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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • दया धर्म

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    दया धर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. संसारी प्राणी अकेला जीना चाहता है, सभी को जीने दो यह जैनदर्शन का नारा है।
    2. हमारा जीवन दूसरों को बाधक न हो, दूसरों को जीने देना उसे जीने में सहायक होना यह जैनदर्शन है।
    3. पेट भरना तो धर्म है, पर पेटी भरना अधर्म है। तिर्यच पर्याय में पेटी कहाँ मिलेगी, दुनिया के अनर्थ पेटी के लिए होते है, पेट के लिए नहीं।
    4. रोते हुए व्यक्ति को देखने पर आपकी आँख में पानी आ जावे वही धर्मात्मा है।
    5. यह जैनधर्म की विशालता है कि वो प्रेम वात्सल्य, विनय, संतोष, उपकार की शिक्षा देता है।
    6. सबसे बड़ा धर्म तो अपरिग्रह ही है।
    7. यदि संसार में कुछ सार है तो मात्र दया धर्म सारभूत है।
    8. मूल के अभाव में जिस तरह वृक्ष नहीं, फल नहीं, फूल नहीं, पत्ते नहीं, छाया नहीं, उसी प्रकार दया धर्म के अभाव में कोई धर्म नहीं।
    9. यदि कोई धर्मात्मा किसी कारणवशात् धर्म से विमुख हो रहा हो तो उसकी समस्या हल कर फिर से धर्म में लगा देना सबसे बड़ा काम है।
    10. जिसमें दया को स्थान नहीं वह धर्म नहीं।
    11. धर्म कर्तव्यपरक है कर्तापरक नहीं दया धर्म के पालन से ही उस दयावान् की पूजा होती है दयामय धर्म जब जीवन में उतर जाता है तो हम तर जाते हैं और दुनिया को प्रकाश मिल जाता है।
    12. धर्मात्मा के पास बैठने से अथवा धर्म की बात सुनने मात्र से धर्मात्मा नहीं होते किन्तु जीवन में दयामय धर्म उतारने से धर्मात्मा होते हैं।
    13. दया धर्म के प्रति जो समर्पित हो जाता है वह धर्मात्मा कहलाता है।
    14. सज्जन व्यक्ति के पास गाय रुखा-सूखा खाकर रहना चाहती है लेकिन दुर्जन के पास हराभरा खाना पसंद नहीं करती।
    15. मनुष्यों का पालन पशुओं के निमित से हुआ करता है।
    16. पशुओं के पालन से मानव की आजीविका निर्मित होती है।
    17. धर्म को सामने रखकर चलो पीछे रखकर नहीं यह रूढ़िवाद का समर्थन नहीं है।
    18. भेष बदल ले तो कोई बात नहीं, पर विचार नहीं बदलना चाहिए। विचार बदलने पर धर्म का कार्य आगे बढ़ाने में रुकावट आ जाती है।
    19. महान् आत्माएँ अपने ऊपर आने वाली प्रत्येक विपत्ति को सहर्ष स्वीकार करती हैं और धर्म के मार्ग पर आरूढ़ रहकर दूसरों के लिए धर्म का मार्ग प्रदर्शित करती हैं।
    20. धर्म की सुरक्षा चाहते हो तो धर्मात्मा बनो। धर्म जड़ नहीं है जिसकी सुरक्षा की जा सके।
    21. जो व्यक्ति अपने लिए रोता है वह स्वार्थी कहलाता है लेकिन जो दूसरों के लिए रोता है वह धर्मात्मा कहलाता है।
    22. दया का उदय धरती पर होगा तो यहाँ कोई शत्रु आ नहीं सकेगा। दया का सात्विक भाव का विस्तार करने में बुद्धि लगी रहे।
    23. धर्म यदि मिल सकता है तो करुणा, मैत्री, प्रमोद भाव के द्वारा ही मिल सकता है।
    24. दया धर्म का पालन करेंगे तो सरस्वती और लक्ष्मी दोनों को प्राप्त करोगे।

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