इसविध अनेक निज बल आकर होकर आतम भाता है,
सहज ज्ञान-पन को फिर भी नहिं तजता पावन साता है।
आत्म द्रव्य पर्यय का न्यारा अक्षय अव्यय केतन है,
क्रम-अक्रम-वर्ती पर्यय से शोभित होता चेतन है॥२६४॥
वस्तु तत्त्व ही अनेकान्तमय स्वयं रहा, गुरु लिखते हैं,
अनेकान्त के लोचन द्वारा जिसे सन्त जन लखते हैं।
स्याद्वाद की और शुद्धि पा बनते मुनिजन वे ज्ञानी,
जिन मत से विपरीत किन्तु ना जाते बन के अभिमानी ॥२६५॥
किसी तरह पर यत्न सुधी जन वीतमोह बन गतरागी,
केवल निश्चल ज्ञान भाव का आश्रय करते बड़ भागी।
शिव का साधक रत्नत्रय वे फलतः पाकर शिव गहते,
मूढ़ मोह वश विरागता बिन भव-भव भ्रमते दुख सहते ॥२६६॥
स्याद्वाद से पूर्ण कुशलता पा अविचल संयम-धारी,
पल पल अविरल अविकल निर्मल निज को ध्यावे अविकारी।
ज्ञानमयी नय क्रियामयी नय इन्हें परस्पर मित्र बना,
पाता मुनिवर वही अकेला शुद्ध-चेतना मात्रपना ॥२६७॥
चेतन रस का पिण्ड चण्ड है सहज भाव से विहस रहा,
विराग मुनि में इस विध आतम उदित हुआ है विलस रहा।
चिदानन्द से अचल हुवा वह एक रूप ही सदा हुआ,
शुद्ध ज्योति से पूर्ण भरा है प्रभात सुख का सदा हुआ ॥२६८॥
शुद्ध-भावमय विराग मम मन में जब द्युतिपन उदित हुआ,
स्याद्वाद से झगर झगर कर स्फुरित हुवा है मुदित हुवा।
अन्य भाव से फिर क्या मतलब भव या शिव पथ में रखते,
स्वीय भाव बस उदित रहे यह, यही भावना मुनि रखते ॥२६९॥
यद्यपि बहुविध बहुबल आलय आतम तमनाशक साता,
नय के माध्यम ले लखता हूँ खण्ड-खण्ड हो नश जाता।
खण्ड निषेधित अतः किए बिन अखण्ड चेतन को ध्याता,
शान्त, शान्ततम अचल निराकुल छविमय केवल को पाता ॥२७०॥
ज्ञान मात्र हो ज्ञेय रूप में यह जो मैं शोभित होता,
किन्तु ज्ञेय का ज्ञान मात्र नहिं तथापि हूँ बाधित होता।
ज्ञेय रूप-धर ज्ञान विकृतियाँ सतत उगलती उजियाली,
परन्तु ज्ञाता ज्ञान-ज्ञेयमय वस्तु मात्र मम है प्यारी ॥२७१॥
आत्म-तत्त्व मम चित्रित दिखता कभी चित्र बिन लसता है,
चित्राचित्री कभी-कभी वह विस्मित सस्मित हँसता है।
तथापि निर्मल-बोध-धारि के करे न मन को मोहित है,
चूँकि परस्पर बहुविध बहुगुण-मिले आत्म में शोभित हैं॥२७२॥
द्रव्यदृष्टि से एक दीखता पर्यय वश वह नेक रहा,
क्षण-क्षण पर्यय मिटे क्षणिक है, ध्रुव गुण वश तू देख अहा ?
ज्ञानदृष्टि से विश्व व्याप्त पर स्वीय-देश में खड़ा हुआ,
अद्भुत वैभव सहज आत्म का देखो निज में पड़ा हुआ ॥२७३॥
बहती जिसमें कषाय-नाली शांति सुधा भी झरती है,
भव पीड़ा भी वहीं प्यार कर मुक्ति रमा मन हरती है।
तीन लोक भी आलोकित है अतिशय चिन्मय लीला है,
अद्भुत से अद्भुत-तम महिमा आतम की जय शीला है ॥२७४॥
सकल विश्व ही युगपत् जिसमें यदपि निरन्तर चमक रहा,
तदपि एक बन जयशाली है सहज तेज से दमक रहा।
निज रस पूरित रहा अतः वह तत्त्व बोध से सहित रहा,
चेतन का जो चमत्कार है अचल व्यक्त हो स्फुरित रहा ॥२७५॥
चेतन-मय-शुचि 'अमृतचन्द्र' की सौम्य ज्योति अवभासित है,
अविचल-आतम में आतम से आतम को कर आश्रित है।
बाधा बिन वह रही अकेली रही न काली मोह-निशा,
फैली परितः विमल-धवलिमा उजल उठी हैं दशों दिशा ॥२७६॥
स्वपर-रूप यह विपर्यास हो प्रथम ऐक्य कर निज तन में,
रागादिक कर आतम उलझे कर्तृ-कर्म के उलझन में।
कर्म-कर्मफल' चेतन का फिर अनुभव-वश नित खिन्न हुआ,
ज्ञान-रूप में निरत वही अब तन-मन से अति भिन्न हुआ ॥२७७॥
वस्तु-तत्त्व की यथार्थता का वर्णन जिसने किया सही,
शब्द-समय ने ‘समयसार' का स्वयं निरूपण किया यही।
कार्य-रहा नहिं अब कुछ करने ‘अमृतचन्द्र' हूँ सूरि यदा,
लुप्त गुप्त हूँ सुसुप्त निज में सुख अनुभवता भूरि सदा ॥२७८॥
(दोहा)
मेटे वाद विवाद को निर्विवाद स्याद्वाद।
सब वादों को खुश रखे पुनि पुनि कर संवाद ॥१॥
समता भज तज प्रथम तू पक्षपात परमाद।
स्याद्वाद आधार ले समयसार पढ़ वाद ॥२॥
श्री अमृतचन्द्रसूरये नमः
(दोहा)
दृग व्रत चिति की एकता, मुनिपन साधक भाव।
साध्य सिद्ध शिव सत्य है, विगलित बाधक भाव ॥१॥
साध्य साधक ये सभी, सचमुच में व्यवहार।
निश्चयनय-मय नयन में, समय समय का सार ॥२॥