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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 5 : सूत्र 8

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    Vidyasagar.Guru

    अजीव कायाः सूत्र में 'काय' पद होने से यह तो ज्ञात हो गया कि उक्त द्रव्य बहु प्रदेशी हैं। किन्तु किसके कितने प्रदेश हैं, यह ज्ञात नहीं हुआ। उसके बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं-

     

    असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजीवानाम् ॥८॥

     

     

    अर्थ - धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और एक जीव द्रव्य, इनमें से प्रत्येक के असंख्यात, असंख्यात प्रदेश होते हैं।

     

    English - There are innumerable space points in the medium of motion, the medium of rest and in each individual soul. One space point is the space occupied by one elementary particle of matter.

     

    विशेषार्थ - जितने आकाश को पुद्गल का एक परमाणु रोकता है, उतने क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य तो निष्क्रिय हैं। और समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। अतः लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में व्याप्त होने से वे दोनों असंख्यात, असंख्यात प्रदेशी हैं। जीव भी उतने ही प्रदेशी है किन्तु उसका स्वभाव संकुचने और फैलने का है। अतः नामकर्म के द्वारा उसे जैसा छोटा या बड़ा शरीर मिलता है, उतने में ही फैलकर रह जाता है। किन्तु जब केवलज्ञानी होकर वह लोकपूरण समुद्धात करता है, तब वह भी धर्म, अधर्म द्रव्य की तरह समस्त लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है। अतः वह भी असंख्यात प्रदेशी है।


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