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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 3 : सूत्र 2

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    Vidyasagar.Guru

    तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्राणि

    पञ्च चैव यथाक्रमम् ॥२॥

     

     

    अर्थ - उन रत्नप्रभा आदि भूमियों में नरकों की संख्या इस प्रकार है - पहली पृथ्वी के अब्बहुल भाग में तीस लाख, दूसरी पृथ्वी में पच्चीस लाख, तीसरी पृथ्वी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीं पृथ्वी में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख और सातवीं में पाँच नरक अर्थात् बिल हैं। नरकवास (कुल ८४ लाख बिल) हैं।

     

    English - In these earth there are thirty lakh, twenty-five lakh, fifteen lakh, ten lakh, three lakh, one lakh less five and only five infernal abodes respectively.  

     

    विशेषार्थ - जैसे पृथ्वी में गड्डे होते हैं, वैसे ही नारकियों के बिल होते हैं। कुछ बिल संख्यात योजन और कुछ असंख्यात योजन लम्बे चौड़े हैं। पहले नरक की पृथ्वी में तेरह पटल हैं और नीचे नीचे प्रत्येक पृथ्वी में दो दो पटल कम होते गये हैं। अर्थात् दूसरी में ग्यारह, तीसरी में नौ, चौथी में सात,पाँचवीं में पाँच, छठी में तीन और सातवीं में एक ही पटल है। इस तरह कुल पृथ्वियों में उनचास पटल हैं, जो नीचे-नीचे हैं।

     

    इन पटलों में इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इस तरह तीन प्रकार के बिल होते हैं। प्रत्येक पटल के बीच में जो बिल है, उसे इन्द्रक बिल कहते हैं। उस इन्द्रक बिल की चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में जो पंक्ति-वार बिल हैं, वे श्रेणीबद्ध कहे जाते हैं। और दिशा-विदिशाओं के अन्तराल में बिना क्रम के जो बिल हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। प्रथम पटल की चारों दिशाओं में उनचास-उनचास और विदिशाओं में अड़तालीसअड़तालीस श्रेणीबद्ध बिल हैं। आगे, नीचे-नीचे प्रत्येक पटल की चारों दिशाओं में और चारों विदिशाओं में एक-एक बिल घटता जाता है। इस तरह प्रत्येक पटल में, आठ-आठ बिल घटते जाते हैं। घटते-घटते सातवें नरक के पटल में, जो कि उनचासवां पटल है, केवल दिशाओं में ही एकएक बिल है। विदिशाओं में बिल नहीं है। अतः वहाँ केवल पाँच ही बिल हैं। सातों नरकों में कुल बिल चौरासी लाख हैं। जिनमें उनचास इन्द्रक बिल और नौ हजार छह सौ चार श्रेणीबद्ध बिल हैं। शेष तिरासी लाख नब्बे हजार तीन सौ सैंतालीस प्रकीर्णक बिल हैं। उनचास इन्द्रक बिलों में से प्रथम नरक का पहला इन्द्रक पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाला है जो अढ़ाईद्वीप के बराबर है, और उसी के ठीक नीचे है। नीचे क्रम से घटते घटते सातवें नरक का इन्द्रक एक लाख योजन विस्तार वाला है। सभी इन्द्रक संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, सभी श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं और प्रकीर्णकों में से कुछ संख्यात योजन विस्तार वाले हैं। और कुछ असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं।


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