान तेज अज्ञान भाव में ढला खेद जिनका तातें,

    निज-पर स्वभाव तो ना जाने पागल पामर कहलाते।

    मूढ़ कर्म वे करते फलतः लखते निज चैतन्य नहीं,

    भाव कर्म का कर्ता चेतन अतः स्वयं है, अन्य नहीं ॥२०२॥

     

    कर्म कार्य जब किया हुवा, पर जीव प्रकृति का कार्य नहीं,

    अज्ञ प्रकृति भी स्वकार्य फल को भोगे तब अनिवार्य सही।

    मात्र प्रकृति का भी न, अचेतन प्रकृति! जीव ही कर्ता है,

    भाव कर्म सो चेतनमय है, पुद्गल ज्ञान न धरता है॥२०३॥

     

    मात्र कर्म ‘कर्ता' यों कहता निज कर्तापन छिपा रहा,

    कथंचिदात्मा ‘कर्ता' कहती जिन श्रुति को ही मिटा रहा।

    उस निज घातक की लघुधी को महामोह से मुंदी हुई,

    विशुद्ध करने अनेकान्तमय वस्तु स्थिती यह कही गई ॥२०४॥

     

    लखे अकर्तामय निज को नहिं जैन सांख्य सम ये तब लौं,

    कर्तामय ही लखे सदा, शुचि भेद-ज्ञान नहिं हो जबलौं।

    विराग जब मुनि तीन गुप्ति में लीन, समिति में नहिं भ्रमते,

    कर्तृभाव से रहित पुरुष के बोध-धाम में तब रमते ॥२०५॥

     

    कर्ता भोक्ता भिन्न-भिन्न हैं आत्म तत्त्व जब क्षणिक रहा,

    इस विध कहता सुगत उपासक जिसमें-बोध, न तनिक रहा।

    चेतन का शुचि चमत्कार ही उसके भ्रम को विनशाता,

    सरस सुधारस से सिंचन कर मुकुलित कलिका विकसाता ॥२०६॥

     

    अंश भेद ये पल-पल मिटते अंशी से अति पृथक रहे,

    अतः विनश्वर अंशी है, हम वस्तु तत्त्व के कथक रहें।

    विधि का कर्ता अतः अन्य है विधि का भोक्ता अन्य रहा,

    इस विध एकान्ती मत, मत तुम धारो जिन-मत वन्द्य अहा ॥२०७॥

     

    शुचितम निज को लखने वाले अति-व्याप्ति मल जान रहें।

    काल उपाधी वश आतम में अधिक अशुचिपन मान रहें।

    सूत्र-ऋजु नया, श्रय ले चिति को क्षणिक मान आतम त्यागा,

    बौद्धों ने मणि स्वीकारा पर त्यागी माला बिन धागा ॥२०८॥

     

    कर्ता भोक्ता में विधि वश हो अन्तर या ना किंचन हो,

    कर्ता भोक्ता हो या ना हो चेतन का पर चिंतन हो!

    माला में ज्यों मणियाँ गॅथी चिति चिंतामणि आतम में,

    पृथक उन्हें कर कौन लखेगा शोभित जो मम आतम में ॥२०९॥

     

    व्यवहारी मानव दृग की ही केवल यह है विशेषता,

    कर्तृ कर्म ये भिन्न-भिन्न ही यहाँ झलकते अशेषता।

    निश्चयनय का विषयभूत उस विरागता का ले आश्रय,

    मुनि जब लखता निजको, भेद न अभेद दिखता सुख आलय ॥२१०॥

     

    आश्रय, आश्रय-दाता क्रमशः सुपरिणाम परिणामी है,

    अतः कर्म परिणाम उसी का परिणामी वह स्वामी है।

    कर्ता के बिन कर्म न पदार्थ दोनों का वह भर्ता है,

    वस्तु स्थिति है निज परिणामों का निज ही बस कर्ता है॥२११॥

     

    अमिट-अमित-द्युति बल ले चेतन जग में विहार करता है,

    किन्तु किसी में वह ना मिलता यों मुनि विचार करता है।

    यदपि वस्तुएँ परिणमती हैं अपने-अपने भावों से,

    तदपि वृथा क्यों व्यथित मूढ़ है स्वभाव तज अघ-भावों से ॥२१२॥

     

    एक वस्तु वह अन्य वस्तु की नहीं बनेगी गुरु गाता,

    वस्तु सदा बस वस्तु रहेगी वस्तु तत्त्व की यह गाथा।

    इस विध जब यह सिद्ध हुआ पर पर का फिर क्या कर सकता?

    एक स्थान पर रहो भले ही मिलकर रहना चल सकता ॥२१३॥

     

    अन्य वस्तु के परिणामों में पदार्थ निमित्त बनता है,

    पदार्थ परिणामी परिणमता परकर्ता नहिं बनता है।

    अन्य वस्तु का अन्य वस्तु है करती इस विध जो कहना,

    व्यवहारी जन की वह दृष्टी निश्चय से तुम ना गहना ॥२१४॥

     

    निज अनुभवता शुद्ध द्रव्य मुनि लखने में जब तत्पर हो,

    एक द्रव्य बस विलसित होता, नहीं प्रकाशित तब पर हो।

    ज्ञेय ज्ञान में तदपि झलकते ज्ञान बना जब शुचि दर्पण,

    किन्तु मूढ़ तू पर में रमता निजपन पर में कर अर्पण ॥२१५॥

     

    शुद्ध आत्म की स्वरस चेतना ज्ञानमयी वह जभी मिली,

    विषय विषैली रहे भले पर पृथक पड़ी पर सभी गिरी।

    धवलित भूतल करती किरणें शशि की ‘भूमय' नहिं होती,

    ज्ञान, ज्ञेय को जान 'ज्ञेय मय' नहिं हो, यह शुचितम ज्योति ॥२१६॥

     

    ज्ञान-ज्ञान बन, ज्ञेय निजी को बना, न जब तक शोभित हो,

    राग-रोष ये उठते उर में आतम जब तक मोहित हो।

    मूढ़पने को पूर्ण हटाकर, ज्ञान ज्ञानपन पाता है,

    अभाव-भावों हुए मिटाकर पूरण स्वभाव भाता है ॥२१७॥

     

    मूढ़पने में ढला ज्ञान ही राग-रोष है कहलाता,

    समाधिरत मुनि रागादिक को तभी नहीं कर वह पाता।

    विराग दुग पा रागादिक का तत्त्व दृष्टि से नाश करो,

    सहज प्रकट शुचि ज्ञान ज्योति हो, मोक्षधाम में वास करो ॥२१८॥

     

    रागादिक कालुष भावों का पर-पदार्थ नहिं कारण है,

    तत्त्वदृष्टि से जब मुनि लखते अवगम हो अघ-मारण है।

    समय-समय पर पदार्थ भर में जो कुछ उठना मिटना है,

    अपने-अपने स्वभाव वश ही समझ जरा! तू इतना है ॥२१९॥

     

    मानस सरवर में यदि लहरें राग रंग की उठती हैं,

    पर को दूषण उसमें मत दो स्वतंत्र सत्ता लुटती है।

    चेतन ही बस अपराधी है, बोध हीन रति करता है,

    ‘बोध-धाम मैं'' सुविदित हो यह अबोध पल में टलता है॥२२०॥

     

    पर पदार्थ ही केवल कारण रागादिक के बनने में,

    डरते नहिं है कतिपय विषयी जड़ जन इस विध कहने में।

    डूबे निश्चित, कभी नहीं वे मोह सिन्धु को तिरते हैं,

    वीतराग विज्ञान विकल बन भव-भव दुख से घिरते हैं॥२२१॥

     

    परम विमल निश्चयतामय निज बोध धार पर से ज्ञानी,

    दीप घटादिक से जिस विध ना विकृत प्रभावित मुनि ध्यानी।

    निज-पर भेदज्ञान बिन फिर भी राग-रोष कर अज्ञानी,

    वृथा व्यथा क्यों भजते, तजते समता, करते नादानी ॥२२२॥

     

    राग-रोष से रहित ज्योति धर निज निजपन को छूते हैं,

    विगत अनागत कर्म मुक्त हैं कर्मोदय ना छूते हैं।

    विरत पाप से, निरत निजी शुचि-चारित में है अति भाते,

    निज रस से सिंचित करती जग, ‘ज्ञान चेतना' यति पाते ॥२२३॥

     

    ज्ञान चेतना करने से ही, शुद्ध, शुद्धतर बनता है,

    पूर्ण प्रकाशित ज्ञान तभी हो बद्ध कर्म हर, तनता है।

    मूढ़पने के संचेतन से बोध विमलता नशती है,

    तभी चेतना नियमरूप से विधि बन्धन में फँसती है ॥२२४॥

     

    कृत से कारित अनुमोदन से तन से वच से औ मन से,

    विगत अनागत आगत विषयों निकालता मैं चेतन से।

    सकल क्रिया से विराम पाया, निज चेतन का आलम्बन,

    लेता विराग मुनि बन, तू भी अब तो कर तन मन स्तम्भन ॥२२५॥

     

    मैंने मोही बन व्रत में यदि अतिक्रमण का भाव किया,

    मन वच तन से उसका विधिवत् प्रतिक्रमण का भाव लिया।

    चेतन रस से भरा हुआ, सब क्रिया रहित निज आतम में,

    स्थिर होता, स्थिर हो जा, तू भी भ्रमता क्यों जड़ता-तम में ॥२२६॥

     

    मोह भाव से अनुरंजित हो साम्प्रत कर्म किया करता,

    उनका भी मैं आलोचन कर दया भाव निज पे धरता।

    चेतन रस से भरा हुआ-सब क्रिया रहित निज आतम में,

    स्थिर होता, स्थिर हो जा! तू भी भ्रमता क्यों जड़ता तम में ॥२२७॥

     

    वीतमोह बन, वीतराग बन निग्रह कर मन स्पंदन का,

    प्रत्याख्यान करू मैं अब उस भावी विधि के बन्धन का।

    चेतन रस से भरा हुआ सब-क्रिया रहित निज आतम में,

    स्थिर होता, स्थिर हो जा! तू भी भ्रमता क्यों जड़ता-तम में ॥२२८॥

     

    इस विध बहुविध विधि के दल को विगत अनागत आगत को,

    तजकर करता भाग्य मानकर विशुद्ध नय के स्वागत को।

    शशि सम शुचितम चेतन आतम-में बस निशदिन रमता मैं,

    निर्मोही बन, निर्विकार बन, केवल धरता समता मैं ॥२२९॥

     

    मेरे विधि के विष-तरु में जो कटु-विष-फल-दल लटक रहे,

    सड़े गिरे वे बिना भोग के मन कहता ना निकट रहे।

    फलतः निश्चल शैल सचेतन-शुचि आतम को अनुभवता,

    इस विध विचार विराग मुनि में समय समय पर उद्भवता ॥२३०॥

     

    अशेष-वसुविध विधि के फल को पूर्ण उपेक्षित किया जभी,

    अन्य क्रिया तज निज आतम को मात्र अपेक्षित किया तभी।

    अमिट काल की परम्परा मम भजे निरंतर चेतन को,

    द्रुत गति से फिर विहार करले सहज स्वयं शिव-केतन को ॥२३१॥

     

    विधि-विष-द्रुम को विगत काल में विभाव जल से सींचा था,

    पर अब उसके फल ना खा खा निज फल केवल सुख पाता।

    सदा सेव्य है सुन्दरतम है मधुर मधुरतर है साता,

    इस विध निज सुख, क्रिया रहित है जिसको मुनिवर है पाता ॥२३२॥

     

    विधि से विधि फल से अविरति से विरत व्रती हो संयत हो,

    विकृत चेतना पूर्ण मिटाकर संग रहित हो, संगत हो।

    ज्ञान-चेतनामय निज रस से निज को पूरण भर जीवो,

    परम-प्रशम रस-सरस सुधारस है मुनि झट घट-भर पीवो ॥२३३॥

     

    ज्ञान ज्ञेय से ज्ञेय ज्ञान से यदपि प्रभावित होते हैं,

    पर ये निज निज के कर्ता पर-के कदापि ना होते हैं।

    सकल वस्तुएँ भिन्न-भिन्न हैं ऐसा निश्चय जभी हुवा,

    ज्ञान आप में पाप-ताप बिन उज्ज्वल निश्चल तभी हुवा ॥२३४॥

     

    पर से न्यारा स्वयं संभारा धारा इस विध रूप निरा,

    गृहण-त्याग-मय-शील-शून्य है अमल ज्ञान सुख कूप मिरा ?

    आदि मध्य औ अन्त रहित है जिसकी महिमा द्युतिशाली,

    शुद्ध-ज्ञान-घन नित्य उदित है सहज विभामय सुख-प्याली ॥२३५॥

     

    निज आतम में निज आतम को जिसने स्थापित किया यमी,

    कच्छप सम संकोचित इन्द्रिय पूर्ण रूप से किया दमी।

    जो कुछ तजने योग्य रहा था उसको उसने त्याग दिया,

    ग्राह्य जिसे झट ग्रहण किया, क्यों तूने पर में राग किया? ॥२३६॥

     

    स्वयं सुखाकर ज्ञान दिवाकर इस विध निश्चित प्रकट रहा,

    सुचिरकाल से पूर्ण रूप से पर द्रव्यन से पृथक रहा।

    उत्तर दो अब ज्ञान हमारा आहारक फिर हो कैसा?

    जिससे तुम हो कहते रहते ‘‘काय ज्ञान का हो'' ऐसा!!॥२३७॥

     

    शशिसम उज्ज्वल उज्वलतर हैं निर्विकारतम ज्ञान महा,

    इसीलिए जड़काय ज्ञान का हो नहिं सकता जान अहा!

    “यथाजात' ज्ञानी का केवल जड़तन ना शिव-कारण हो,

    उपादान कारण शिव का मुनि-ज्ञान, तरण ही तारण हो ॥२३८॥

     

    ज्ञान-चरित-समदर्शन तीनों एकमेव घुल मिल जाना,

    मोक्षमार्ग है यही समझ लो शिव सुख सम्मुख मिल जाना।

    यही सेव्य है यही पेय है उपादेय है ध्येय यही,

    मुमुक्षु-मुनि को अन्य सभी बस हेय रही या ज्ञेय रही ॥२३९॥

     

    चरित-ज्ञान-दृगमय ही शिवपथ, जिसमें जो यति थिति पाता,

    ध्यान उसी का करता चिन्तन करता निशिदिन थुति साता।

    निज में विचरण करता पर से दूर सदा हो जीता है,

    वही आर्य! अनिवार्य मुनीश्वर ‘समयसाररस' पीता है॥२४०॥

     

    इस विध पावन शिव फल दाता रत्नत्रय जो तजते हैं,

    जड़ तन आश्रित यथाजात में केवल ममता भजते हैं।

    अनुपम अखण्ड ज्योतिपिण्ड शुचि समयसार को नहिं लखते,

    भले दिगम्बर बने रहें वे आत्म-बोध जब नहिं रखते ॥२४१॥

     

    बाह्य-क्रिया में उलझे रहते जड़ जन उलटे लटके हैं,

    भाग्यहीन वे उन्हें न दर्शन मिलते अन्तर्घट के हैं।

    जैसा तन्दुल बोध जिन्हें ना तुष का संग्रह करते हैं,

    वैसा मोही आत्म ज्ञान बिन, तपा-तपा तन मरते हैं॥२४२॥

     

    देह-नग्नता भर में केवल, जो मुनि ममता रखते हैं,

    समयसार को कभी नहीं वे धर के समता लखते हैं।

    निमित्त शिव का देह-नग्नता, पर-आश्रित है पुद्गल है,

    किन्तु ज्ञान तो उपादान है, निज आश्रित है, सद्बल है ॥२४३॥

     

    बस करदो, बहु विकल्प जल्पों से कुछ नहिं होने वाला,

    परमारथ का अनुभव कर लो, मानस मल धोने वाला।

    स्वरस-सरस भरपूर-पूर्ण-शुचि ज्ञान विभा से भासुर है,

    समयसार ही सार विश्व में, जिस बिन आकुल आ-सुर है॥२४४॥

     

    विश्वसार है विश्व-सुलोचन अक्षय, अक्षय-सुखकारी,

    समयसार का कथन यहाँ अब पूर्ण हो रहा दुखहारी।

    शुद्ध ज्ञान-घन-मय जो शिव सुख पावन परमानन्दपना,

    उसे यही बस दिला, नशाता निश्चित मन का द्वंद्वपना ॥२४५॥

     

    अचल उजल यह एक अखंडित निज संवेदन में आता,

    किन ही बाधाओं से-बाधित हो न, अबाधित है भाता।

    इस विध केवल-ज्ञान निकेतन आत्म तत्त्व यह सिद्ध हुवा,

    झुक झुक सविनय प्रणाम उसको करता यह मुनि'शुद्ध हुवा ॥२४६॥

     

    ॥ इति सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारः ॥

     

    दोहा

     

    ज्ञान दुःख का मूल है ज्ञान हि भव का कूल।

    राग सहित प्रतिकूल है राग रहित अनुकूल ॥१॥

    चुन-चुन इनमें उचित को अनुचित मत चुन भूल।

    समयसार का सार है निज बिन पर सब धूल ॥२॥


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