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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 2 : सूत्र 12

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    Vidyasagar.Guru

    आगे संसारी जीव के और भी भेद बतलाते हैं

    संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥१२॥

     

     

    अर्थ - संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं। जिसके त्रस नाम कर्म का उदय होता है, वह जीव त्रस कहलाता है और जिसके स्थावर नाम कर्म का उदय होता है, वह जीव स्थावर कहलाता है।

     

    English - The transmigrating souls are also divided into two kinds i.e. the mobile and the immobile beings.

     

    विशेषार्थ - कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जो चलें फिरें, वे त्रस हैं। और जो एक ही स्थान पर ठहरे रहें, वे स्थावर हैं। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से जो जीव गर्भ में हैं या अण्डे में हैं, वा चुपचाप पड़े सोते हैं अथवा मूर्छित पड़े हैं। वे त्रस नहीं कहे जा सकेंगे। तथा हवा, आग और पानी स्थावर हैं, किन्तु इनमें हलन चलन वगैरह देखा जाता है अतः वे त्रस कहे जायेंगे। इसलिए चलने और ठहरे रहने की अपेक्षा त्रस स्थावर पना नहीं है, किन्तु उस और स्थावर नामकर्म की अपेक्षा से ही है। इस सूत्र में भी उस शब्द को स्थावर पहले रखा है क्योंकि उस स्थावर से पूज्य है तथा अल्प अक्षरवाला भी है।


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