वे आँखें किस काम की जिनमें ज्ञान होते हुए, देखते हुए भी संवेदना की दो... तीन बूंदें भी नहीं आती। वे आँखें पत्थर की हैं, लोहे की हैं, हमारे किसी काम की नहीं हैं।
धर्म का अर्थ यही है कि दीन दुखी जीवों को देखकर आँखों में करुणा का जल छलके अन्यथा नारियल में भी छिद्र हुआ करते हैं। राम-रहीम और महावीर के समय में जिस भारत भूमि पर दया बरसती थी। सभी जीवों का अभय था। उसी भारत भूमि पर आज अहिंसा खोजे-खोजे नहीं मिलती।
ऐशो-आराम की जिन्दगी विकास के लिए नहीं बल्कि विनाश के लिए कारण है। या यूँ कहो ज्ञान का विकास रोकने में कारण है। जैन दर्शन कहता है कि उतना उत्पादन करो जितना तुम्हें आवश्यक है। बल्कि! उससे कम ही करो जिससे कुछ समय बचेगा, उसमें परोपकार की बुद्धि जाग्रत होगी।
सर्दी का समय है। रात की बात, लगभग १२ बज गए हैं। सब लोग अपने-अपने घरों में अपनी व्यवस्था के अनुरूप सर्दी से बचने के प्रयत्न में हैं। खिड़कियाँ और दरवाजे सब बंद हैं, ऊपर से भी हवा नहीं आ रही है सब कुछ प्रबंध हो चुका है। पलंग पर विशेष प्रकार की गर्म दरी बिछी है, उसके ऊपर मखमल की गादी है, ओढ़ने के लिए रजाई भी है। एक-एक क्षण ऐश-आराम के साथ बीत रहा है। इसी बीच ऐसे शब्द, ऐसी आवाज सुनाई पड़ी जिसमें से अभाव की ध्वनि निकल रही थी, दुख दर्द सुनने में आ रहा था। इस प्रकार दुख भरी आवाज सुनते ही चैन नहीं, इधर-उधर उठकर देखते हैं तो, सर्दी भीतर जाने, घुसने का प्रयास कर रही है, वह सोचता है उठूं कि नहीं वह फिर सो जाता है। कुछ ही क्षण बीते होंगे कि आवाज पुन: कानों में आ जाती है, कानों में आने के उपरान्त कान तो बन्द किए नहीं जा सकते जितना जो कुछ होना था, वह हो चुका फिर भी वह आवाज बार-बार आ रही है, उठने की हिम्मत नहीं है, सर्दी बढ़ती जा रही है, पर देखना तो आवश्यक है। घर के आजू-बाजू में देखते हैं तो आवाज सुनने में नहीं आती, थोड़ी देर बाद तीनचार कदम आगे बढ़कर देखते हैं, तो आवाज और तेजी से आने लगती है। तब वह सोचता है कि आवाज तो यहीं से आ रही है, देखने के उपरान्त वहाँ पर कुत्ते के तीन-चार पिल्ले सर्दी के मारे ऐसे सिकुड़ गए थे.जैसे रबड़ सिकुड़ता है। उन्हें देखकर के रहा नहीं गया और वे अपने हाथों में उन कुत्ते के बच्चों को उठा लेते हैं, जिस गादी पर वे शयन कर रहे थे उस गादी पर लिटा देते हैं और धीरे - धीरे अपने हाथों से उन्हें सहलाते हैं, उनके सहलाने से वे कुत्ते के बच्चे सुख शांति का अनुभव करने लगे, वेदना का अभाव सा होने लगा। सारा का सारा जो शरीर ठंडा पड़ गया था, अब वह उन हाथों के सहलाने से गर्मी का अनुभव करने लगा। उन बच्चों को ऐसा लगा जैसे कोई माँ उन्हें सहला रही हो।
लेकिन! सहलाते-सहलाते उनकी आँखें डबडबाने लगी, आँसू आने लगे। रहा नहीं गया सोचने लगे कि इन बच्चों के ऊपर मैं क्या उपकार कर सकता हूँ? इनका जीवन परतंत्र है। प्रकृति का प्रकोप है, और उसका कोई प्रतिकार नहीं कर सकते, ऐसा जीवन ये प्राणी जी रहे हैं। हमारे जीवन में एक सैकेण्ड के लिए भी प्रतिकूल अवस्था आ जाए तो हम क्या करेंगे? पूरी शक्ति लगाकर उसका प्रतिकार करेंगे। सहा नहीं जाता, वे सोचने लगे इस संसार में ऐसे कई प्राणी होंगे जो यातनापूर्वक जीते हैं, मनुष्य होकर भी यातना सहन करते।
उन्होंने उसी समय से संकल्प ले लिया, अब मैं ऐश आराम की जिन्दगी नहीं जिऊंगा। ऐश आराम की जिन्दगी विकास के लिए कारण नहीं बल्कि विनाश के लिए कारण है या यूँ कहो ज्ञान का विकास रोकने में कारण है। मैं ज्ञानी बनना चाहता हूँ। मैं आत्म तत्व की खोज करना चाहता हूँ। सबको सुखी बनाना चाहता हूँ। और मेरे जो उद्देश्य हैं उन्हें तभी पूर्ण कर सकता हूँ जब मैं ऐश आराम की जिन्दगी जीना छोड़ दूँगा। उन कुत्ते के बच्चों को उन्होंने अपने जीवन निर्माण का निमित बना लिया था। विकास के लिए कोई न कोई निमित्त आवश्यक होता है। यह कथा किसकी है ? जब मैं पहली कक्षा में था उस समय एक पाठ पड़ा था, गाँधी जी के जीवन में गादी पर सुलाने वाले कुत्ते के बच्चों को सहलाने वाले वे गाँधी जी ही थे। इस घटना से वे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने नियम ले लिया कि इस प्रकार का जीवन मेरे लिए हितकारी सिद्ध नहीं होगा। जिस प्रकार मैं दुखित हूँ उसी प्रकार दूसरे जीव भी दुखित हैं। मैं अकेला ही सुखी बनूँ यह बात संभव नहीं ऐश-आराम के लिए बहुत कुछ सामग्री हमें मिल सकती है, जिसके द्वारा हमारे विषय-भोगों की कुछ क्षण के लिए पूर्ति हो सकती है। किन्तु मैं अकेला मात्र सुखी बनना नहीं चाहता मेरे साथ जितने और प्राणी हैं सभी को जिलाना है और आनंद के साथ जिलाना है। जो कुछ मेरे लिए है, वह सबके लिए होना चाहिए, बस! दूसरों के सुख में ही मेरा सुख निर्धारित है।
जीवन में किस प्रकार सुख-शान्ति हम ला सकते हैं ? इस प्रश्न को समाधित करने की धुन लग गई इसके लिए उन्होंने सोचा कि जो-जो आवश्यक है उन आवश्यकताओं में कमी करना है। सर्वप्रथम मुझे अपने पास एकत्रित भोग्य पदार्थों की सीमा करनी है।
एक दिन की बात, वे घूमने जा रहे थे। तालाब के किनारे उन्होंने देखा एक बुढ़िया अपनी धोती धो रही थी। बस! देखते ही उनकी आँखों में पानी आ गया। कितने हैं आपके पास कपड़े? एडवाँस में कितने हैं ? आप कितने कपड़े पहन कर आए हो ? महाराज यह भी कोई प्रश्न है, एक बार में एक ही जोड़ी पहनी जाती है एक कुर्ता और एक धोती। हाँ. ठीक है यह पहनने की बात हुई पर एडवाँस में कितने हैं बोलो ? चुप क्यों हो ? महाराज जी, फिर तो गिनना पड़ेंगे।
जिन पेटियों में कपड़े बन्द हैं उन पेटियों में घुस-पुस कर चूहे काटते होंगे। फिर भी आपके दिमाग में यह चूहा काटता रहता है कि उस दिन मार्केट में जो हमने नायलोन देखा था, वह तो अहा हा अहा अब क्या करूं ? पता नहीं ट्रक (सन्दूक) में कितने हैं ? लेकिन! फिर भी जो बाजार में आया है, उसकी पूर्ति के प्रयत्न में हैं। अपव्यय भी हो जाय तो कोई बात नहीं, गाँधी जी ने उस बुढ़िया को देखकर सोचा कि ओ अहो। इनके पास तो पहनने के लिए भी नहीं है। ओढ़ने की बात तो बहुत दूर है। धोते समय उस बुढ़िया ने आधी धोती तो पहन रखी थी और आधी धोती धो रही थी, कितना अभावग्रस्त जीवन है इसका। लेकिन फिर भी वह बुढ़िया किसी से जाकर नहीं कह रही कि मेरी यह स्थिति है।
जब से गाँधी जी ने जनता के दुख भरे जीवन के बारे में सोचा तब से उन्होंने सादा जीवन बिताना प्रारम्भ कर दया । वे धोती कैसे पहनते थे? मालूम है आपको, साठ इंची पना वाली नहीं, जैसे आप दुपट्टा पहनते हो! उसी प्रकार की धोती जो घुटनों के नीचे नहीं आती थी, और आपकी धोती क्या करती है ? जमीन को बुहारती है, अब नगर पालिका की कोई जरूरत नहीं। जब आप लोग इस प्रकार चलेंगे तो सड़क अपने आप ही साफ हो जाएगी, अब झाडू लगाकर साफ करने की कोई आवश्यकता नहीं।
आप भारत के नागरिक हैं, और वे भारत के नेता माने जाते थे। उनका जीवन कैसा था? एक बार अनुभव हो गया था, ज्ञान उनके पास था। ज्ञान का अर्थ है आँखें, वे आँखें उनके पास थी जिनमें करुणा का जल छलकता रहता था। धर्म का अर्थ यही है दीन दुखी जीवों को देखकर, आँखों में करुणा का जल छलके अन्यथा! नारियल में भी छिद्र हुआ करते हैं। दयाहीन आँखों को तो छिद्र ही मानते है। यद्यपि! ज्ञान है लेकिन उस ज्ञान के माध्यम से यदि संवेदना नहीं होती है तो उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं, इन आँखों से हम सब को देखते अवश्य हैं लेकिन वे सब हमारी आँखों के विषय मात्र बन जाते हैं। वे आँखें किसी काम की नहीं हैं, जिन में ज्ञान होते हुए, देखते हुए संवेदना की दोतीन बूंदें भी नहीं आती। वे आँखें लोहे की हैं, पत्थर की हैं हमारे किसी काम की नहीं हैं।
एक अंधे व्यक्ति को हमने देखा था। उस अंधे की आँखों में से पानी आ रहा था। वे आँखें बहुत अच्छी हैं जिनसे भले ही देख नहीं सकते लेकिन उनमें करुणा का जल तो छलकता रहता है किन्तु! उन आँखों का कोई महत्व नहीं है जिनमें दया नहीं है, करुणा का जल नहीं है। उनके पास ज्ञान था, विलायत जाकर के उन्होंने अध्ययन किया और वो बैरिस्टर बने। बैरिस्टर बहुत कम सफल हुआ करते हैं, ध्यान रखना! वह भारत में नहीं विलायत से उपाधि मिलती है। अब देखो! इतना ज्ञान था, लेकिन साथ-साथ दया भी थी। धर्म और संवेदना से वे ऐसे हल्के हो जाते थे कि बस उसमें डूब जाते थे। ऐसी कई घटनाएँ उनके जीवन में घटी। वो दया धर्म को जीवन का मुख्य अंग मानते थे, या यूँ कही जीवन ही मानते थे। कहा भी है -
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दयान छाँडिये, जब लों घट में प्राण।
यह जो समय हमें मिला है, जो कुछ उपलब्धियाँ हुई हैं, वो पूरी की पूरी उपलब्धियाँ दया धर्म पालन के लिए ही हैं। इस ज्ञान के माध्यम से हमें क्या करना है ? तो संतों ने लिखा है कि उन उन स्थानों को जानने की आवश्यकता है, जिन-जिन स्थानों में सूक्ष्म एकेन्द्रियादिक जीव रहते हैं। जब जीवों का परिज्ञान हो जाता है, तब उनको बचाने का उचित प्रयास भी किया जा सकता है। जीवों को जानने के उपरांत यदि दया नहीं आती है, तो उस ज्ञान का कोई उपयोग नहीं वह एक प्रकार से कोरा-थोथा ज्ञान है। वह ज्ञान नहीं माना जाता, जिसके हृदय में थोड़ी भी उदारता नहीं है, जिसके जीवन में अनुकम्पा नहीं है। जिसका जीवन, जिसका शरीर सर्दी में तो कंप जाता है, किन्तु! प्राणियों के कष्टों को देखकर के नहीं कंपता तो उसे लौकिक दृष्टि से भले ही ज्ञानी कहो, किन्तु परमार्थ रूप से वह सच्चा ज्ञानी नहीं है।
पंचेन्द्रिय जीव उसमें तिर्यच की बात तो बहुत दूर है, ऐसे मनुष्य भी इस बीसवीं शताब्दी में हैं जिन्हें आवश्यक सामग्री भी उपलब्ध नहीं हो पाती । समय पर भोजन नहीं है, रहने को मकान नहीं है शिक्षक नहीं है, समय पर यथायोग्य सामग्री नहीं मिल पाती, यदि मिल भी जाती है तो जीवन ढलता हुआ नजर आता है। शाम तक यदि कुछ राशन मिल भी जाए तो सूरज डूबने को होता है, प्रकाश में खाने के लिए बिजली तक नहीं है। कहाँ जायें? क्या करें? बेचारों के पास दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है, आप लोग रात्रि भोजन का त्याग करते हैं बिल्कुल ठीक है दिन में ही भोजन करते हैं इसके साथ-साथ ऐसे भी लोग देखे जाते हैं जो दिन में भी एक बार भरपेट भोजन नहीं कर पाते उनकी ओर भी तो थोड़ी दृष्टि कीजिए, कौन-सा व्यक्ति ऐसा है जो उन्हें सहयोग देने का कार्य करता हो ?
आज इस भारत में सैकड़ों बूचड़खानों का निर्माण हो रहा है, आप सब कुछ जान रहे हैं, देख रहे हैं, कानों से सुन रहे हैं, फिर भी उन पशुओं की करुण पुकार सुनकर आपके हृदय में यह भाव नहीं उठते कि हम इसका विरोध करें। राम-रहीम और महावीर के समय में जिस भारत भूमि पर दया बरसती थी, सभी प्राणियों के लिए अभय था, उसी भारत भूमि पर आज अहिंसा खोजे नहीं मिलती। आज बडी-बड़ी मशीनों के सामने रख कर एक-एक दिन में दस-दस लाख.बीस-बीस लाख निरपराध पशु काटे जा रहे हैं। आप बम्बई-कलकत्ता-दिल्ली-मद्रास कहीं भी चले जाइये सर्वत्र हिंसा का ताण्डव नृत्य ही दिखाई देगा, देखने तक की फुरसत (समय) आपको नहीं है। आज इस दुनियाँ में ऐसे कोई दयालु वैज्ञानिक नहीं हैं जो जाकर के इन निरपराध पशुओं की करुण पुकार को सुन लें! और उनके पीड़ित अस्तित्व को समझ कर, आत्मा की आवाज पहचान कर, इन कुकर्मों को रोकने का प्रयास करें। उन पशुओं की हत्या कर, उनकी चमड़ी, मांस आदि सब कुछ विभाजित कर, पेटी में बन्द करके निर्यात किया जाता है। आपको यह बातें मालूम नहीं पड़ पाती और मालूम भी हो जाये तो आप पैसों के लोभ में आकर, कई अशोभनीय कार्य कर जाते हैं। केवल आप नोट ही देखते हैं Currency.आगे जाकर जब उसका फल मिलेगा तब मालूम पड़ेगा, इस दुष्कार्य का जो व्यक्ति समर्थक है, अनुमोदक है, उस व्यक्ति के लिए नियम से इस हिंसा जनित पाप के फल का यथायोग्य हिस्सा मिलेगा।
छहढाला का पाठ आप रोज करते हैं। ‘सुखी रहें सब जीव जगत् के” यह मेरी भावना भी रोज भायी जाती है। लेकिन फिर भी ये सब क्या हो रहा है, ४० साल भी नहीं हुए हैं गाँधी जी का अवसान हुए और यह स्थिति आ रही है। जिस भारत भूमि पर धर्मायतनों का निर्माण होता था उसी भारत भूमि पर आज धड़ाधड़ सैकड़ों हिंसायतनों का निर्माण हो रहा है। इसमें राष्ट्र का कोई दोष नहीं है, और इस देश में तो प्रजातंत्रात्मक शासन है, प्रजा ही राजा है। आपने ही चुनाव के माध्यम से वोट देकर के उनको उम्मीदवार बनाकर शासक बनाया है, अत: एक प्रकार से आप ही शासक हैं। आपके अंदर यदि इस प्रकार की करुणा जागृत होगी, तो वे कुछ भी नहीं कर सकेगे। आप लोगों को, Indirect तो मिलता ही रहता।
सुनो! सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री आप मुँह माँगे दाम देकर के खरीदते हैं, जीवन का आवश्यक कार्य समझकर हमेशा उपयोग करते रहते हैं उसके माध्यम से आप अन्धाधुंध हिंसा करते हुए, बड़ी प्रसन्नता के साथ अपनी मनोकामना पूरी करते हैं। रात्रि भोजन नहीं करते, अभक्ष्य-भक्षण भी नहीं करते, पानी छानकर पीते हैं, आलू भटा इत्यादि भी नहीं खाते, किन्तु! समय आने पर भालू बनकर सब कुछ खाने जैसी प्रवृत्ति कर जाते हैं, इस नश्वर शरीर की सुन्दरता बढ़ाने के लिए, आज कितने जीवों को मौत के घाट उतारा जा रहा है, दूध देने वाली गायें, भैंसें दिन दहाड़े काटी जा रही हैं, खरगोश, चूहे, मेंढ़क और बेचारे बन्दरों की हत्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आपने कभी सोचा?.समझा कि यह सब क्यों हो रहा है ? ध्यान रखो यह सब आपके अन्दर बैठी हुई वासना की पूर्ति के लिए हो रहा है। इन अनेक प्रकार के पशुओं को सहारा देना तो दूर रहा, उनके पालनपोषण की बात तो छोड़िये.लेकिन उनके जीवन में इस प्रकार की घटना घटते हुए चुप-चाप देखते
आज मनुष्य-मनुष्य के लिए खाने को तैयार है। पशुओं को समाप्त किया जा रहा है, आज मुर्गी पालन केन्द्र खुल रहे हैं ताकि उनसे अधिक से अधिक अण्डे प्राप्त हो सके। मछलियों का उत्पादन किया जा रहा है, लेकिन दया की उत्पत्ति, अनुकम्पा की उत्पत्ति, धर्म की उत्पत्ति शान्ति के कष्ट होता है कि जहाँ पर आप लोगों ने जैन विद्यालय-गुरुकुल खोले थे वहाँ पर आज जैन धर्म का नामोनिशान तक नहीं है जबकि लौकिक शिक्षण का कितना अधिक विकास हो गया है। वहाँ पर साइंस आ गई, कॉमर्स आ गई, अर्थ विज्ञान आ गया किन्तु जीव दया पालन जैसा सरल विषय रंचमात्र भी नहीं रहा है।
नागरिक शास्त्र जिस समय हम छोटे थे, उस समय पढ़ते थे। नागरिक शास्त्र का अर्थ क्या है ? कैसे नागरिक बनें? कैसे दया का पालन करें? कैसे अपनी समाज की सुरक्षा करें। इन सब बातों को नागरिक शास्त्र हमें सिखाता है। उन नागरिक शास्त्र के माध्यम से, हम सही जीवन जीने का प्रयास करें, दूसरे प्राणियों को अपना सहयोग दें। पशुओं की रक्षा करें, क्योंकि! पशुओं का जीवन परतन्त्र है और हमारा जीवन स्वतंत्र है, इस प्रकार के विचार आज समाप्त होते जा रहे है। जहाँ पर पहले चरस चलाया जाता था, वहाँ पर अब पंप आ गया, उसके द्वारा कुंए के कुंए खाली किए जाते हैं। जहाँ पर जमीन के लिए गोबर आदि की खाद बनाई जाती थी, वहाँ पर आज यूरिया, ग्रोमोर आदि खाद आ गया, जो जमीन की उपजाऊ शक्ति को क्षीण करते हैं। कुएँ की बात कह दूँ। चरस चलाने से कुएँ के झरनों को धक्का नहीं लगता किन्तु पंप के चालू करने से कुएँ के सारे स्रोत बंद हो जाते हैं। पंप का पानी जब जमीन पर बहता है तो वह तेजी से रगड़ता हुआ चला जाता है और जो तत्व शक्ति ऊपर रहती है वह सब रगड़ खाने से धुल जाती है। जबकि चरस का पानी बिल्कुल डूबता हुआ भीतर.भीतर घुसता चला जाता है बहता नहीं है। तपी हुई धरती की प्यास पंप का पानी नहीं बुझा सकता क्योंकि उसकी रफ्तार बहुत तेज रहती है जबकि चरस का पानी धीरे-धीरे बहकर धरती के हृदय में प्रवेश कर उसकी तपन को शान्त कर देता है।
जब बालक को माँ का दूध नहीं मिलता तो उसे गाय का अथवा डिब्बे का दूध पिलाया जाता है, किन्तु वह उसे असली दूध के माफिक लाभकारी नहीं होता। वैसे ही जमीन को बनावटी खादपानी भी पूर्णत: लाभकारी नहीं होता। जैसे कमजोर शक्ति वाले को ऊँचे दर्जे का इंजेक्शन लगाने से वह उसे सहन नहीं कर सकता उसी प्रकार जमीन में भी एक हद तक सहन करने की शक्ति रहती है। उसमें तेज खाद डालने से एक फसल तो अच्छी आ जाती है किन्तु दूसरी फसल में हानि हो जाती है-वह कहने लगती है कि अब यह विदेशी खाद नहीं चलेगी, अब तो उसी देशी खाद की ही आवश्यकता है। क्योंकि उसकी पूरी की पूरी शक्ति समाप्त हो चुकी है, इस प्रकार जब हम सही तरीके से सोचते हैं तो, ये हानियाँ हमारे द्वारा होती चली जा रही हैं। यह सारा का सारा विनाशक कार्य बौद्धिक क्षेत्र में हुआ, सामाजिक क्षेत्र में हुआ, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्र में हुआ कोई भी ऐसा क्षेत्र शेष नहीं है, जिसकी हम पूर्व परम्परा से तुलना कर सके।
आप लोग चुपचाप सब बातों को सुन रहे हैं, मात्र सुन ही नहीं रहे हैं, किन्तु उनकी प्रगति में अपने वित्त का उपयोग भी कर रहे हैं। अपनी संतान को इस प्रकार की शिक्षा देने में अपने को कृतकृत्य मानते हैं, हमारा लड़का M.B.B.S. हो तो ठीक है। जबकि धार्मिक विद्यालय सारे के सारे बंद होते जा रहे हैं और यदि हैं भी तो उनमें एकाध Period लगता है, जिसमें मेरी भावना की एकाध कड़ी बोली जाती है।'णमोकार मंत्र बोलकर के वन्दे वीरो' कह देते हैं, बस! धार्मिक अनुष्ठान समाप्त हो गया। न उसके प्रति आस्था है, न कोई आदर है, न धार्मिक संस्कार प्राप्त करने की इच्छा है। बस! एकमात्र Routine (क्रम) सा चलता है, यह कितने दिन तक चलेगा? जो आस्था के बिना, बुद्धि के बिना किया जाता है, वह तो बहुत कम दिन तक चलता है भीतर से उसके प्रति कोई जगह नहीं है, तो वह खोखलापन अल्प समय में ही नष्ट हो जाने वाला है।
नवनीत और छाछ ये दो तत्व हैं। जिसमें सारभूत तत्व को छोड़कर छाछ की मटकी की ओर हमारी दृष्टि जा रही है। यदि उसमें छाछ है तो फिर भी ठीक है, लेकिन! उसमें फटा हुआ दूध है, जो न तो इधर है, और न उधर है। वर्तमान में यही दशा भारत की हो रही है। शोध शील होने वाले कुछ राष्ट्रों ने इसके ऊपर दृष्टिपात किया और कुछ खोजने की चेष्टा की है, लेकिन उन्होंने सोचा कि यह भी भौतिकता की चकाचौंध में पागल हो रहा है। अपनी मूल संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति की ओर जा रहा है। भारतीय नागरिक की यह दशा वैकालिक बन गई है। ज्ञान धर्म के लिये है, और होना भी चाहिए क्योंकि धर्म आत्मा को उन्नति की ओर ले जाने वाला है, यदि वह ज्ञान दया धर्म के साथ Connected (संबंधित) होकर दयामय हो जाता है तो वह ज्ञान हमारे लिए हितकारक सिद्ध होगा। वे आँखें भी हमारे लिए बहुत प्रिय मानी जायेंगी जिसमें करुणा, दया, अनुकम्पा के दर्शन होते हैं, यदि नहीं तो यह मानव जीवन बिल्कुल नीरस प्रतीत होगा।
आज किसी के पास न तो सहनशीलता है, न त्याग है, न धर्म है, न वात्सल्य है और न ही सह-अस्तित्व भाव है। कुछ भी नहीं है। केवल धक्का-मुक्की खाये जा रहा है। भौतिकता से ऊब कर शांति के लिए अब बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को भी धर्म की ओर मुड़ने को मजबूर होना पड़ रहा है, मुड़ने की भी शक्ति नहीं है, इसलिए उनका माथा ही घूम रहा है। कैसे जियें? क्या, कैसा व्यवहार करें? आदि प्रश्नों के समाधान मिलना दूभर हो रहा है। आज वित्त का अर्जन तो बहुत हो रहा है लेकिन वित्त का उपयोग कैसे करें? इसके लिए उनका दिमाग नहीं चल रहा है। यदि अनावश्यक उत्पादन किया जाता है, तो उनका दिमाग नियम से खराब होगा।
हम जब बहुत छोटे थे। उस समय की बात है। रसोई परोसने वाले को हमने कहा कि रसोई दो बार परोसने की अपेक्षा एक बार ही परोसो । तो वह बोला कि हम तीन बार परोस देंगे लेकिन एक बार में नहीं परोसेंगे, यदि हम एक ही बार में परोस देंगे तो तुम आधी खाओगे और आधी छोड़ दोगे। परोसने वाले पूरी की पूरी रसोई कभी नहीं दिखाते। उसके ऊपर कपड़ा ढका रहता है, उसी में धीरे-धीरे सामान निकालकर देते हैं, तृप्ति हो जाती है। एक साथ सब कुछ परोस देने से मन कचोट जाता है और खाने की जो भूख है वह समाप्त हो जाती है।
उसी प्रकार आज भी, वही स्थिति है। बहुत उत्पादन होने से दिमाग खराब हो रहा है। एक समय वह भी था, जब धन का संग्रह एक दूसरे के उपकार के लिए होता था, धन का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों में होता था। जो धन दूसरों का हित करने वाला था वही धन आज राग-द्वेष का कारण बना है। मैं किसी को क्यों दूँ? इस प्रकार की भावना मन में आ गई है। आज अनीतिअन्यायपूर्वक धन का संग्रह अधिक मात्रा में हो रहा है, किन्तु उसका उपयोग कैसे करें? कहाँ करें? इसके लिए उनकी बुद्धि नहीं चल रही है, और उन्हें सोचने की फुरसत भी नहीं है। मात्र धन का अर्जन करना ही बुद्धिमानी नहीं है, बल्कि संग्रहीत धन का सही-सही उपयोग करना बुद्धिमानी है। जैनदर्शन कहता है कि उतना उत्पादन करो, जितना तुम्हें आवश्यक है, यदि कुछ कम ही करो तो ठीक है, जिससे कुछ समय बचेगा उसमें परोपकार की बुद्धि जाग्रत होगी। धन की सुरक्षा की अपेक्षा जहाँ पर आवश्यक है वहाँ पर दे दो तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
बहुत दिन पहले की बात है, राज्य व्यवस्था और राजा का शासन कैसा हो ? इस बारे में मैंने एक पाठ पड़ा था। उस राजा के राज्य में प्रजा की स्थिति बहुत दयनीय थी। राजा के पास कई बार प्रजा की शिकायतें आई, राजा ने सोचा कि यहाँ पर क्या कमी है ? कमी को मालूम कर उस कमी को दूर करने के लिए सख्त शासन प्रारम्भ कर दिया। और कह दिया कि हमारे राज्य में कोई भी व्यक्ति भूखा सोयेगा तो उसे दूसरे दिन दण्ड दिया जाएगा। कोई भूखा तो नहीं है यह पता लगाने के लिए उसने एक घंटा लगवाया था। जिसकी बहुत दूर-दूर तक आवाज आती थी, एक-दो दिन तक कुछ नहीं हुआ तीसरे दिन घंटा क्यों बजा? वहाँ और कोई नहीं था, एक घोड़ा था। और वह घोड़ा घंटे को बजा रहा था। वहाँ पर घास का पूरा गट्ठा अटका हुआ था उसको खाने के लिए वह सिर हिला रहा था। उसके साथ-साथ घंटा बज रहा था, सिपाही ने सोचा कि यह घोड़ा नियम से भूखा है, इसलिए इस घंटे के ऊपर लगी हुई जो घास है, वह खाना चाह रहा है। उसके मालिक को बुलाया और कहा बोलो कितने दिन से भूखा था? अन्नदाता! भूखा तो नहीं रखा, घोड़े के मालिक ने डरते-डरते कहा। फिर ऐसा क्यों हुआ? राजा ने पुन: प्रश्न किया। अन्नदाता! इसके माध्यम से मैं जो कुछ भी कमाता हूँ उसमें कमी आ गई, जब मेरा ही पेट एक बार भरने लगा तो मैंने सोचा कि अब इसे भी एक ही बार दो। तुम्हारा पेट एक ही बार क्यों भरने लगा? राजा ने पूछा। महाराज! जो किराया देते थे, उसमें लोग कटौती करने लगे और कटौती करने से हमारा पेट एक ही बार भरने लगा। घोड़ा तो वही है और कमाने वाला मात्र मैं ही हूँ तो उसका भोजन हमने एक बार कर दिया। वह तो जानवर है, मैंने उसे पानी तो खूब पिलाया पर घास की पूर्ति नहीं कर सका। यदि करता हूँ तो मुझे भूखा रहना पड़ेगा, यही स्थिति यदि कुछ दिन और रही तो वह जल्दी ही मर जाएगा, क्योंकि वह अब इतना बोझ वहन तो कर नहीं सकता।
इतना सुनने के उपरांत राजा ने कहा कि ओ हो ! हम पगडंडी तो बहुत जल्दी अपना लेते हैं और राज मार्ग से स्खलित हो जाते हैं, क्योंकि हमारी वृत्ति कंजूसपने की ओर जा रही है। इसका अर्थ यही है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच जो व्यवहार था उसमें ही जब कमी आ रही है, तो फिर पशुओं के व्यवहार की तो बात ही अलग है।
उसी दिन राजा ने आज्ञा दी कि जो जितना काम करता है उसे उसके अनुरूप वेतन मिलेगा। इसको बोलते हैं शासन की व्यवस्था। आज भी शासन है, पहले भी शासन था और आगे भी रहेगा, किन्तु कितना फर्क? जमीन आसमान का! धर्म वह है जो जीव को दुख के स्थान से उठाकर सुख के स्थान पर लाकर रख देता है और जो दुख के गर्त में ढकेल देता है वह है अधर्म। वह अधर्म आपकी दृष्टि में हो सकता है, आपके आचरण में भी हो सकता है। वृत्ति, ज्ञान, दर्शन इन तीनों के माध्यम से सुख मिलता है और दुख भी मिल सकता है। यदि धर्म से विमुख हो जाते हैं तो हम इन तीनों से दुख का अनुभव करते हैं और यदि हम धर्म के सन्मुख हो जाते हैं, तो हमारा जीवन सुखमय बन जाता है।
गाँधीजी के माध्यम से भारत को स्वतंत्रता मिली। उनका उद्देश्य केवल भारत को ही स्वतंत्रता दिलाने का नहीं था, किन्तु! विश्व भी स्वतंत्रता का अनुभव करे, विश्व भी शान्ति का अनुभव करे । सब संतों का धर्मात्मा पुरुषों का उद्देश्य यही होता है कि जगत के सभी जीव सुखशान्ति का अनुभव करें। कुछ लोग आकर के कहते हैं कि महाराज! कुछ प्रवचन, उपदेश ऐसे दिया करो जिससे गायें कटना बन्द हो जायें और बकरे कटें, ऐं.! और बकरे कटना बन्द हो जाए और अण्डों की उत्पति शुरू हो जाए.नहीं यह गलत है, एक साथ सभी जीवों के प्रति अभय देने की भावना धर्मात्मा के अन्दर होनी चाहिए।
वे भी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव हैं, उनके भी ज्ञान की गरिमा है, उनके आचरण की सीमा है, उनकी दृष्टि भी समीचीन होती है। जीव विज्ञान को पढ़ने से ऐसा ज्ञान हो जाता है कि उनके अन्दर ऐसा ज्ञान, ऐसा चारित्र भरा हुआ है। ऐसी उन जीवों की आस्था रहती है कि आप लोगों को तो प्रशिक्षण देना पड़ता है, किन्तु उनको मात्र इशारा काफी है। देखकर, वे ऐसा जान सकते हैं, पहिचान सकते हैं, आप यहाँ बैठे सुन रहे हैं, लेकिन आप ही मात्र श्रोता हैं ऐसा नहीं है। पेड़ के ऊपर बैठी चिड़ियाँ भी सुन सकती हैं और वे सब प्राणी अपने जीवन को धर्ममय बना सकते हैं। पुराणों के अन्दर ऐसी कथाओं की भरमार है। इन कथाओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि हम लोगों को अल्पसमय में बहुत उन्नति कर लेना चाहिए लेकिन करते नहीं हैं। उसका कारण यही है कि हम लोगों का जीवन किसके ऊपर निर्धारित है इसका थोड़ा भी हम विचार नहीं करते। आपका समय हो गया है, सावधान हो जाइये! आपको अभी आगे यात्रा और करनी है।
आज आप लोग यह संकल्प कर लें कि नये कपड़े खरीदने से पहले पुराने कपड़े कितने हैं, इसका हिसाब लगा लें और वे फटे हैं कि नहीं? यह देखकर ही बाद में खरीदें। यदि दया आ जाए तो पुराने कपड़े जिनके पास कपड़े नहीं हैं उनके लिए दे दें।
इस युग में रहने वाले गाँधीजी ने अपने जीवन को 'Simple living and high thinking' (सादा जीवन-उच्च विचार) के माध्यम से उन्नत बनाया था। वे सदा सादगी से रहते थे। शरीरिक शक्ति कम थी लेकिन आत्मिक शक्ति, धर्म का सम्बल अधिक था। उनके अनुरूप जीवन को बनाने के लिए आप लोग यह संकल्प कर लें जितनी सामग्री आवश्यक है, उतनी ही रखें, उससे अधिक नहीं इस प्रकार परिमाण करने से आप अपव्यय से बच सकते हैं। सर्वप्रथम व्यय से नहीं बचा जाता किन्तु अपव्यय से बचा जाता है। अपव्यय से बचना ही अपने जीवन को उन्नत बनाना है। आप लोग सोचते नहीं हैं कि कितना पैसा अनर्थ में खर्च हो जाता है ? खरीदने के लिए तो आप चले जाते हो, खरीद लेते हो लेकिन दूसरे दिन उसका महत्व कम हो जाता है। ऐसा क्यों होता है ? इसलिए होता है कि उसकी उपयोगिता नहीं थी और आपने खरीद लिया। वह सबसे बड़ा पाप है, जैनाचार्यों ने इसे अनर्थदण्ड कहा है, जो जीवों को दण्ड के समान पीड़ा पहुँचाता है उसे अनर्थदण्ड कहते हैं।
अधिक से अधिक पाप अनर्थदण्ड के माध्यम से होता है। आप लोग समय का मूल्यांकन करते हुए जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास करें। समय सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण धन है। आत्म तत्व को पाने के लिए समय का मूल्यांकन करें और अपव्यय से बचने का प्रयास करें तभी देश की, संस्कृति की सुरक्षा संभव है।