आशीष लाभ तुम से यदि मैं न पाता,
जाता लिखा नहिं “निजामृत पान' साता।
दो ‘ज्ञानसागर' गुरो! मुझको सुविद्या,
विद्यादिसागर बनूं तजदूँ अविद्या ॥१॥
(दोहा)
‘कुन्दकुन्द' को नित नमूँ, हृदय कुन्द खिल जाय।
परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय ॥२॥
‘अमृतचन्द्र' से अमृत, है झरता जग-अपरूप।
पी पी मम मन मृतक भी, अमर बना सुख कूप ॥३॥
तरणि ‘ज्ञानसागर' गुरो! तारो मुझे ऋषीश।
करुणाकर! करुणा करो कर से दो आशीष ॥४॥
सुफल
मुनि बन मन से जो सुधी करें ‘निजामृतपान'।
मोक्ष ओर अविरल बढ़े चढ़े मोक्ष सोपान ॥५॥
मंगलकामना
विस्मृत मम हो विगत सब विगलित हो मद मान।
ध्यान निजातम का करूँ, करूं निजी-गुण गान ॥१॥
सादर शाश्वत सारमय समयसार को जान।
गट गट झट पट चाव से करूँ ‘निजामृतपान' ॥२॥
रम रम शम-दम में सदा मत रम पर में भूल।
रख साहस फलतः मिले भव का पल में कूल ॥३॥
चिदानन्द का धाम है ललाम आतम राम।
तन मन से न्यारा दिखे मन पे लगे लगाम ॥४॥
निरा निरामय नव्य मैं नियत निरंजन नित्य।
जान मान इस विध तजूँ विषय कषाय अनित्य ॥५॥
मृदुता तन मन वचन में धारो बन नवनीत।
तब जप तप सार्थक बने प्रथम बनो भवभीत ॥६॥
पापी से मत पाप से घृणा करो अयि! आर्य।
नर वह ही बस पतित हो पावन कर शुभ कार्य ॥७॥
भूल क्षम्य हो
लेखक, कवि मैं हूँ नहीं, मुझमें कुछ नहिं ज्ञान।
त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ, शोध पढ़े, धीमान! ॥८॥
स्थान एवं समय परिचय
कुण्डल गिरि के पास है नगर दमोह महान।
ससंघ पहुँचा मुनि जहाँ भवि जन पुण्य महान् ॥९॥
देव-गगन गति गंध की वीर जयन्ती आज।
पूर्ण किया इस ग्रन्थ को निजानन्द के काज ॥१०॥
पूर्ण होने का स्थान दमोह नगर (म० प्र०) और काल वीर निर्वाण सं० २५०४ (महावीर जयन्तीचैत्र शुक्ल त्रयोदशी, वि० सं० २०३५, शुक्रवार, २१ अप्रैल १९७८)।