जीव सचेतन द्रव्य रहे हैं तथा अचेतन शेष रहें,
जिनवर में भी जिनपुंगव वे इस विध जिन वृषभेश कहें।
शत-शत सुरपति शत-शत वंदन जिन चरणों में सिर धरते,
उन्हें नहूँ मैं भाव-भक्ति से मस्तक से झुक-झुक करके ॥१॥
सुनो! जीव उपयोग-मयी है तथा अमूर्तिक कहलाता।
स्व-तन बराबर प्रमाणवाला कर्ता - भोक्ता है भाता ॥
ऊर्ध्वगमन का स्वभाव-वाला सिद्ध तथा है अविकारी।
स्वभाव के वश विभाव के वश कसा कर्म से संसारी ॥२॥
आयु, श्वास और बल इन्द्रिय यूँ चार प्राण को धार रहा।
विगत, अनागत, आगत में यह जीव रहा व्यवहार रहा ॥
किन्तु जीव का सदा-सदा से मात्र चेतना श्वास रहा।
निश्चय नय का कथन यही है दिला हमें विश्वास रहा ॥३॥
आतम में उपयोग द्विविध है आगम ने यह गाया है।
ज्ञान रूप औ दर्शनपन में गुरुवर ने समझाया है ॥
ज्ञात रहे फिर दर्शन भी वह चउविध माना जाता है।
अचक्षुदर्शन चक्षु अवधि औ केवलदर्शन साता है ॥४॥
मति-श्रुत दो-दो और अवधि दो उलट-सुलटे चलते हैं।
मन-पर्यय औ केवल दो यूँ ज्ञान भेद वसु मिलते हैं।
मति-श्रुत परोक्ष, शेष सभी हो विकल-सकल प्रत्यक्ष रहे।
लोकालोकालोकित करते त्रिभुवन के अध्यक्ष कहें ॥५॥
आतम का साधारण लक्षण वसु-चउ-विध उपयोग रहा।
गीत रहा व्यवहार गा रहा सुनो! जरा उपयोग लगा ॥
किन्तु शुद्धनय के नयनों में शुद्ध ज्ञान-दर्शनवाला।
आतम प्रतिभासित होता है बुध-मुनि मन हर्षणहारा ॥६॥
पंच रूप रस पंच, गंध दो आठ स्पर्श सब ये जिनमें।
होते ना हैं ‘जीव' वही है कथन किया है यूँ जिन ने ॥
इसीलिए हैं जीव अमूर्तिक निश्चय-नय ने माना है।
जीव मूर्त व्यवहार बताता कर्मबंध का बाना है ॥७॥
पुद्गल कर्मादिक का कर्ता जीव रहा व्यवहार रहा।
रागादिक चेतन का कर्ता अशुद्धनय से क्षार रहा ॥
विशुद्ध नय से शुद्धभाव का कर्ता कहते संत सभी।
शुद्धभाव का स्वागत कर लो कर लो भव का अंत अभी ॥८॥
आतम को कृत-कर्मों का फल सुख-दुख मिलता रहता है।
जिसका वह व्यवहार भाव से भोक्ता बनता रहता है ॥
किन्तु निजी शुचि चेतन भावों का भोक्ता यह आतम है।
निश्चयनय की यही दृष्टि है कहता यूँ परमागम है ॥९॥
समुद्घात बिन सिकुड़न-प्रसरण-स्वभाव को जो धार रहा।
लघु-गुरु तन के प्रमाण होता जीव यही व्यवहार रहा ॥
स्वभाव से तो जीवात्मा में असंख्यात-परदेश रहे।
निश्चयनय का यही कथन है संतों के उपदेश रहे ॥१०॥
पृथिवी-जल-अगनी-कायिक औ वायु-वृक्ष-कायिक सारे।
बहु-विध स्थावर कहलाते हैं मात्र एक इन्द्रिय धारे॥
द्वय-तिय-चउ-पञ्चेन्द्रिय-धारक त्रसकायिक प्राणी जाने।
भवसागर में भ्रमण कर रहे कीट पतंगे मनमाने ॥११॥
द्विविध रहे हैं पञ्चेन्द्रिय भी, रहित मन औ सहित-मना ।
शेष जीव सब रहित-मना हैं कहते इस विध विजितमना ॥
स्थावर, बादर सूक्ष्म द्विविध हैं दुःख से पीड़ित हैं भारी।
फिर सब ये पर्याप्त तथा हैं पर्याप्तेतर संसारी ॥१२॥
तथा मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों में मिलते हैं।
अशुद्ध-नय से प्राणी-भव में युगों-युगों से फिरते हैं।
किन्तु सिद्ध-सम विशुद्ध-तम हैं सभी जीव ये अविकारी।
विशुद्धनय का विषय यही है विषय-त्याग दे अघकारी ॥१३॥
अष्ट कर्म से रहित हुए हैं अष्ट गुणों से सहित हुए।
अंतिम तन से कुछ कम आकृति ले अपने में निहित हुए।
तीन लोक के अग्रभाग पर सहज रूप से निवस रहे।
उदय नाश-ध्रुव स्वभाव युत हो शुद्ध सिद्ध हो विलस रहे ॥१४॥
पुद्गल-अधर्म-धर्म-काल-नभ पाँच द्रव्य इनको मानो।
चेतनता से दूर रहें ये ‘अजीव' तातै पहिचानो ॥
रूपादिक गुण धारण करता मूर्त द्रव्य ‘पुद्गल' नाना।
शेष द्रव्य हैं अमूर्त क्यों फिर मूर्ती पर मन मचलाना? ॥१५॥
टूटन - फूटन रूप भेद औ सूक्ष्म स्थूलता आकृतियाँ ।
श्रवणेन्द्रिय के विषय-शब्द भी प्रतिछवि छाया या कृतियाँ ॥
चन्द्र, चाँदनी रवि का आतप अंधकार आदिक समझो ।
‘पुद्गल' की ये पर्याये हैं पर्यायों में मत उलझो ॥१६॥
गमन कार्य में निरत रहे जब जीव तथा पुद्गल भाई।
धर्म द्रव्य तब बने सहायक प्रेरक बनता पर नाही ॥
मीन तैरती सरवर में जब जल बनता तब सहयोगी।
रुकी मीन को गति न दिलाता उदासीन भर हो, योगी! ॥१७॥
किसी थान में रुकते हों जब जीव तथा पुद्गल भाई।
अधर्म उसमें बने सहायक प्रेरक बनता पर नाही ॥
रुकने वाले पथिकों को तो छाया कारण बनती है ।
चलने वालों को न रोकती उदासीनता ठनती है ॥१८॥
योग्य रहा अवकाश दान में जीवादिक सब द्रव्यों को।
वही रहा आकाश द्रव्य है समझाते जिन भव्यों को ॥
दो भागों में हुआ विभाजित बिना किसी से वह भाता।
एक ख्यात है लोक नाम से अलोक न्यारा कहलाता ॥१९॥
जीव द्रव्य औ अजीव पुद्गल काल-द्रव्य आदिक सारे।
जहाँ रहें बस ‘लोक' वही है लोकपूज्य जिनमत प्यारे॥
तथा लोक के बाहर केवल फैला जो आकाश रहा।
अलोक वह है केवल-दर्पण में लेता अवकाश रहा ॥२०॥
जीव तथा पुद्गल पर्यायों की स्थिति अवगत जिससे हो।
लक्षण वह व्यवहार काल का परिणामादिक जिसके हो ॥
तथा वर्तना लक्षण जिसका ‘काल' रहा परमार्थ वही।
समझ काल को उदासीन पर वर्णन का फलितार्थ यही ॥२१॥
इक-इक इस आकाश देश में इक-इक कर ही काल रहा।
रत्नों की वह राशि यथा हो फलतः अणु-अणु काल कहा ॥
परिगणनायें ये सब मिलकर अनन्त ना पर अनगिन हैं ।
स्वभाव से तो निष्क्रिय इनको कौन देखते बिन जिन हैं ॥२२॥
जीव - भेद से अजीव पन से द्रव्य मूल में द्विविध रहा।
धर्मादिक वश षड् विध हो फिर उपभेदों से विविध रहा ॥
किन्तु काल तो अस्तिकाय पन से वर्जित ही माना है।
शेष द्रव्य हैं, अस्तिकाय यूँ ‘ज्ञानोदय' का गाना है ॥२३॥
चिर से हैं ये सारे चिर तक इनका होना नाश नहीं।
इन्हें इसी से ‘अस्ति' कहा है जिन ने जिनमें त्रास नहीं ॥
काया के सम बहु-प्रदेश जो धारे उनको ‘काय' कहा।
तभी अस्ति औ काय मेल से ‘अस्तिकाय' कहलाय यहाँ ॥२४॥
एक जीव में नियम रूप से असंख्यात परदेश रहे।
धर्म-द्रव्य औ अधर्म भी वह उतने ही परदेश गहे ॥
अनन्त नभ में पर पुद्गल में संख्यासंख्यानंत रहे।
एक 'काल' में तभी काल ना काय रहा अरहंत कहें ॥२५॥
प्रदेश इक ही पुद्गल-अणु में यद्यपि हमको है मिलता।
रूखे-चिकने स्वभाव के वश नाना स्कन्धों में ढलता ॥
होता बहुदेशी इस विध अणु यही हुआ उपचार यहाँ।
सर्वज्ञों ने अस्तिकाय फिर उसे कहा श्रुत-धार यहाँ ॥२६॥
जिसमें कोई भाग नहीं उस अविभागी पुद्गल अणु से।
व्याप्त हुआ आकाश-भाग वह ‘प्रदेश' माना है जिन से ॥
किन्तु एक आकाश देश में सब अणु मिलकर रह सकते।
वस्तु तत्त्व में बुधजन रमते जड़ जन संशय कर सकते ॥२७॥
आस्रव-बन्धन-संवर-निर्जर तिहा मोक्ष तत्त्व भी बतलाया।
सात-तत्त्व नव पदार्थ होते पाप-पुण्य को मिलवाया ॥
जीव - द्रव्य औ पुद्गल की ये विशेषताएँ मानी हैं।
कुछ वर्णन अब इनका करती, जिन-गुरुजन की वाणी है ॥२८॥
द्रव्यास्रव औ भावास्रव यों माने जाते आस्रव दो।
आतम के जिन परिणामों से कर्म बने भावास्रव सो॥
कर्म-वर्गणा जड़ हैं जिनका कर्म रूप में ढल जाना।
द्रव्यास्रव बस यही रहा है जिनवर का यह बतलाना ॥२९॥
मिथ्या-अविरत पाँच-पाँच हैं त्रिविध-योग का बाना है।
पन्द्रह-विध है प्रमाद होता कषाय-चउविध माना है ॥
भावास्रव के भेद रहे ये रहे ध्यान में जिनवचना।
ध्येय रहे आस्रव से बचना जिनवचना में रच पचना ॥३०॥
ज्ञानावरणादिक कर्मों में ढलने की क्षमता वाले।
पुद्गल - आस्रव द्रव्यास्रव' है जिन कहते समता वाले ॥
रहा एक विध-द्विविध रहा वह चउविध, वसुविध, विविध रहा।
दुखद तथा है, जिसे काटता निश्चित ही मुनि-विबुध रहा ॥३१॥
द्रव्य-भावमय ‘बन्ध' तत्त्व भी द्विविध रहा है तुम जानो।
चेतन भावों से विधि बँधता भाव-बन्ध सो पहिचानो ॥
आत्म-प्रदेशों कर्म प्रदेशों का आपस में घुल-मिलना।
द्रव्य-बन्ध है बन्धन टूटे आपस में हम तुम मिलना ॥३२॥
प्रदेश, अनुभव तथा प्रकृति थिति ‘द्रव्य बन्ध' भी चउविध है।
प्रशम -भाव के पूर, जिनेश्वर-पद-पूजक कहते बुध हैं ॥
प्रदेश का औ प्रकृति-बन्ध का ‘योग’ रहा वह कारण है।
अनुभव-थिति बन्धों का कारण कषाय' है वृष -मारण है ॥३३॥
चेतनगुण से मंडित जो है, आतम का परिणाम रहा।
कर्मास्रव के निरोध में है कारण सो अभिराम रहा ॥
यही भाव-संवर' है माना स्वाश्रित है सम्बल वर है।
कर्मास्रव का रुक जाना ही रहा द्रव्य-संवर' जड़ है ॥३४॥
पञ्च-समितियाँ तीन-गुप्तियाँ पञ्च-व्रतों का पालन हो।
बार-बार बारह-भावन भी दश-धर्मों का धारण हो ।
तथा विजय हो परीषहों पर बहुविध-चारित में रमना।
भेद भाव-संवर' के ये सब रमते इनमें वे श्रमणा ॥३५॥
अपने सुख-दुख फल को देकर जिन भावों से विधि झड़ना।
यथाकाल या तप-गरमी से भाव-निर्जरा उर धरना ॥
पुद्गल कर्मों का वह झड़ना द्रव्य-निर्जरा यहाँ कही।
भाव-निर्जरा द्रव्य-निर्जरा सुनो! निर्जरा द्विधा रही ॥३६॥
सब कर्मों के क्षय में कारण आतम का परिणाम रहा।
भाव-मोक्ष वह यही बताता जिनवर मत अभिराम रहा ॥
आत्म -प्रदेशों से अति-न्यारा तन का, विधि का हो जाना।
‘द्रव्य-मोक्ष' है, मोक्षतत्त्व भी द्रव्य-भावमय सोपाना ॥३७॥
शुभ-भावों से सहित हुआ सो जीव पुण्य हो आप रहा।
अशुभ-भाव से घिरा हुआ ही जीव आप हो पाप रहा ॥
सुर-नर-पशु की आयु-तीन ये उच्चगोत्र औ सुख साता।
नाम-कर्म सैंतीस पुण्य हैं, शेष पाप हैं दुखदाता ॥३८॥
सच्चादर्शन तत्त्वज्ञान भी सच्चा, सच्चा चरण तथा।
‘मोक्षमार्ग-व्यवहार' यही है प्रथम यही है शरण-कथा ॥
परन्तु ‘निश्चय-मोक्षमार्ग' तो निज आतम ही कहलाता।
क्योंकि आतमा इन तीनों से तन्मय होकर वह भाता ॥३९॥
ज्ञानादिक ये तीन रतन तो आत्मा में ही झिल-मिलते।
शेष सभी द्रव्यों में झांको कभी किसी को ना मिलते ॥
इसीलिए इन रत्नों में नित तन्मय हो प्रतिभासित है।
माना निश्चय मोक्षसौख्य का, कारण आतम भावित है ॥४०॥
जीवाजीवादिक तत्त्वों पर करना जो श्रद्धान सही।
‘सम-दर्शन' है वह आतम का स्वरूप माना,जान सही ॥
जिसके होने पर क्या कहना संशय - विभ्रम भगते हैं।
समीचीन तो ज्ञान बने वह प्राण-प्राण झट जगते हैं ॥४१॥
विमोह-विभ्रम जहाँ नहीं है संशय से जो दूर रहा।
निज को निज ही, पर को पर ही जान रहा, ना भूल रहा ॥
समीचीन बस ‘ज्ञान' वही है बहुविध हो साकार रहा।
मन-वच-तन से गुणीजनों का जिसके प्रति सत्कार रहा ॥४२॥
दृश्य रही कुछ अदृश्य भी हैं लघु कुछ, गुरु कुछ ‘वस्तु' रही।
इसी तरह बस तरह-तरह की स्वभाववाली अस्तु सही ॥
‘दर्शन' तो सामान्य मात्र को विषय बनाता अपना है।
विषय भेद तो 'ज्ञान' कराता जिनमत का यह जपना है ॥४३॥
पूर्ण-ज्ञान वह जिन्हें प्राप्त ना उन्हें प्रथम तो दर्शन हो।
बाद ज्ञान उपयोग नहीं दो एक-साथ, कब दर्शन हो?
पूर्ण - ज्ञान से पूर्ण - सुशोभित केवलज्ञानी बने हुए।
एक साथ उपयोग धरे दो अन्तर्यामी बने हुए ॥४४॥
अशुभ-भावमय पाप-वृत्ति को मन-वच-तन से जो तजना।
शुभ में प्रवृत्ति करना समुचित ‘चारित' है मन रे भजना ॥
यह ‘चारित्र-व्यवहार' कहाता समिति-गुप्ति व्रत वाला है।
इस विध जिनशासन है गाता सुधा-सुपूरित प्याला है ॥४५॥
बाहर की भी भीतर की भी क्रिया मात्र को बंद किया।
भव के कारण पूर्ण मिटाना यही मात्र सौगंध लिया ॥
उस ज्ञानी का जीवन ही वह रहा परम शुचि चारित है।
जिनवाणी का यही बताना मुनीश्वरों से धारित है ॥४६॥
निश्चय औ व्यवहार भेद से द्विविध यहाँ शिव-पंथ रहा।
ध्यान काल में निश्चित उसको पाता है मुनि संत अहा ॥
इसीलिए तुम दत्त-चित्त हो एक-मना हो विजित-मना।
सतत करो अभ्यास ध्यान का शीघ्र बनो फिर विगत-मना ॥४७॥
शुद्धातम के सहज - ध्यान में होना जब है तल्लीना।
चंचल मन को अविचल करना चाहो यदि निज-आधीना ॥
मोह करो मत, राग करो मत, द्वेष करो मत, तुम तन में।
इष्ट रहे कुछ, अनिष्ट भी हैं पदार्थ मिलते त्रिभुवन में ॥४८॥
णमोकार ‘पैंतीस वर्ण का मन्त्र रहा सोलह, छह का।
पाँच, चार, दो इक वर्गों का द्वार-ध्यान का, निज-गृह का ॥
यों परमेष्ठी-वाचक वर्गों का नियमित जप-ध्यान करो।
या गुरु-संकेतों पर मन को कीलित कर अवधान करो ॥४९॥
घाति-कर्म चउ समाप्त करके शुद्ध हुए जो आप्त हुए।
अनन्त-दर्शन अनन्त-सुख-बल पूर्ण- ज्ञान को प्राप्त हुए ॥
परमौदारिक तन-धारक हो परम पूज्य अरहन्त हुए।
इन्हें बनाओ ध्येय ध्यान में जय! जय! जय! जयवंत हुये ॥५०॥
लोक शिखर पर निवास करते तीन-लोक के नायक हैं।
लोकालोकाकाश तत्त्व के केवलदर्शक-ज्ञायक हैं।
पुरुष रूप आकार लिए हैं ‘सिद्धातम' हैं कहलाते।
स्व-तन-कर्म को नष्ट किये हैं ध्यावें उनको हम तातें ॥५१॥
दर्शन-ज्ञानाचार प्रमुख कर चरित-वीर्य-तप खुद पालें।
पालन करवाते औरों से शिव-पथ पर चलने वाले ॥
ये हैं मुनि 'आचार्य' हमारे पूज्यपाद पालक प्यारे।
ध्यान इन्हीं का करें रात-दिन विनीत हम बालक सारे ॥५२॥
भव्य - जनों को धर्म-देशना देने में नित निरत रहें।
तीन-रतन से मण्डित होते लौकिकता से विरत रहें।
‘उपाध्याय' ये पूज्य कहाते यतियों के भी दर्पण हैं।
मनसा-वचसा-वपुषा इनको नमन कोटिशः अर्पण हैं ॥५३॥
यथार्थ दर्शन तथा ज्ञान से नियम रूप से सहित रहे।
निरतिचार वह ‘चारित ही है मोक्षमार्ग' यह विदित रहे ॥
इसी चरित की ‘साधु’ साधना सदा सर्वदा करता है।
ध्यान-साधु का करो इसी से सभी आपदा हरता है ॥५४॥
चिंता क्या है, चिन्तन कुछ भी साधु करें वह, पर इतना।
ध्यान रहे बस निरीहता का साधुपना पनपे उतना ॥
एक ताजगी निरी-एकता पाता निश्चित साधु वही।
यही ध्यान है निश्चय समझो साधु बनो! पर स्वादु नहीं ॥५५॥
कुछ भी स्पन्दन तन में मत ला बंद-मुखी हो, जल्प न हो।
चिंता, चिन्तन मन में मत कर चेतन फलतः निश्चल हो ॥
अपने ही आतम में अपना अविचल हो, जो रमना है।
ध्यान रहे यह परम ध्यान है और ध्यान तो भ्रमणा है ॥५६॥
व्रत के धारक, तप के साधक श्रुत-आराधक बना हुआ।
वही ध्यान-रथ-धुरा सु-धारे नियम रहा यह बँधा हुआ ॥
इसीलिए यदि सुनो तुम्हें भी ध्यानामृत को चखना है।
व्रत में, तप में, श्रुत में निज को निशिदिन तत्पर रखना है ॥५७॥
बिन्दु मात्र श्रुत का धारक हूँ, पार सिन्धु का कब पाता।
नेमिचन्द्र नामक मुनि मुझसे लिखा ‘द्रव्यसंग्रह' साता ॥
दूर हुए दोषों से कोसों - श्रुत - कोषों से पूर हुए।
शोधे वे 'आचार्य' इसे यदि भाव यहाँ प्रतिकूल हुए ॥५८॥