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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • जीवन

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    जीवन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. हमारे जीवन के उत्थान व पतन का आधार हमारा अच्छा बुरा आचरण है। हम चाहें तो अपने जीवन को उज्ज्वल बना सकते हैं और चाहें तो अपने जीवन को कर्म कालिमा से कलंकित भी कर सकते हैं। दोनों स्थितियाँ हमारे ऊपर निर्भर हैं।
    2. आप लोग बच्चों का बर्थ डे और माता-पिता का मेरिज डे मनाते हैं। साठ साल तक तो फिर भी ठीक अस्सी साल वाले वृद्ध भी मेरिज डे मना रहे हैं। जबकि जीवन की घड़ी चलो चलो घड़ी सामने खड़ी है यह पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है।
    3. जन्म उत्सव का मतलब वर्ष वर्धन इसका अर्थ उम्र में एक वर्ष बढ़ गया ऐसा नहीं किन्तु उम्र की हानि में एक वर्ष और बढ़ गया अर्थात् एक वर्ष आयु कम हो गई।
    4. संसारी प्राणी हमेशा बाह्य वैभव को मूल्य देता है। उसको मूल्यवान समझता है।उसी की प्राप्ति में अपना अमूल्य जीवन व्यतीत करता रहता है। आत्म वैभव की ओर देखने का प्रयास करो।
    5. उदित होता हुआ सूर्य मोक्षमार्ग का एवं अस्त होता हुआ सूर्य संसार मार्ग का दिग्दर्शक होता है।
    6. सनसेट अन्धेरे की ओर ले जाता है जबकि सनराइज उजाले की ओर ले जाता है हम अपने जीवन को अन्धेरे की ओर नहीं किन्तु उजाले की ओर ले जाने का प्रयास करें।
    7. अहिंसा की ओर कदम बढ़ाने में और विषय भोगों से पीठ फेर लेने में ही जीवन की सार्थकता है।
    8. मानव पर्याय पाने के बाद यदि हम जीवन के निर्वाण की बात नहीं सोच रहे हैं तो कहाँ सोचेंगे सोच विचार बिना यदि कार्य करते हैं तो अफसोस ही प्राप्त होता है।
    9. सत्य व अचौर्य जीवन के उन्नति की खुराक है।
    10. सबसे महान् कलाकार वह है जो जीवन को ही कला का विषय बनाकर जीवन के सभी क्षणों को आनंदमय बना सके।
    11. अपना जीवन ऐसा हो कि सबको मधुरता दे स्वयं भी मधुर हो। स्व पर को माधुर्यमय कर दो।
    12. जीवन में मधुरता लाने के लिए क्षार का उचित अनुपात रखना चाहिए आटे में नमक के बराबर।
    13. खारा जीवन खीरमय नहीं हो सकता किन्तु खारे की एक डली खीर में मधुरता घोल देती है। यही अनुपात तो धर्म है।
    14. क्षारयुक्त जीवन को उचित अनुपात से मधुर बना देना ही धर्म है।
    15. भविष्य की उज्ज्वलता के लिए दूरदर्शन की नहीं, दूर दृष्टि की आवश्यकता है।
    16. मनुष्य जीवन की सफलता इसी में है कि हमें पापों से बचकर पुण्य कार्य करना हैं।
    17. जहाँ मायादेवी की अधिकता होगी वहाँ शांतिदेवी ठहर नहीं सकती। जीवन में शांति पाने के लिए मायादेवी और शांतिदेवी का धर्म के काँटे पर संतुलन बनाना अनिवार्य है।
    18. समय को सर्वाधिक मूल्यवान मानते हैं किन्तु मानव जीवन काल का मूल्य नहीं कर रहे।
    19. मानव जीवन पाकर भी आत्मतत्व से अपरिचित है क्योंकि अन्य का स्वामी बनने की लालसा है।
    20. जीवन में दूरदर्शन से सम्बन्ध है किन्तु दूरदृष्टि से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है।
    21. जल्दी जल्दी प्रगति करने वाला व्यक्ति सो नहीं सकता। आँधी तूफान में भी वह जागृत रहता है। और जो जागृत रहता है वह दूर की किरणों के माध्यम से भी अपने जीवन को सुंदर बना सकता है।
    22. प्रगतिशील और सफल जीवन जीने के लिए हमें धैर्यवान साहसी और संतुलित होना चाहिए।
    23. पथ में आने वाली कठिनाइयों को स्वाभाविक ही समझना चाहिए और अपने विवेक एवं स्वभाव को इसके लिए प्रशिक्षित करना चाहिए कि गुत्थियों को कैसे सुलझाया जाता है और अवरोधों को कैसे हराया जाता है।
    24. जीवन में ऊँचे नीचे वातावरण घटनाक्रम एवं अनुकूल प्रतिकूल वातावरण में भी अपनी दूरदर्शिता को स्थिर बनाए रखना चाहिए।
    25. बचपन, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था आती है चली जाती है, किन्तु बुढ़ापा यदि आता है तो चला नहीं जाता, साथ ले जाता है। बुढ़ापा यात्रा पूर्ण करा देता है।
    26. जब तक शरीर स्वस्थ है इन्द्रियाँ सशक्त हैं मन प्रबुद्ध है तथा बुद्धि काम देती है तभी तक तुम इन्हें अपने लक्ष्य की ओर लगाकर जीवन को सफल करने का प्रयास कर सकते हो। इन सबके असमर्थ होने पर कुछ भी नहीं कर सकोगे। फिर क्यों देर कर रहे हो?
    27. देखो जीवन क्षणभंगुर है अभी है क्षणभर बाद रहे या नहीं, इसका पता नहीं। यहाँ की सभी चीजें ऐसी ही है फिर किस मोह में पड़कर इस छोटे से जीवन के लिए इतनी गहरी नींव खोद रहे हो?
    28. मरण करके मनुष्य आयु में उत्पन्न होना फिर से यह अनिवार्य नहीं है।
    29. यदि आपकी यात्रा दो हजार सागर में त्रस पर्याय का काल पंचमगति की ओर नहीं होती है तो हमें इस बात की चिंता होती है कि देखो कितना प्रयास करें निगोद की यात्रा को छोड़कर इस ओर आया है लेकिन वह कौन सा दुर्भाग्य होगा कि मनुष्य योनि को प्राप्त कर पुनः निगोद की ओर जाना हो गया। सोचिये विचार कीजिये।
    30. यह स्वर्ण जैसा अवसर है यह जीवन बार-बार मिलता नहीं इसकी सुरक्षा इसका विकास इसकी उन्नति को ध्यान में रखकर इसका मूल्यांकन करना चाहिए जो व्यक्ति इसको मूल्यवान समझता है वह साधना पथ पर कितने उपसर्ग और परीषहों को सहर्ष अपनाता है।
    31. इन उपसर्गों और परीषहों को सहर्ष अपनाने वाले जो कोई भी हैं वे मुनि हैं। प्रतिकार करने वाले तो मिलेंगे पर हमें तो उसी रास्ते से गुजरना है।
    32. महावीर भगवान् जिस रास्ते से गये वह उपसर्ग और परीषहों से होकर गुजरता है। वह रास्ता काल्पनिक रास्ता हो सकता है।
    33. मोक्षमार्ग तो वही है जो परीषहजय और उपसर्गों से प्राप्त होता है और जो उसे धारण करने के लिए तैयार है उन्हें वह अवश्य मिलता है।
    34. उत्साह के साथ खुशी के साथ तन, मन, धन सब कुछ लगाकर वह मुक्ति का मार्ग अपनाना चाहिए।
    35. एक बार भी उस रास्ते पर चलना प्रारम्भ कर लें तो पुनः लौटने की आवश्यकता नहीं होगी। अनंतकाल तक वहाँ आपको विराम मिलेगा कोई दिक्कत नहीं है वहाँ।
    36. मनुष्य जीवन आवश्यक कार्य करने के लिए मिला है अनावश्यक कार्यों में खोने के लिए नहीं।
    37. परमात्मा की पहचान के साथ सच्ची जिन्दगी की शुरूआत होती है।
    38. जिस प्रकार आकाश में ध्वनि विलीन हो जाती है वैसे ही इस धरती से सबके नाम चरणचिह्न और पर्यायें विलीन हो गयीं।
    39. भोगों में रस नहीं आता किन्तु भोग भोगने से जीवन का रस यानि जीवन की शक्ति निकल जाती है।
    40. जो व्यक्ति शरीर के प्रति या इस जीवन के प्रति ज्यादा मुग्ध/ मोहित रहता है उसके लिए वीयन्तराय कर्म का क्षयोपशम जो मिला है वह सब समाप्त होने लग जाता है।
    41. ऐश आराम की जिन्दगी विकास के लिए कारण नहीं बल्कि विनाश के लिए कारण है या यूँ कहो ज्ञान का विकास रोकने में कारण है।
    42. जिसका शरीर सर्दी में कंप जाता है किन्तु प्राणियों के कष्टों को देख करके नहीं कांपता तो उसे लौकिक दृष्टि से भले ही ज्ञानी कहो किन्तु परमार्थरूप से वह सच्चा ज्ञानी नहीं है इस जीवन में।
    43. वे आँखें भी हमारे लिए बहुत प्रिय मानी जायेंगी जिसमें करुणा, दया, अनुकंपा के दर्शन पाये जाते हैं, यदि यह नहीं है तो यह मानव जीवन बिल्कुल नीरस प्रतीत होगा।
    44. यदि हम लोग प्रयोजनभूत तत्व को देख लें तो बहुत बड़े बड़े लाभ कर सकते हैं और हम उस प्रयोजन को गौण कर लें तो बहुत बड़े बड़े अनर्थ भी हो सकते हैं। यह मौलिक जीवन भी धूल में मिल सकता है।
    45. जहाँ पर जीवन का सवाल है, वहाँ पर जड़ वस्तुओं का महत्व नहीं होता।
    46. सात्विक जीवन जीने वालों को दुख और आकुलता नहीं होती।
    47. स्नत्रय हमारी सहज शोभा है और क्षमादि धर्म हमारे अलंकार हैं, इसी के माध्यम से हमारा जीवत्व निखरेगा।
    48. अनंतकाल से जो जीवन संसार में बिखरा पड़ा है उस बिखराव के साथ जीना वास्तविक जीना नहीं है।
    49. अपने भावों की सम्भाल करते हुए जीना ही जीवन की सार्थकता है।
    50. जिस प्रकार खाया हुआ अन्न देह में रग रग में मिलकर रुधिर बन जाता है उसी प्रकार हमारे जीवन में सरलता या सुलझापन हमारा अभिन्न अंग बन जाये तो जीवन धन्य एवं सार्थक हो जावेगा।
    51. जीवन की यात्रा नहीं मानते हो। जहाँ जाओ वहीं यात्रा चल रही है।
    52. आप लोग पैसे खर्च करने में ही यात्रा मानते हो कहीं जेब कट गई तो यात्रा कैसे होगी?
    53. ऐसी यात्रा करो जो कभी रुके भी नहीं और लुटे भी नहीं रुकना आत्मा का स्वभाव नहीं ऊर्ध्वगमन स्वभाव है।
    54. नश्वर जीवन है योगदान के लिए समय निकालें।
    55. जो व्यक्ति प्रयोजन के प्रति आलस्य रखता है वह विकसित नहीं है।
    56. चाहे समय चढ़ाई का हो या फिर सुखद उतार का हमें अपने जीवन का काल चक्र स्वयं तैयार करना है। ऐसी जीवनरूपी घड़ी बाजार में नहीं मिलती जो सदैव चलती रहे।
    57. हमारे जीवन में दो काल होते हैं। संभलाना और संभलना यानी बचपन में हमें संभाला जाता है युवा अवस्था में हम उन्हें संभालते हैं, जिन्होंने हमें संभाला था।
    58. जीव के उतार चढ़ाव में बुद्धि और विवेक चालक के समान होते हैं इसका सही उपयोग करने से जीवन सफल होता है और न सिर्फ अपने लिए बल्कि इससे दूसरे भी लाभान्वित होते हैं।
    59. मनुष्य जीवन मुफ्त के लिए नहीं पुरुषार्थ और परोपकार के लिए बना है। हर क्षण का उपयोग राष्ट्र हित के लिए करें।
    60. आप अपने जीवन में ऐसे फलदार वृक्ष बनो, जिसमें गुणवान्, बुद्धिमान्, संस्कार, प्रतिभा, परोपकार, जीव दया, करुणा जैसे फल लगें। काम, क्रोध, मद, मोह, माया और लोभ जैसे फल न लगे।
    61. फलदार, छायादार पेड़ की तरह आप समाज और परिवार का पोषण करें और पथिक को छाया भी दें।
    62. सैकड़ों पक्षी आश्रय पायें और जीवन पूरा होने के बाद भी लकड़ी के रूप में वर्षों समाज के काम और नाम आओ।
    63. अपनी इस पर्याय का उपयोग करना चाहिए। समय का सदुपयोग करना चाहिए। अपने जीवन को अध्यात्ममय बनाना चाहिए समय यदि मिला है तो ये ही करना चाहिए।

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