क्रमशः इन एक-एक द्रव्यों के विषय में और अधिक कहते हैं-
निष्क्रियाणि च ॥७॥
अर्थ - धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य क्रिया रहित हैं, इनमें हलन चलन रूप क्रिया नहीं होती। अतः ये तीनों द्रव्य निष्क्रिय हैं।
English - These three (the medium of motion, the medium of rest and space) are also without activity (movement) since these are spread in the whole universe.
शंका - जैनसिद्धान्त में माना है कि प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय उत्पाद, व्यय हुआ करता है। किन्तु यदि धर्म आदि निष्क्रिय हैं, तो उनमें उत्पाद नहीं हो सकता, क्योंकि कुम्हार मिट्टी को चाक पर रखकर जब घुमाता है, तभी घड़े की उत्पत्ति होती है। अतः बिना क्रिया के उत्पाद नहीं हो सकता। और जब उत्पाद नहीं होगा तो व्यय (विनाश)भी नहीं होगा ?
समाधान - धर्म आदि निष्क्रिय द्रव्यों में क्रियापूर्वक उत्पाद नहीं होता किन्तु दूसरे प्रकार से उत्पाद होता है। उत्पाद दो प्रकार का माना है एक स्वनिमित्तक, दूसरा पर-निमित्तक। जैन-आगम में अगुरुलघु नाम के अनन्त गुण माने गये हैं, जो प्रत्येक द्रव्य में रहते हैं। उन गुणों में छह प्रकार की हानि या वृद्धि सदा होती रहती है। उसके निमित्त से द्रव्यों में स्वभाव से ही सदा उत्पाद-व्यय हुआ करता है। यह स्व-निमित्तक उत्पाद-व्यय है। तथा धर्मादि द्रव्य प्रतिसमय अश्व आदि अनेक जीवों और पुद्गलों के गमन में, ठहरने में और अवकाशदान में निमित्त होते हैं, प्रतिक्षण गति वगैरह में परिवर्तन होता रहता है, अतः उनके निमित्त से धर्मादि द्रव्यों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। यह परनिमित्तक उत्पाद व्यय है।
शंका - धर्मादि द्रव्य स्वयं नहीं चलते तो वे दूसरों को चलाते कैसे हैं ? देखा जाता है कि जल वगैरह जब स्वयं बहते हैं, तभी मछलियों वगैरह को चलने में सहायक होते हैं ?
समाधान - यह आपत्ति उचित नहीं है। जैसे चक्षु रूप के देखने में सहायक है, किन्तु यदि मनुष्य का मन दूसरी ओर लगा हो तो चक्षु रूप को देखने का आग्रह नहीं करती। इसी तरह धर्मादि द्रव्य भी चलने में उदासीन निमित्त हैं, प्रेरक नहीं हैं।