ज्ञाता अनेक विध आगम के यशस्वी, सम्यक्त्व संयम लिए तपते तपस्वी।
धोते कषायमल, निर्मल शुद्ध प्यारे, आचार्य वे नमन हों उनको हमारे ॥१॥
जो भी जिनेश मत में जिन ने बताया, संक्षेप मात्र उसकी यह मात्र छाया।
सम्बोधनार्थ सबको सुन लो! सुनाता, है बोध प्राभृत चराचरमोद-दाता ॥२॥
है आद्य आयतन चैत्यगृहा सुप्यारा, है तीसरी जिनप की प्रतिमा सुचारा।
सद्दर्शना जिनप बिम्ब विराग-शाला, आत्मार्थ ज्ञान यह सात सुनाम माला ॥३॥
औ देव तीर्थकर अर्हत है प्रव्रज्या, जो हो विशुद्ध गुण से बिन राग लज्जा।
ये हैं जिनोदित यथाक्रम जान लेना, आगे उन्हें कह रहा बस! ध्यान देना ॥४॥
जीते निजी-करण निर्विषयी दमी है, वाक्काय चित्त वश में रखता शमी है।
निर्ग्रन्थ रूप यम संयम कूप भाता, हो सत्य आयतन वो जिन शास्त्र गाता ॥५॥
हैं राग रोष मद को मन में न लाते, चारों कषाय वश में रखते सुहाते।
औ पाँच पाप तज सद्गत पाँच पाले, वे शुद्ध आयतन हैं ऋषि-राज प्यारे ॥६॥
साधा निजात्म मुनि निर्मल ध्यान-धारी, हीराभ से विमल केवलज्ञान-धारी।
हैं सिद्ध-आयतन श्रेष्ठ-मुनीश्वरों में, वन्दूँ उन्हें विनय से निशि-वासरों में ॥७॥
विज्ञान धाम निज आतम को सुजाने, चैतन्य पिण्डमय भी पर को पिछाने।
पाने महाव्रत सही खुद ज्ञान होता, वो साधु चैत्यगृह हो सुन! भव्य श्रोता ॥८॥
बंधादि मोक्ष सुख आतम भोगता है, लो धारता जब सचेतन-योगता है।
षट्काय-जीव हितकारक नग्न-स्वामी, जीवन्त चैत्य गृह हैं जिनमार्ग-गामी ॥९॥
सम्यक्त्व बोध शुचि से शुचि वृत्त पालें, जीवन्त जंगम दिगम्बर साधु प्यारे।
निर्ग्रन्थ ग्रन्थ तज-राग, विराग ही हैं, आदर्श-जैन मत में प्रतिमा वही है॥१०॥
जाने लखे स्वयम को समदृष्टिवाला, है शुद्ध आचरण से चलता निराला।
निर्ग्रन्थ संयममयी प्रतिमा यही है, तो वन्दनीय वह है जग में सही है ॥११॥
पाये अनन्त सुख वीर्य अनन्त पाये, पा ज्ञान दर्शन अनन्त अतः सुहाये।
दुष्टाष्ट कर्म तन के बिन जी रहे हैं, स्वादिष्ट-शाश्वत-सुखामृत पी रहे हैं ॥१२॥
व्युत्सर्गरूप-प्रतिमा ध्रुव हो लसे हैं, लोकाग्र जा स्थिर शिवालय में बसे हैं।
वे सिद्ध जो अतुल निश्चल शैल सारे, हैं क्षोभ से रहित हैं हित हैं हमारे ॥१३॥
सद्धर्म को सहज सम्मुख शीघ्र लाता, सम्यक्त्व मोक्ष पथ संयम को दिखाता।
निर्ग्रन्थ ज्ञानमय 'दर्शन' भी वही है, यों जैनशास्त्र हमको कहता सही है ॥१४॥
आर्या व क्षुल्लक दिगम्बर साधुओं का, वो वेश आलय स्वबोध दृगादिकों का।
हो फूल से तुम सुगन्ध अवश्य पाते, हो दूध से घृत प्रशस्त मनुष्य पाते ॥१५॥
पात्रानुसार विधि-नाशक जैन दीक्षा, देते कृपाकर! कृपा कर उच्च शिक्षा।
हैं वीतराग बन संयम शुद्ध पालें, आचार्य वे हि जिन बिम्ब' हमें संभालें ॥१६॥
सेवा करो विनय आदर वन्दना भी, आचार्य की सुखद पूजन भावना भी।
कर्त्तव्य में सतत जागृत ज्ञान वाले, सम्यक्त्व सौध जिनबिम्ब रहे हमारे ॥१७॥
मूलोत्तरादिक गुणों सब सत्तपों से, हैं शुद्ध शुद्धतर शुद्धतमा व्रतों से।
दीक्षादि दान करते गुण के समुद्रा, आचार्य ही नियम से अरहन्त मुद्रा ॥१८॥
सत् साधु की शुचिमयी अकषाय मुद्रा, है वन्द्य पूज्य जित-इन्द्रिय पूत मुद्रा।
वो वस्तुतः सुदृढ़ संयमरूप मुद्रा, हे भव्य स्वीकृत वही अरहन्त मुद्रा ॥१९॥
सद्ध्यान योग यम संयम से सुहाता, सो मोक्ष मार्ग जिन आगम में कहाता।
है लक्ष्य, मोक्ष जिसका वह ज्ञान से हो, ज्ञातव्य ज्ञान यह है निज ध्यान से हो ॥२०॥
भेदे न लक्ष्य बिन बाण धनुष्यधारी, जाने बिना वह धनुष्य न कार्यकारी।
सो लक्ष्यभूत शिव को न कदापि पाता, जो ज्ञान-हीन भव में दुख ही उठाता ॥२१॥
हो शोभता पुरुष जो विनयी सही है, ले ज्ञान लाभ निज जीवन में वही है,
है मोक्ष, मोक्ष पथ का वह लक्ष्य-ध्याता, विज्ञान से सहज मोक्ष अवश्य पाता ॥२२॥
प्रत्यंच हो श्रुत, मती स्थिर हो धनुष्य, हो बाण रत्नत्रय ले कर में अवश्य।
शुद्धात्म लक्ष्य यदि मात्र किया सही है, तो साधु, मोक्ष पथ से चिगता नहीं है ॥२३॥
वे देव धर्म धन काम सुबोध देते, औचित्य जो निकट हो वह दान देते।
है देव के निकट भी शिवदा प्रव्रज्या, है धर्म अर्थ कल केवल ज्ञान विद्या ॥२४॥
हो धर्म शुद्ध सदयावश हो प्रव्रज्या, वो सर्व संग बिन शोभित हो सुसज्या।
वे देव हैं विगत मोह सदा कहाते, सोते सुभव्य जन को सहसा जगाते ॥२५॥
चारित्र से विमल दर्शन औ बनाने, पंचेन्द्रियाँ दमित संयम भी कराने।
दीक्षा प्रशिक्षण गहे गुरु से, सुहाये, साधू स्वतीर्थ भर में डुबकी लगाये ॥२६॥
सम्यक्त्व ज्ञान तप संयम धर्म सारे, ये साधु के विमल निर्मल हो उजारे।
औ साथ-साथ यदि वो समता रही है, तो तीर्थ जैन मत में सुखदा वही है ॥२७॥
निक्षेप चार वश पर्यय भाव द्वारा, ज्ञानादि पूर्ण गुण के गण भाव द्वारा।
किंवा सुनो! च्यवन आगति आदि द्वारा, अर्हन्त रूप दिखता सुख का पिटारा ॥२८॥
है भाव मोक्ष दृग ज्ञान अनन्त पाये, आठों नवीन विधि-बंधन को मिटाये।
स्वामी! अतुल्य गुण भार नितान्त जोते, वे ही जिनेश मत में अरहन्त होते ॥२९॥
ये पाप पुण्य मृति रोग जरादिकों को, मेटा समूल मल पुद्गल के दलों को,
चारों गती भ्रमण-मुक्त हुए अतः हैं, विज्ञान धाम अरहन्त हुए स्वतः हैं ॥३०॥
पर्याप्ति प्राण गुणथान विधान द्वारा, औ जीव थान सब मार्गण-भाव द्वारा।
सो स्थापना हृदय में अरहन्त की हो, शीघ्रातिशीघ्र जिससे भव अन्त ही हो ॥३१॥
हैं प्रातिहार्य वसु मंडित पूज्य प्यारे, चौंतीस सातिशय वे गुण भी सुधारें।
बैठे उपान्त-गुण थानन में सयोगी, हैं केवली विमल हैं अरहन्त योगी ॥३२॥
ये मार्गणा कि, गति इन्द्रिय काय, योग, औ वेद दु:खद-कषाय व ज्ञान-योग।
पश्चात संजम व दर्शन लेश्य भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञिक अहार सुजान! भव्य ॥३३॥
आहार आदिम शरीर तथैव भाषा, औ आन-प्राण मन, मान! जिनेश दासा।
पर्याप्तियाँ गुण छहों अरहन्त धारे, माने गये परम उत्तम देव प्यारे ॥३४॥
तू पाँच ही समझ इन्द्रिय प्राण होते, वाक्काय चित्त त्रय ये बल प्राण होते।
औ आन प्राण इक आयुक प्राण सारे, माने गये समय में दश प्राण प्यारे ॥३५॥
हो जीव स्थान वह चौदहवाँ, मनुष्य, पंचेन्द्रियाँ मन मिले जिसमें अवश्य।
पूर्वोक्त सर्व गुण पा अरहन्त प्यारे, बैठे उपान्त गुणथानन में उजारे ॥३६॥
वार्धक्य व्याधि दुख भी जिसमें नहीं है, ये श्लेष्म स्वेद मल थूक सभी नहीं है।
आहार भी नहिं विहार कभी नहीं है, जो दोष कोष न घृणास्पद भी नहीं है ॥३७॥
सर्वांग में रुधिर मांस भरे हुए हैं, गोक्षीर शंख सम श्वेत धुले हुए हैं।
पर्याप्तियां छह मिले दश प्राण सारे, शोभे हजार वसु लक्षण पूर्ण प्यारे ॥३८॥
ऐसे हि श्रेष्ठ गुणधाम प्रमोदकारी, सौगंध-सौध अति निर्मल मोहहारी।
औदारिकी तन रहा अरहन्त का है, पूजो इसे पद मिले भगवन्त का है॥३९॥
जो राग रोष मद से प्रतिकूल होते, स्वामी कषाय मल से अति दूर होते।
कैवल्य भाव शुचि आर्हत में जगा है, पूरा क्षयोपशम-भाव तभी भगा है॥४०॥
कैवल्य ज्ञान शुचि दर्शन-नेत्र द्वारा, हैं जानते निरखते त्रय लोक सारा।
सम्यक्त्व से झग झगा लसते निराला, अर्हन्त का विमल भाव स्वभाव प्यारा ॥४१॥
उद्यान शून्य गृह में तरु कोटरों में, भारी वनों उपवनों गिरि गहवरों में।
किंवा भयानक श्मशान-धरातलों में, कोई सकारण विमोचित आलयों में ॥४२॥
पूर्वोक्त स्थान भर में रह शील पाले, ऐसे जिनेश मत में मुनि मुख्य प्यारे।
स्वाधीन हों जिन जिनागम तीर्थ ध्यावें, उत्साह साहस स्वतंत्रपना निभावें ॥४३॥
पाले महाव्रत तजें पर की अपेक्षा, हो के जितेन्द्रिय करें सबकी उपेक्षा।
स्वाध्याय ध्यान भर में लवलीन होते, वे ही नितान्त मुनि श्रेष्ठ प्रवीण होते ॥४४॥
आरंभ पाप तज सर्व कषाय जीते, औ गेह ग्रन्थ भर से बन पूर्ण रीते।
सारे सहें परिषहों उनकी प्रव्रज्या, मानी गई समय में वह लोक पूज्या ॥४५॥
वस्त्रादि दान धनधान्य कुदान से भी, छत्रादि स्वर्ण शयनासन दान से भी।
मानी गई न जिनशासन में प्रव्रज्या, निर्ग्रन्थ, ग्रन्थ बिन ही लसती प्रव्रज्या ॥४६॥
जो साम्य, निंदन सुवंदन में सँभारे, मिट्टी गिरी कनक को तृण को निहारे।
माने समान रिपु बाँधव लाभ हानी, दीक्षा सही श्रमण की यह साधु वाणी ॥४७॥
ना ही करे धनिक निर्धन की परीक्षा, छोटा बड़ा भवन यों न करें समीक्षा।
जाते सभी जगह भोजन लाभ हेतु, दीक्षा सही श्रमण की यह जान रे! तू ॥४८॥
निर्ग्रन्थ हो निरभिमान निसंग प्यारे, निर्दोष निर्मम निरीह नितान्त न्यारे।
नीराग नित्य निरहंपण शीलधारी, दीक्षा उन्हीं श्रमण की सुख झीलवाली ॥४९॥
निर्लोभ भाव रत हैं मुनि निर्विकारी, निर्मोह निष्कलुष निर्भय-भावधारी।
आशा बिना विषय राग बिना विरागी, दीक्षा उन्हीं श्रमण की समझो सरागी! ॥५०॥
नीचे भुजा कर खड़े शिशु-रूप-धारे, वस्त्रास्त्र शस्त्र तज शांत स्व को निहारे,
काटें निशा परकृतों मठ मंदिरों में, दीक्षा उन्हीं श्रमण की समझें गुरो! मैं ॥५१॥
धारी क्षमा शमदमान्वित हो सुहाते, स्नानादि तैल तजते तन को सुखाते।
है राग-रोष मद से अति दूर ज्ञानी, दीक्षा उन्हीं श्रमण की सुन मूढ़ प्राणी ॥५२॥
भागीं नितान्त जिनकी मति मूढ़तायें, होंगी विनष्ट वसु ये विधि-गूढतायें।
मिथ्या टली दृग विशुद्ध मिली शिवाली, दीक्षा उन्हीं श्रमण की समता- सुप्याली॥५३॥
उत्कृष्ट संहनन या कि जघन्य पावें, निर्ग्रन्थ वे बन सके जिन यों बतायें।
दुष्टाष्ट कर्म क्षय की रख मात्र इच्छा, स्वीकारते भविक हैं जिन लिंग दीक्षा ॥५४॥
अत्यल्प भी विषय राग नहीं रहा है, ना बाह्य का ग्रहण संग्रह भी रहा है।
दीक्षा उन्हीं श्रमण की जिन हैं बताते, जो जानते निखिल को लखते सुहाते ॥५५॥
साधू सहें परिषहों उपसर्ग बाधा, प्रायः रहें विजन में वन मध्य ज्यादा।
एकान्त में शयन आसन साधते हैं, भू पे, शिला, फलक पे निशि काटते हैं ॥५६॥
साधू करें न विकथा व्यभिचारियों से, हो दूर षंड पशुवों महिलाजनों से।
स्वाध्याय-ध्यान रत जीवन हैं बिताते, दीक्षा उन्हीं श्रमण की जिन हैं बताते ॥५७॥
सम्यक्त्व से नियम संयम के गुणों से, होते नितान्त मुनि शुद्ध व्रतों तपों से।
दीक्षा विशुद्ध उनकी गुण-धारती है, प्यारी यही कह रही जिनभारती है॥५८॥
निर्ग्रन्थ आयतन हो मुनि के गुणों से, पूरा भरा नियम-संयम लक्षणों से।
ऐसा जिनेश मत ने हमको बताया, संक्षेप से मुनिपना हमको दिखाया ॥५९॥
निर्ग्रन्थरूप सुख कूप अनूप प्यारा, षट्काय जीव हितकारक भूप न्यारा।
जैसा जिनेन्द्र मत में जिन ने बताया, बोधार्थ भव्य जन को हमने दिखाया ॥६०॥
भाषा ससूत्र जिननायक ने बताया, सो शब्द का सब विभाव विकार-माया।
मैं भद्रबाहु गुरु का लघु शिष्य छाया, जो ज्ञात था समय के अनुसार गाया ॥६१॥
वाक्देवि के पट प्रचार प्रसारकर्ता, हे! द्वादशांग श्रुत चौदह पूर्व धर्ता।
हे! भद्रबाहु श्रुत-केवलज्ञानधारी, स्वामी! गुरो गमक हे! जय हो तुम्हारी ॥६२॥
(दोहा)
जिन आलय औ आयतन, प्रतिमा, दर्शन सार।
जैन बिम्ब औ जैन की मुद्रा सुख आगार ॥१॥
ज्ञान, देव, शुचि तीर्थ भी दीक्षा पथ अरहन्त।
ग्यारह ये मुनिरूप हैं धरते भव का अन्त ॥२॥
पाषाणादिक में इन्हें थाप भजो व्यवहार।
यही बोध प्राभृत रहा अबोध मेटन ‘हार' ॥३॥