वर्णी-संस्था तो आप कहो, यदि वर्णी-परम्परा चले तो सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा। वर्णी का अर्थ क्या होता है जानते हो ? नाममाला में एक जगह आया है, वर्णी का अर्थ यति होता है, मुनि होता है, व्रती होता है।
वर्णी-संस्था और वर्णी-परम्परा ये दो चीजें हैं। मुझे वर्णी-संस्था की उतनी चिन्ता नहीं, जितनी चिन्ता वर्णी-परम्परा की है। त्याग, तपस्या के बिना न आज तक समाज का उद्धार हुआ है, न आगे होगा।
स्वभाव का बोध न होने के फलस्वरूप संसारी प्राणी पर-पदार्थ की शरण पाने को लालायित हो रहा है। अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है, जब उसे अपने स्वभाव का बोध होगा तब वह बहिर्मुखी न होकर, अन्तर्मुखी होना प्रारम्भ कर देगा। भगवान् की मूर्ति सामने है और आप कहते हैं कि-
अन्यथा शरणां नास्ति त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात् कारुण्य-भावेन रक्ष-रक्ष जिनेश्वर॥
(समाधिभक्ति १५)
हे भगवन्! इस लोक में आपके बिना कोई शरण नहीं है। आपकी शरण मिलने से भीतर जो छुपा परमात्म तत्व है, उसका बोध प्राप्त हो जाता है। ध्यान रखो! संसारी प्राणी भटकता-भटकता मनुष्य योनि में आया है। इसे बोध है किन्तु पर का बोध है, इसे बोध है किन्तु सही बोध नहीं है और जिसे अपने-पराये का बोध नहीं है उसका वह बोध, बोध नहीं बोझ है। जिस बोध के माध्यम से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, उस बोध की बात यहाँ पर हो रही है। जिस व्यक्ति ने इस गुरुकुल की स्थापना की थी, उस व्यक्तित्व का मूल्यांकन हम शब्दों में नहीं कर सकते। दुनियाँ में Collage खुल रहे हैं। अनेक प्रकार के स्कूल हैं, सब कुछ है लेकिन! वह सारे के सारे जीवन-निर्वाह के लिए हैं निर्माण के लिए नहीं। आप जीवन निर्वाह चाहते हैं तो, इस बोध से आपको कोई मतलब नहीं और यदि निर्माण चाहते हैं तो इस बोध की इच्छा करिये, जिसके माध्यम से जीवन का निर्माण हो जाता है और अन्त में निर्वाण यानि मोक्ष प्राप्त हो जाता है, संसार और संस्थाओं से छुटकारा मिल जाता है।
भारत में देश-विदेशों में ऐसी कोई संस्था या School-Collage नहीं है, जिनमें आत्मा की क्षण भर चर्चा होती हो। ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जिससे वे किसी को उसके स्थायी अस्तित्व का परिचय करा सके । किन्तु यहाँ पर इन गुरुकुलों में वह विद्या...वह कला...वह ज्ञान...वह बोध पाया जा सकता है जिसके द्वारा पर की शक्ति (शरण) छूट जाती है। सुबह-सुबह वाचना चल रही थी। पंडितजी (पंडित फूलचन्द्रजी, वाराणसी) ने एक बहुत अच्छी बात कही थी, उसको दुहराने के लिए कुछ लोगों ने कहा कि पण्डितजी एक बार और बोलो, जैसे काव्य (कविता) पाठ होते हैं तो उसमें 'वंस मोर" (Once more) कह देते हैं आप लोग, उसके अनुसार क्योंकि उसमें बहुत अच्छी बात थी, कि सब लोग धर्म तो चाहते हैं। उस समय मैंने कहा कि पण्डित जी ऐसे प्रवचन होना चाहिए कि जो परिग्रह को बचा रहे हैं, वे परिग्रह छोड़ दें।
परिग्रह ने आपको अपने वश में कर रखा है, यह मान्यता गलत है आप लोगों की, किन्तु परिग्रह के अधीन हो गये हैं आप लोग,। ध्यान रखिये, परिग्रह इस शब्द की निष्पत्ति करते हुए पूज्य महाराज जी (आचार्य ज्ञानसागर जी) ने एक बार कहा था –
परितः समन्तात् आत्मानं गृह्णाति बध्नाति यत् सः परिग्रहः।
आत्मा को जो चारों ओर से बाँध लेता है, ग्रहण कर लेता है उसका नाम है परिग्रह। बिल्कुल ठीक है, आप यहाँ पर बैठे हैं, ट्रेजरी में आपका धन है, फोन आ जाये तो आपका कलेजा काँप जाता है कि वहाँ तक जाते-जाते रहे या नहीं रहे क्या पता? वैसे आपको पसीना नहीं आता लेकिन, आपको पसीना आ जाता है तथा उसके साथ-साथ सीना भी धड़कने लगता है। ऐसा क्यों होता है भैय्या? इसी का नाम है मोह आपने अपने को उसके वश में कर दिया है। यह परिग्रह महाभूत है। पण्डितजी (डॉ. पन्नालालजी साहित्याचार्य, सागर) ने अभी-अभी कहा था कि महाराज कभी Appeal नहीं करते लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से कर दी। हमने किसी को कुछ नहीं कहा लेकिन त्याग के बारे में तो अवश्य Appeal करेंगे। यह हमारा कार्य है, आप त्याग नहीं करेंगे तो वीतरागता की प्राप्ति कैसे होगी ? हमें किसी संस्था को चलाने की चिन्ता नहीं है, किन्तु आत्मा का जो संस्थान है उसकी खबर आपको होनी चाहिए। बस, हमें फिर कोई चिन्ता नहीं।
आप लोगों को देखकर बस एक ही भाव जागृत होता है; कि कोई ऐसा माध्यम, साधन उपलब्ध हो जाये इन लोगों को, कि ये आत्मा की बातें करने लगें। चार प्रकार के ध्यान बताये हैं - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय। किसी सज्जन ने मुझसे पूछा-‘महाराज! धर्मध्यान तो हमें भी होता है और आपको भी होता है। आप धर्मध्यान के माध्यम से जहाँ पर भी जायेंगे तो उसी के माध्यम से हम भी वहाँ पहुँच जायेंगे। मैंने कहा ध्यान रखो! नहीं आ सकते और मैं जो कर्म-निर्जरा करता हूँ आप नहीं कर सकते। धर्मध्यानों में एक संस्थानविचय नामक ध्यान भी तो है। हाँ.हाँ है तो पर थोड़ा-सा अन्तर है उसमें। आपको संस्थानविचय तो नहीं पर संस्थाविचय अवश्य हो सकता है। संस्था अपने आप में परिग्रह है और संस्थानविचय ध्यान अपने आप में परिग्रह नहीं है ये ध्यान रखना। संस्थानविचय ध्यान षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों के माध्यम से तीन लोक में जीव कहाँ-कहाँ भटक रहे हैं वह सारा का सारा चित्र उस समय मन में लाता है। उस ज्ञान के माध्यम से वह ध्याता नरक में भी जाता है, स्वर्ग में भी जाता है, सर्वार्थसिद्धि को भी लाँघ जाता है, सिद्धालय में भी जाता है। निगोद में भी जाता है। तीनों लोकों की यात्रा वह संस्थान-विचय नामक ध्यान के माध्यम से कर लेता है। वह इतनी लम्बी यात्रा करता हुआ भी पूज्य माना जाता है।
संस्थाविचय ध्यान जब तक मुनि नहीं बनोगे तब तक तीन काल में भी सम्भव नहीं है। मुझे और किसी क्षेत्र की चिन्ता नहीं है लेकिन आप लोगों को जो धर्मध्यान होगा वह त्याग करने से, दान करने से ही बनेगा। वीरसेन स्वामी ने धवला में कहा है -
"दाणां पूया सीलमुववासो सावयाणां चउविही धम्मो।"
यदि धर्म हैं तो चार ही हैं। जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, शील का पालन करना, उपवास करना, सत्-पात्रों को दान देना ये चार धर्म श्रावकों के हैं। एक प्रश्न रखना चाहता हूँ आपके सामने कि भगवान् के अभिषेक करने से क्या लाभ होता है ? ध्यान रखो, तीन अष्टाहिका में इन्द्र अन्यत्र कहीं नहीं जाता लेकिन नन्दीश्वर द्वीप में जाकर पूजन और अभिषेक करता है। मेरे मन में ये बात आ जाती है कि इन्द्र को समवसरण में जाना चाहिए जहाँ पर भावनिक्षेप से अहन्त परमेष्ठी विद्यमान हैं। उनके चरणों में जा करके दिव्यध्वनि सुनना चाहिए। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर क्या करेंगे? क्योंकि वहाँ तो केवल प्रतिमा मिलेगी। लेकिन इसमें एक रहस्य है। ध्यान रखो, मैं सोचता हूँकि जो लाभ उस समय उसे समवसरण में प्राप्त नहीं हो सकता वह नन्दीश्वर द्वीप में प्राप्त हो जाता है, इसलिए वह सपरिवार वहाँ जाता है। साक्षात् भगवान् को छू करके जो आनन्द आता है, वह समवसरण में सम्भव नहीं, उस भामण्डल के अन्दर किसी की गति सम्भव नहीं। इसलिए वह सोचता है कि वहीं पर जाकर भगवान् का पूजन प्रक्षालन करूंगा।
प्राण-प्रतिष्ठा द्वारा भगवान् के सम्पूर्ण गुणों को आरोपित करके सूर्यमन्त्र पढ़कर उस पाषाण की प्रतिमा को पूज्य बना दिया जाता है। बुद्धि के द्वारा, भगवान् की साक्षात् कल्पना होती है। मैं पूछना चाहता हूँ-शास्त्र पास में है फिर भी पवित्र मन से आप छूते हैं तो अलग प्रकार की अनुभूति, संवेदना होती है। इन संवेदनाओं के लिए एकमात्र वही क्षण है, वही एक बात आचार्यों ने हमें बता दी कि जिनवाणी की उपासना करने से हमें सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि होती है। मुनियों के पास जाने से; उनकी चर्या देखने से, गुरुओं के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, चारित्र की उपलब्धि होती है। जिनेन्द्र-देव की पूजा अभिषेक आदि से सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है।
वीरसेन स्वामी ने कहा है कि इन चार धर्मों को आप अपनाते चले जाओ। नियम से सब काम होता चला जायेगा। मुझे आप लोगों के निर्वाह के बारे में चिन्ता नहीं, निर्माण के बारे में चिन्ता है। आपका निर्माण धन के द्वारा नहीं होने वाला है। धन के त्याग में ही आपका निर्माण होने वाला है और आप मानते हैं कि हमारे जीवन का उद्धार धन के राग से होगा, ये गलत धारणा है। आप लोगों का जीवन धन के माध्यम से नहीं चल रहा है, बल्कि आपने जो पहले पुण्य किया था उसी के माध्यम से चल रहा है। आयु कर्म जब तक रहेगा तब तक आप रहेंगे। आयु कर्म के निषेक जब क्षीण होंगे तब ब्रह्मा भी आकर आपको मरने से नहीं बचा सकते। इस गति से दूसरी गति में जाने से कोई नहीं रोक सकता। चाहे प्रत्यूष बेला हो या संध्या बेला हो, रात के चाहे कितने भी बजे हों, खाते-पीते, उठते-बैठते उसको रवाना होना ही पड़ेगा, यह नियम है, सिद्धान्त है। मरकर मनुष्यआयु में उत्पन्न होना यह अनिवार्य नहीं है। यदि आपकी यात्रा दो हजार सागर में पंचम गति की ओर नहीं होती है, तो हमें इस बात की चिन्ता होती है कि देखो, कितना प्रयास करके, पुरुषार्थ करके निगोद की यात्रा को छोड़कर इस ओर आया है, लेकिन वह कौन-सा दुर्भाग्य होगा कि मनुष्य योनि को प्राप्त कर पुन: निगोद की ओर जाना होगा। सोचिए, विचार कीजिये, यह सारी की सारी बातें लिखी हुई हैं शास्त्रों में, जिन्हें देखने-समझने की आज बड़ी आवश्यकता है।
महान् सिद्धान्त-ग्रंथ धवला-जयधवलादिक में लिखा है कि कम से कम इन चार धर्मों (दान, पूजा, शील, उपवास) का अनुपालन करो। पण्डितजी साहब (सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री, वाराणसी) ने अभी-अभी जो कहा था कि आज के लोग परिग्रह को रखकर के, बचाकर के धर्म करना चाहते हैं, किन्तु यह सब गलत है। धर्म तो विषय-कषाय राग-द्वेष परिग्रहादिक बाह्य वस्तुओं से दूर हटने पर ही होता है अन्यथा धर्म नहीं किन्तु धर्म का कथन अवश्य हो सकता है।
दो बातें और कहना चाहूँगा मैं कि वणजी की परम्परा और वर्णीजी की संस्थाओं की परम्परा। आप लोग दोनों को एक मान रहे हैं और मैं दो मान रहा हूँ। वर्णीजी की संस्था चले यह तो आप लोग चाहेंगे लेकिन मैं तो यही चाहूँगा कि संस्था तो ठीक है, यदि वर्णी परम्परा चले तो सब ठीक-ठाक हो जायेगा। वर्णी का अर्थ क्या होता है मालूम है आप लोगों को? कोई सेठ साहूकार नहीं, वर्णी का अर्थ पण्डित भी नहीं होता है। जब मैं (ब्रह्मचारी अवस्था में) नाममाला पढ़ता था, उस समय मुनियों के नाम में वर्णी शब्द आया था।. तो वर्णी का अर्थ साधु होता है, अनगार होता है। वर्णीजी गृहस्थ नहीं थे, वे पिच्छीधारक क्षुल्लक जी थे। यह बात अलग थी कि उनकी काया की क्षमता अधिक न होने से मुनि नहीं बन पाये किन्तु मुनि बनने की उनकी तीव्र भावना अवश्य थी। उनका त्याग था, उनकी तपस्या थी, उनका समर्पण था, समाज के लिए समर्पण नहीं था किन्तु वीतरागी-मार्ग के लिए समर्पण था। जैसा कि अभी पूर्ववता (पण्डित कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी) ने कहा कि उन्हें सारा का सारा समयसार कण्ठस्थ था लेकिन मैं समझता हूँ कण्ठस्थ क्या, हृदयस्थ था, क्योंकि उन्होंने सोच लिया था कि जीवन में यदि कोई मौलिक पदार्थ है तो वह रत्नत्रय है और रत्नत्रय मुझे धारण करना है भले ही वह अभी मिले या न मिले किन्तु प्राप्त तो उसी को करना है। उसी के माध्यम से ही जीवन उन्नतिशील बनेगा और परम निर्वाण यानि मुक्ति का लाभ होगा।.तो मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि यदि आप वर्णी जी की परम्परा, उनका नाम कायम रखना चाहते हैं तो दूसरे वर्णी की आवश्यकता है। है कोई यहाँ पर इस सभा में (विद्वत्-मण्डली की ओर संकेत करते हुए) दमदार व्यक्ति जो वर्णी जैसा बनने के लिए तैयार हो। वणजी तो चले गये। कब तक उनकी पुण्यतिथियाँ मनाओगे और मनाने मात्र से कोई प्रभाव पड़ने वाला है क्या? आप लोगों का जीवन अब अल्प बचा है, कम से कम इस अल्प समय में तो वर्णी जैसे जीवन की एक झलक आनी चाहिए। आप लोगों की यह ज्ञानाराधना तभी सार्थक होगी जब आपके कदम चारित्र की ओर बढ़ जायेंगे। वर्णी संस्थाओं का नहीं, वर्णी का निर्माण होना चाहिए क्योंकि जो सैकड़ों संस्थायें काम नहीं कर सकती हैं वह एक त्यागी, व्रती, संयमी वर्णी कर सकता है और एक वर्णी के तैयार होने से हजारों वणां तैयार हो जायेंगे। वर्णी जैसे साधक व्यक्तियों के तैयार होने से उनकी संस्थायें अपने आप चलने लगेंगी।
आप जड़ (सम्पत्ति) के माध्यम से वणी जी की संस्थाओं का निर्वाह करना चाहते हो, लेकिन यह ध्यान रखना, मात्र धन-पैसा के द्वारा ही यह कार्य हो सके, यह तीन काल में सम्भव नहीं। जैसा अभी एक वक्ता (पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य, सागर) ने कहा- वहाँ (दक्षिण में) बहुत सारे गुरुकुल चल रहे हैं किसके माध्यम से? श्रीमानों के द्वारा, धीमानों के द्वारा, नहीं, यह ध्यान रखना कुम्भोज बाहुबली के समन्तभद्र महाराज के पास गुरुकुल में जो कोई भी विद्यार्थी हैं वे सब बाल ब्रह्मचारी हैं। वे ही गुरुकुल चला रहे हैं, उनके पास त्याग-तपस्या है, संसार, शरीर-भोगों से उदासीनता हैं, अर्थ का प्रलोभन नहीं है, तब कहीं जाकर के यह काम हो रहा है।
धन-सम्पति और वेतन के द्वारा हम कभी जिनवाणी का जीणों द्वार नहीं कर सकते। जब तक वेतन मिलता रहेगा तब तक काम चलता रहेगा । वेतन मिलना बन्द तो काम बन्द। वेतन के द्वारा चेतन की उपलब्धि तीन काल में नहीं हो सकती। वेतन आपको खर्च करना होगा, उसके माध्यम से आपका दानधर्म चालू हो जायेगा और जो संस्था के लिए समर्पित है, धर्म-प्रभावना के लिए समर्पित है, उसका भी बाहरी निर्वाह (गुजारा) हो जायेगा, क्योंकि निमित्त नैमितिक सम्बन्ध से सारे के सारे कार्य चल सकते हैं। विद्वान् लोग वृद्ध हो चुके हैं, जिन्होंने जीवन पर्यन्त जिनवाणी की सेवा की है, अब अन्तिम Stage (पड़ाव) पर पहुँच चुके हैं। बेला अन्तिम है, समय निकट है, अब यहाँ से (इस पर्याय से) कभी भी Transfer (तबादला) हो सकता है। हमें, आपको इन अन्तिम क्षणों में सचेत रहना परमावश्यक है। क्योंकि 'अन्त मति सो गति' होता है। अत: समय रहते हुए हम जाग जायें और ज्ञान का जो सही-सही फल अज्ञान की निवृत्ति, कषायों की हानि, आत्म-तत्व और रत्नत्रय की प्राप्ति एवं राग-द्वेष को कम करके चारित्र को अंगीकार करने रूप है, उसे प्राप्त करें। इसी में आपकी भलाई है।
निर्वाह से परे जीवन का निर्माण होना आवश्यक है। तदुपरान्त जीवन में संसार से छुटकारा पाकर आत्मा निर्वाण को (मोक्ष) प्राप्त करता है। यही परम सुख रूप मोक्ष-धाम है। इस मोक्ष धाम की प्राप्ति के लिए आज से ही सभी को कटिबद्ध हो जाना चाहिए। एक बार तो उस आत्मिक भाव का स्पर्श करो। बड़े-बड़े महान् आचार्यों ने कहा है कि जीवन में वह घड़ी मौलिक मानी जायेगी, वह समय बहुमूल्य माना जायेगा जिस समय "स्व समय संस्पर्श" आत्मानुशासन होगा। मोह का संस्पर्श तो अनन्तकाल से संसारी प्राणी करता आया है। किन्तु जाते-जाते अन्त में ध्यान रखना बन्धुओ त्याग, तपस्या और नि:स्वार्थ सेवा के बिना आत्मोद्धार और देश का उद्धार तीन काल में नहीं हो सकता। इस प्रकार; त्याग, तपस्या को अपनाकर वणी-संस्था और वण-परम्परा का उद्धार करना है। इन धार्मिक आयोजनों के निमित्त से जीवन को उज्ज्वल एवं सफलीभूत बनाने का प्रयास करें।