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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 3 : सूत्र 3

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    Vidyasagar.Guru

    नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदना

    विक्रियाः ॥३॥

     

     

    अर्थ - नारकी जीवों के सदा अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम, अशुभतर वेदना और अशुभतर विक्रिया होती है।

     

    English - The thought coloration, thought activity, body, suffering, and shape of the body are incessantly more and more inauspicious in succession among the infernal beings in the first infernal earth to the seventh infernal earth.

     

    विशेषार्थ - पहली और दूसरी पृथ्वी के नारकियों के कापोत लेश्या होती है, तीसरी में ऊपर के बिलों में कापोत और नीचे के बिलों में नील लेश्या होती है। चौथी में नील लेश्या ही है। पाँचवीं में ऊपर के बिलों में नील और नीचे के बिलों में कृष्ण लेश्या होती है। छठी में कृष्ण लेश्या ही है और सातवीं में परम कृष्ण है। इस तरह नीचे - नीचे अधिक - अधिक अशुभ लेश्या होती है। उनका स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दों का परिणमन भी वहाँ के क्षेत्र की विशेषता के निमित्त से अति दु:ख का ही कारण होता है। उनका शरीर भी अत्यन्त अशुभ होता है, हुण्डक संस्थान के होने से देखने में बड़ा भयंकर लगता है। पहली पृथ्वी के अन्तिम पटल में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष, तीन हाथ, छह अँगुल होती है। नीचे-नीचे प्रत्येक पृथ्वी में दूनी-दूनी ऊँचाई होती जाती है। इस तरह सातवें नरक में पाँच सौ धनुष ऊँचाई होती है। तथा शीत-ऊष्ण की भयंकर वेदना भी है। पहली से लेकर चौथी पृथ्वी तक सब बिल गर्म ही हैं। पाँचवीं में ऊपर के दो लाख बिल गर्म हैं और नीचे के एक लाख बिल ठण्डे हैं। छठी और सातवीं के बिल भयंकर ठण्डे ही हैं। ये नारकी विक्रिया भी बुरी से बुरी ही करते हैं।


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