अब पारिमाणिक भाव के तीन भेद बतलाते हैं-
जीवभव्याभव्यत्वानि च॥७॥
अर्थ - जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन जीव के असाधारण पारिणामिक भाव हैं। ये भाव जीव के सिवा अन्य द्रव्यों में नहीं होते। तथा इनके होने में किसी कर्म का उदय वगैरह भी कारण नहीं है।
English - The three inherent nature of the soul is the principle of life (consciousness), capacity for salvation and incapacity for salvation.
अतः ये असाधारण पारिणामिक भाव कहलाते हैं। वैसे साधारण पारिणामिक भाव तो अस्तित्व, नित्यत्व, प्रदेशत्व आदि बहुत से हैं, किन्तु वे भाव अन्य अजीव द्रव्यों में भी पाये जाते हैं। इसीलिए उनको ‘च' शब्द से ग्रहण कर लिया है। जीवत्व नाम चैतन्य का है। चैतन्य जीव का स्वाभाविक गुण है। इसलिए वह पारिणामिक है। जिसमें सम्यग्दर्शन आदि परिणामों के होने की योग्यता है, वह भव्य है और जिसमें वैसी योग्यता का अभाव है, वह अभव्य है। ये दोनों बातें भी स्वाभाविक ही हैं। जैसे जिन उड़द, मूंग वगैरह में पकने की शक्ति होती है, वे निमित्त मिलने पर पक जाते हैं और जिनमें वह शक्ति नहीं होती, वे कितनी ही आग जलाने पर भी नहीं पकते । यही दशा जीवों की है। इस तरह औपशमिक आदि जीव के पाँच भावों का वर्णन किया है।
शंका - जीव के ये भाव नहीं हो सकते; क्योंकि ये भाव कर्मबन्ध की अपेक्षा से बतलाये हैं। और आत्मा अमूर्तिक है, अतः अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक कर्मों से नहीं बँध सकता ? -
समाधान - आत्मा एकान्त से अमूर्तिक ही नहीं है किन्तु मूर्तिक भी है। कर्मबन्ध की अपेक्षा से तो मूर्तिक है, क्योंकि अनादिकाल से संसारी आत्मा कर्म पुद्गलों से दूध-पानी की तरह मिला हुआ है, कभी भी कर्म से जुदा नहीं हुआ तथा शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा से अमूर्तिक है, क्योंकि यद्यपि कर्म और आत्मा, दूध और पानी की तरह एक हो रहे हैं फिर भी अपने चैतन्य स्वभाव को छोड़कर आत्मा कभी भी पुद्गलमय नहीं हो जाता। अतः अमूर्तिक है। |
शंका - जब संसार अवस्था में आत्मा कर्म पुद्गलों के साथ दूधपानी की तरह मिला हुआ है, तो उसको हम कैसे जान सकते हैं कि यह आत्मा है ?
समाधान - बन्ध की अपेक्षा से आत्मा और पुद्गल मिले होने पर भी दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न है। उस लक्षण से आत्मा की पहचान हो सकती है।