त्याग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- त्याग जीवन का अलंकार है, क्योंकि गृहस्थावस्था में भले ही राग भाव से विभिन्न प्रकार के अलंकार धारण किये जाते हैं लेकिन मुनि आश्रम में त्याग भाव ही अलंकार है।
- त्याग की साक्षात् जीवित मूर्ति के समागम के बिना त्याग के मार्ग में अग्रसर होना सम्भव नहीं है।
- त्याग के द्वारा जो अतिशय पुण्य संचय सम्यक दृष्टि को होता है, वह पुण्य का संचय मोक्षमार्ग में कभी बाधक नहीं बन सकता है।
- स्वार्थ का त्याग परमार्थ की सिद्धि के लिए सोपान का काम करता है।
- जो उपाधि को मिटाने की चेष्टा करता है, वह समाज में मिलने की चेष्टा करता है।
- अगर त्याग में आकुलता है तो वह त्याग नहीं आग है।
- त्याग एक ऐसा सरोवर है जिसके पास जाने के बाद गर्म लू भी ठण्डी बन जाती है।
- अपने पास आने का नाम ही त्याग है।
- दूसरों को जो अपना हाथ रखा है, उसको छोड़ना ही त्याग है।
- वस्तु का त्याग ही त्याग नहीं है, पर उसके साथ राग का भी त्याग करो।
- अपने आप पर अधिकार करने के लिए त्याग की जरूरत है।
- धन का पालन करने वाला धन्य नहीं हो सकता, लेकिन धन का त्याग करने वाला यदि धन के ढेर पर बैठ जाता है तो भी वह धन्य हो जाता है।
- सहयोग करने वाले का चरित्र सभी के चित्त पर सदा के लिए चिपक जाता है।
- मोह एक प्रकार का घाव है, उसे ठीक करने के लिए त्यागरूपी मलहम पट्टी करते रहने चाहिए एवं जिनसे ये घाव बढ़ता है ऐसे कषाय, राग-द्वेष, परिग्रह आदि भावों से बचना चाहिए।
- जिससे कुलाचार एवं श्रावक धर्म नष्ट होता है, ऐसी वस्तुओं का दूर से ही त्याग कर देना चाहिए।
- जिनका अभक्ष्य का त्याग है, उन्हें भक्ष्य पदार्थों का त्याग करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। अभक्ष्य का त्याग वास्तव में त्याग में नहीं आता, वह तो बालकों का त्याग माना जाता है। बड़ों को तो इससे आगे बढ़ना चाहिए। उनके लिए सही त्याग तो भक्ष्य का त्याग है।