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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. दया के क्षेत्र में कार्य होना चाहिए। दया हमेशा जीवंत रहती है,माया के प्रति राग होता है, परन्तु दया तो धर्म का मूल होता है। कभी भी आवश्यकता से अधिक की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। जो चाहिए सब पुरुषार्थ से मिलता जाएगा। गौमाता कामधेनु के रूप में माँ की भाँति मीठा दूध और अमृत दे रही है। पहले गौ-दान की परम्परा होती थी उसको जीवित करने की जरूरत है। सरकार अपना कार्य करती है हमें अपना कार्य करना चाहिए, उस पर आश्रित नहीं रहना चाहिए। गौ-सेवा के क्षेत्र में भारत की जनता को स्वयं ही आगे आना चाहिए। आप तो धर्म के कार्य को करते जाइए ये जबर्दस्त कार्य है, परन्तु जबर्दस्ती का कार्य नहीं है। जो है भगवान के भरोसे चलता जाएगा। प्रकृति ने कामधेनु को दिया है तो प्रकृति ही उसकी रक्षक है। कामधेनु की कृपा के बदले सिर्फ अपने कर्तव्यों का पालन करते जाइए। दान दाता को तो दान देते समय अहोभाग्य समझना चाहिए कि उसका दान दया के क्षेत्र में जा रहा है। जो व्यक्ति अर्जन करता है उसे धन का विसर्जन भी करना चाहिए; यही धर्म का सन्देश है। पहले से ही भारत में गौ-संरक्षण की परम्परा चली आ रही है, राजाओं के राज्य में भी गौमाता निर्भय होकर घूमती थी; आज लोकतंत्र में आप सभी राजा की भांति गौमाता का संरक्षण करो। प्राचीन समय में भारत में गुरुकुल, गौशालाएँ चलाई जाती थीं आज भी गुरुकुल की शिक्षा के लिए और गौशालाओं की गाय के संरक्षण के लिए पुरुषार्थ की जरूरत है। भारत के कृषि तंत्र को तहस-नहस करने का प्रयास हो रहा है, राष्ट्रभाषा के साथ दुव्र्यवहार हो रहा है, संस्कृति को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास विदेशियों द्वारा आज भी किया जा रहा है। नेता मात्र का कार्य नहीं है, व्यवस्था परिवर्तन में जनता को भी अपने कर्तव्यों के पालन के प्रति गंभीर होना चाहिए। लोकतंत्र मजबूत तभी होगा जब सब सामूहिक रूप से प्रयास करेंगे। गौ-धन राष्ट्र की सबसे बड़ी पूँजी है जबकि हम कामधेनु को छोड़कर यांत्रिक कार्यों को बढ़ावा दे रहे हैं। गौ-रस योगी के शुक्लध्यान में भी कारगर होता है और वह आपके द्वारा दिया जाता है योगी को, तो आपको पुण्य की प्राप्ति होती है परन्तु जब गौ नहीं होगी तो दूध की धारा कहाँ से लाओगे? चार प्रकार के दान में अभयदान भी श्रेष्ठ माना जाता है इसलिए कम से कम कामधेनु के अभय के लिए तो कुछ अर्थ का त्याग करने का संकल्प लो, तभी तुम्हारे दस धर्मों के पालन की उपयोगिता मानी जाएगी। एक बार जो व्रत ले लिया उसे पूर्ण करने के लिए कमर कस लेना चाहिए, बीच में छोड़ना नहीं चाहिए। जैसे हम दाम्पत्य जीवन में वचन लेकर-देकर एक दूसरे के प्रति समर्पित रहते हैं वैसे ही कामधेनु के प्रति वचनबद्ध होकर काम करें, उसके प्रति समर्पित रहें क्योंकि वो भी आपके प्रति दया का भाव रखकर आपको अपना दूध देती है। वो दुग्ध प्रदान करती है, आप उसे संरक्षण प्रदान करो। यदि सम्यग्दर्शन के निकट पहुँचना चाहते हो तो दया, जो धर्म का मूल है उसे जीवन में उच्च स्थान देना होगा। -१३ सितम्बर २०१६, भोपाल
  2. पत्रकार वार्ता का एक अंश,९ सितम्बर २०१४ विदिशा चातुर्मास, दयोदय महासंघ का अधिवेशन पत्रकार - आचार्य श्री! यह बात सामने आ रही है कि आज मीट एक्सपोर्ट बहुत हो रहा है, उसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे? आचार्य श्री - देखिए, आज जो इस प्रकार का हिंसक व्यवसाय हो रहा है अंग्रेजों ने ही चालू कराया था। जब वे लोग भारत में आए तब भारत में कितने कत्लखाने थे? नहीं थे। उन्होंने चालू कराया था और आज कितने कत्लखाने हैं, आप सभी को इसका अध्ययन करना चाहिए। बिना सोचेविचारे आज्ञा लेकर या बिना आज्ञा के अंधा-धुंध खुल रहे हैं, खुलते जा रहे हैं। इसके पीछे किसका हाथ है? यह चिंतनीय विषय है। विदेशनीति में बहुत शक्ति है। कहीं आपकी विदेशनीति के माध्यम से भारत की नीति को समाप्त करने का यह षड़यंत्र तो नहीं है? बताते हैं कि पेट्रोल के बदले मांस निर्यात किया जाता है; तो ये आपका अनुबंध ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे अनुबंध से कुछ व्यापारी लोग इसमें सम्मिलित होकर अर्थ के लालच में अनर्थ कर रहे हैं। संस्कृति विरुद्ध इस कार्य से अहिंसा, पर्यावरण, प्रकृति, मानव सभ्यता का भारी नुकसान हो रहा है। यह कभी-भी व्यापार नहीं था और न ही कभी व्यापार की कोटि में आ सकता है। मांस के व्यापार के माध्यम से कोई भी देश उन्नति नहीं कर पाया। आप इतिहास उठाकर देखें। इससे प्राकृतिक विपदाएँ-आपदाएँ आतीं हैं, आ रहीं हैं वह भी देखें। मांस निर्यात शीघ्र बंद होना चाहिए।
  3. अहिंसा की उपासना कोई तिलक लगाने वाला कर रहा है, यह कोई नियम नहीं है क्योंकि अहिंसा का कोई तिलक नहीं होता। अहिंसा आत्मा की वृत्ति है और वह आत्मा पशुओं के पास भी होती है। संसार में ऐसा कोई जीव नहीं जिसके पास आत्मा न हो आत्मा के बिना जीव ही नहीं हो सकता। यह आत्मा सबके पास है, आपके पास भी है लेकिन आपके पास अहिंसा नहीं, अहिंसा के अभाव में आपकी आत्मा हिंसक हो गई है, क्रूर हो गई है, आप अपनी आत्मा में अहिंसा की प्रतिष्ठा करें। जीवन को अहिंसक बनाएँ इसी में जीवन की सार्थकता है। अहिंसा को न भूलें, धर्म को न भूलें लेकिन यह भी याद रखें कि मन्दिर जाकर घंटी बजाना ही धर्म नहीं है। धर्म तो करुणा, दया का नाम है। जो ट्रकों में भरकर जानवर कत्लखाने जा रहे हैं, इन जानवरों की रक्षा करो,इनकी जान बचाओ यही सही धर्म है। -१९९७, नेमावर
  4. इन छोटे-छोटे पशुपक्षियों में भी प्राण हैं, उनके पास भी ज्ञान है, सोचने-विचारने की शक्ति है। वे भी धर्म को समझ जाते हैं और अपने जीवन की उन्नति कर लेते हैं। हमारा इन तमाम पशु-पक्षियों की रक्षा करना परम कर्तव्य है, ये जानवर प्रकृति के संतुलन को बनाते हैं। यह धरती की हरियाली जानवरों की किस्मत से है, मनुष्य की किस्मत से नहीं। यदि ये जानवर समाप्त हो जायेंगे तो धरती की हरियाली भी समाप्त हो जायेगी और हरियाली के अभाव में यह मनुष्य जाति भी जिंदा नहीं रह सकती। अत: जानवरों की रक्षा करना ही हरियाली को जिन्दा रखना है। मनुष्य ने आज जानवरों पर बहुत जुल्म करना प्रारंभ कर दिया। लगता है आज मनुष्यता मर चुकी है, पशुओं में भी इतनी क्रूरता नहीं जितनी आज मनुष्य में दिखाई दे रही है। प्राणी संरक्षण आज बहुत कठिन हो गया है जो मनुष्य का पहला कर्तव्य था। -१९९७, नेमावर
  5. भारतीय इतिहास और दण्ड संहिता कहती है, हिंसा को रोकने के लिए दण्डित करना चाहिए, हिंसक को समाप्त करने के लिए नहीं। दण्ड देना बुरा नहीं लेकिन क्रूरता के साथ दण्ड नहीं देना चाहिए क्योंकि यदि अपराधी को क्रूरता के साथ दण्ड देंगे तो वह शायद कभी सुधरे परन्तु उसको विवेक के साथ दण्डित किया जाये तो सुधर भी सकता है, अहिंसक भी बन सकता है और जीव रक्षा का प्रण भी ले सकता है। दण्ड का विधान ही इसलिए किया गया है कि व्यक्ति उद्दण्डता न करे, उद्दण्डता के लिए दण्ड अनिवार्य है ताकि उद्धृण्डता रुक सके। हिंसा सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, क्रूरता के साथ धन अर्जन करना सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, जीवों को सताना, मारना सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, इस उद्धृण्डता को रोकना अनिवार्य है। भारत में यह आज बहुत हो रही है, दुधारू जानवरों को मार करके उनका मांस बेचना कितनी क्रूरता के साथ धन कमाने का साधन बना लिया गया है। भारत को इस क्रूरवृत्ति का त्याग करना चाहिए क्रूरता से राष्ट्र का भला नहीं, भारत को मांस निर्यात बंद करना चाहिए और दूध का निर्यात करना चाहिए, खून-मांस का नहीं। -१९९७, नेमावर
  6. गुरुवर आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि "यह मेरा तन भी वतन की सम्पदा है, यह शरीर भी राष्ट्रीय संपत्ति है इसका दुरुपयोग मत करो”, इससे बड़ा राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र भक्ति और राष्ट्रीयता की मिसाल और क्या हो सकती है। यह राष्ट्रीयता का जीवन आदर्श है। आज हम अपने राष्ट्र को भी अपना राष्ट्र नहीं समझ रहे हैं तो फिर इस शरीर की तो बहुत दूर की बात है। वस्तुत: हमारा यह तन राष्ट्रीय संपत्ति ही है और समझना चाहिए। प्रत्येक प्राणी का तन राष्ट्रीय संपत्ति है इतना ही नहीं चाहे वह मनुष्य हो या जानवर। वे सब राष्ट्रीय धरोहर हैं, राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होता है कि वह अपने देश की रक्षा में अपना सहयोग दे। दूसरे के तन को खाकर, वतन की रक्षा नहीं हो सकती। जब जानवर भी राष्ट्रीय संपदा हैं फिर उनका कत्ल क्यों किया जाये? राष्ट्र की उन्नति का यह अर्थ कतई नहीं हो सकता कि हम अपने अर्थ के लिए उनको समाप्त करें और विदेश से मुद्रा कमायें। मनुष्य को चाहिए कि वह जानवरों के लिए आदर्श बने। -१९९७, नेमावर
  7. ओवर कान्फीडेन्स मात्र मनुष्य में ही पाया जाता है, जानवरों में नहीं। जीवन के लिए कान्फीडेन्स चाहिए ओवर कान्फीडेन्स नहीं। पाप करने में मनुष्य जितना आगे बढ़ जाता है, उतना जानवर नहीं, सबसे अधिक क्रोध करने में, सबसे अधिक अहंकार करने में, सबसे अधिक छल कपट करने में और सबसे अधिक लालच करने में मात्र मनुष्य ही आगे रहता है जानवर नहीं, मनुष्य क्या-क्या नहीं करता, सभी कुछ तो करता हैं, इस मनुष्य ने सबको सुखा दिया है और स्वयं ताजा रहना चाहता है, यह कैसा मनुष्य है जो हरी को समाप्त करके हरियाली को चाहता है, स्वयं टमाटर की तरह लाल रहना चाहता है और दूसरों को काला करने की सोचता है। यह मनुष्य ही अतिक्रमण करता है फिर प्रतिक्रमण करता है। यह अनुसंधान तो करता है अतिसंधान भी करता है। इस प्रकार यह मनुष्य इस सृष्टि में नाश और विनाश के काम करता है। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य को अतीत के समस्त पापों का प्रायश्चित कर लेना चाहिए और अपनी आत्मा को पाप से दूर कर लेना चाहिए और हमेशा-हमेशा पाप से घृणा करना चाहिए, पापी से नहीं। -१९९७, नेमावर
  8. यदि हम अपने देश की समृद्धि चाहते हैं तो वह समृद्धि उद्यम से ही हो सकती है, ऊधम से नहीं लेकिन आज हम उद्यम कम ऊधम ज्यादा कर रहे हैं। ऊधम से दम घुटता है, हम उद्यम करें, ऊधम नहीं। यदि हम उद्यम करेंगे तो हम एक सही आदमी बन सकते हैं और सही आदमी बनने के बाद ही हमारा कदम एक आचरण की कोटि में आ सकता है अत: हम उद्यम करें, ऊधम नहीं। मांस का निर्यात करना देश में ऊधम करना है क्योंकि यह उद्यम नहीं कहलाता। आज हमारे सामने हमारा कोई उद्देश्य नहीं है, विश्व का कल्याण तभी हो सकता है जबकि उसके सामने अपना एक उद्देश्य हो, यदि उद्देश्य दृष्टि में नहीं रहता तो देश क्या, प्रदेश में भी शान्ति नहीं हो सकती। पचास वर्ष के बाद भी हमने अपना कोई उद्देश्य नहीं बनाया। आज हम आजादी की स्वर्ण जयन्ती मना रहे हैं लेकिन स्वर्ण अवसर को खोकर ! आजादी प्राप्त की हमने अपने देश की उन्नति करने के लिए, देश का विकास करने के लिए। देश में सत्य, अहिंसा, संस्कृति, संस्कार को पुन: प्रतिष्ठित करने का कितना अच्छा स्वर्ण अवसर पाया था लेकिन गुणवत्ता को समझा ही नहीं। -१९९७, नेमावर
  9. देश के राष्ट्रपति को देश की पशु सम्पदा का ध्यान होना चाहिए लेकिन आज नहीं है इसलिए नागरिकों अब जागो और मूक पशुओं की आवाज को राष्ट्रपति भवन तक पहुँचाओ ताकि वह भवन पशुओं की पुकार से हिल उठे और पशुओं का कत्ल होना बन्द हो जाए मांस नियति रुक जाए। वस्तुत: आज हमको जागृत होने की जरुरत है। यह हमारा देश युगों-युगों से सत्य अहिंसा का सन्देश देता आ रहा है हम अपने इतिहास को खोलें, अपनी संस्कृति को पहिचानें उसका अध्ययन करें। भारतीय इतिहास, संस्कृति और सभ्यता पशुवध की इजाजत नहीं दे सकती 'वध' तो 'वध' है चाहे जानवर का हो या मनुष्य का इसमें अन्तर नहीं है। आओ हम सब मिलकर अपने देश से इस पशुवध को रुकवायें। पशुवध रुकवाना ही आज की अनिवार्यता है। -१९९७, नेमावर
  10. आज आदमी के लिए पशुओं की बलि चढ़ाई जा रही है।आदमी के लिए पशुओं का कत्ल हो रहा है, देश की उन्नति के लिए पशुओं का वध हो रहा है। खून-मांस बेचकर देश की उन्नति का स्वप्न देखना, देश की बर्बादी का लक्षण है। आदमी के पास भुजाएँ हैं फिर उन भुजाओं का सही दिशा में पुरुषार्थ क्यों नहीं किया जा रहा है? आज भुजाओं से भी पैर का काम लिया जा रहा है। भला है कि आदमी के पास सींग नहीं है अन्यथा यह आदमी क्या-क्या करता पता नहीं। दूसरों के पैर तोड़कर हम अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते, मैं राष्ट्र को पंगू देखना नहीं चाहता। पशुओं के अभाव में भारत पंगू हो जायेगा, भारत कृषि प्रधान देश है यहाँ की जनता सदियों से पशुपालन और उनके माध्यम से अपना निर्वाह करती चली आ रही है कृषि उत्पादन के क्षेत्र में गौ-वंश का उपकार भुलाया नहीं जा सकता। -१९९७, नेमावर
  11. याद रखो अभिशाप सबसे बड़ा शस्त्र है। यदि इन मूक पशुओं की श्राप-बद्दुआ लगी तो यह देश तबाह हो सकता है। आज तो वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया कि हिंसा, कत्ल की वजह से भूकम्प आते हैं। आज प्रकृति में जो घटनाएँ घट रही हैं-कहीं अकाल, कहीं भूकंप, कहीं तूफान तो कहीं बाढ़ और कहीं महामारी, ये सारे रूप हिंसक कार्य के ही हैं। हिंसा से सारी प्रकृति आन्दोलित हो जाती है, क्षुब्द हो जाती है, वातावरण उत्तेजित हो जाता है, पर्यावरण नष्ट हो जाता है। यदि हमारे देश में हिंसा, कत्ल होता रहा, कत्लखाने खुलते रहे, मांस निर्यात होता रहा तो क्या हमारा पर्यावरण सुरक्षित रह सकेगा? और जब हमारा पर्यावरण ही नष्ट हो जाएगा तब हमारी उन्नति का क्या अर्थ रह जायेगा? क्या विदेशी मुद्रा पर्यावरण को बचा लेगी? जब आदमी का ही जीना मुश्किल हो जाएगा तब दुनिया की सारी सम्पत्ति किस काम की रह जायेगी? पर्यावरण और स्वास्थ्य का ठीक रहना ही मानव जाति का विकास है, पर्यावरण को बिगाड़ करके हम अपने स्वास्थ्य को जिन्दा नहीं रख सकते, अत: पर्यावरण की रक्षा के लिए हिंसा, कत्ल के काम छोड़ने होंगे, पशुओं को बचाना होगा। -१९९७, नेमावर
  12. अपने दु:खों में रोने वाले, आँसू बहाने वाले इस दुनियाँ में बहुत हैं लेकिन जो दूसरों के दुखों में रोते हैं आँसू बहाते हैं, दूसरों के आँसू पोंछते हैं, ऐसे लोगों की संख्या इस दुनिया में बहुत कम है। अब आप दूसरों के आँसू पोंछना सीखिए, अपने आँसू तो सभी पोंछ लेते हैं, अपने आंसू पोंछना धर्म नहीं, दूसरों के आँसू पोंछना धर्म है। आज दुनियाँ में बहुत आँसू हैं फिर भी हमारी आँख में आँसू नहीं आ रहे हैं, नहीं। अहिंसा की पहिचान आँखों से नहीं, आँसू से होती है लेकिन आँसू उसी आँख में आ सकते हैं जिस के दिल में करुणा होगी, दया होगी। करुणा से खाली दिल वाले की आँख में आँसू नहीं आ सकते। आज जो मूक हैं, निर्दोष हैं, अनाथ हैं, ऐसे निरीह जानवरों की आँखों में आँसू हैं, वो पशु अपनी करुण पुकार किससे कहें क्योंकि उनके पास वचन नहीं, वे बोल नहीं सकते। यदि वे मूक प्राणी बोलना जानते होते तो अवश्य किसी कोर्ट में अपनी याचिका दायर कर देते, अपने अत्याचारों की कहानी सुना देते लेकिन हम इन्सान हैं, जो बोलने-सुनने वाले होकर भी कुछ न समझ रहे हैं और न सुन रहे हैं। यही सबसे बड़ी विडम्बना है। -१९९७, नेमावर
  13. भारतीय संस्कृति में दृश्य का नहीं, दृष्टा का मूल्य है, जड़ का नहीं चेतन का मूल्य है, 'पर' का नहीं 'स्व” का महत्व है। आज हम अपनी संस्कृति को लुटा रहे हैं, मिटा रहे हैं, मात्र चंद चाँदी के टुकड़ों में। ये गाय, बैल, भैंस इत्यादि जो जानवर हैं ये जीव हैं, चेतन हैं। चेतन-धन को नष्ट करके जड़-धन की कमाई करना, राष्ट्र को समाप्त करना है। जीने का अधिकार सबकी है। यह हमारा स्वार्थ है कि हमने जानवरों को यूजलैस कह दिया। जीवन किसी का हो चाहे वह जानवर का हो या आदमी का, वह कभी यूजलैस नहीं होता। यूजलैस तो हमारा स्वार्थ होता है, हमारा अज्ञान होता, अन्याय होता है। हमारे यूजलैस स्वार्थ ने जानवरों को यूजलैस कह दिया जिसका परिणाम है कि भारत आज मांस का व्यापार करने लगा। -१९९७, नेमावर
  14. आज कितनी तेजी से जानवर कट रहे हैं यदि यही रफ्तार रही तो एक दिन सारे जानवर समाप्त हो जाएँगे और फिर नम्बर आएगा किसका? आदमी का, प्रकृति का नहीं क्योंकि प्रकृति में मांस नहीं। प्रकृति जीव तो पैदा करती है लेकिन मांस पैदा नहीं करती प्रकृति तो शुद्ध है। आज हम अपनी प्रकृति का विनाश कर रहे हैं, लोग पर्यावरण का काम बंद नहीं करते। ये कत्लखानों से सारी धरती में प्रदूषण फैल रहा है, नदियों का पानी प्रदूषित हो रहा है, वातावरण गन्दा हो रहा है प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ रहा है लेकिन हमको इसकी चिन्ता नहीं है। हम तो मात्र चिल्लाना जानते हैं, पर्यावरण बचाने का काम मात्र वृक्ष लगाने से नहीं हो सकता, हम वृक्षों को लगाने की बात करते हैं और लगाते भी हैं लेकिन पशुओं को काट रहे हैं, यह प्रक्रिया हमारे लिए घातक है, इसको हमें रोकना चाहिए। -१९९७, नेमावर
  15. जनता का भी कर्तव्य होता है कि वह ऐसे व्यक्ति का चयन करे जो अहिंसक हो। पापों का समर्थन करने वाले व्यक्ति का चयन नहीं करना चाहिए। यह प्रजातन्त्र है। यहाँ प्रजा ही अपने प्रतिनिधि का चुनाव करती है। अत: जनता को बड़े सोच विचारकर, विवेकपूर्ण उस व्यक्ति का चुनाव करना चाहिए जो प्रजा को सुख-समृद्धि के लिए व्यवस्था दे एवं देश की गरिमा को कलंकित न करे, जो पशु हत्या रोके, कत्लखाने बंद कर पशुओं का संरक्षण करे एवं अहिंसा, दया, न्याय का पालन करे। आपके वोट में बहुत शक्ति है। आप जरा विचार करो, जिनको आपने चुना है फिर उनसे यह क्यों नहीं कह रहे हो कि मांस निर्यात बन्द करो, जब तुमने शासन को बनाया है तो शासक से माँग करो कि इस देश से मांस का निर्यात तुरन्त बंद करें। यह बात आज के लिए नहीं, हमेशा के लिए याद रखें कि आप अपना वोट उसी को दें जो मांस निर्यात बंद करे। देश की हरियाली और खुशियाली की रक्षा करे। जंगल, जमीन, जानवर, जल, जनता की रक्षा करे। देश में अधर्म और हिंसा को न होने दे। -१९९७, नेमावर
  16. यह कौन-सी अर्थनीति है? दुधारू जानवरों को कत्ल करके उनका खून मांस निर्यात किया जा रहा है और गोबर विदेशों से बुलवाया जा रहा हैं। हमको विदेश से गुोबर बुलवाने की आवश्यकता ही क्या है? हम इन दुधारू जानवरों का पालन करें, उनसे दूध भी मिलेगा और गोबर भी। गायों, भैसों का पालन करें, उनसे लाभ ही लाभ है, उनसे हमको शुद्ध दूध-दही-घी की प्राप्ति होगी, जिससे हमारा स्वास्थ्य ठीक रहेगा। अत: आदमी का स्वास्थ्य और धरती का स्वास्थ्य दोनों को ठीक रखने के लिए पर्यावरण की रक्षा अनिवार्य है, गाय की रक्षा ही पर्यावरण की सुरक्षा है। अर्थ पुरुषार्थ करो लेकिन अनर्थ पुरुषार्थ मत करो। मांस निर्यात अर्थ नहीं, अनर्थ पुरुषार्थ है। उद्योग करने में हिंसा होती है लेकिन हिंसा का उद्योग नहीं होता। उद्योगी हिंसा अलग है और हिंसा का उद्योग अलग है। इसलिए तो उद्योग करो लेकिन हिंसा का उद्योग मत करो, मांस का उद्योग मत करो। मांस का उद्योग का अर्थ है निरपराधी जीवों की हत्या। यह कौन-सा न्याय है कि जो निरपराध है और उसको दण्ड दिया जाए? निरपराध को दण्ड देना यह कौन-सा लोकतन्त्र है। दण्ड संहिता होना चाहिए लेकिन अपराधी के लिए, निरपराधी के लिए नहीं। देश की पशु सम्पदा का नाश देश की कगाली का कारण है। भारत में गाय, बैल, भैंस, घोड़ा इत्यादि को धन माना जाता था और उनकी सुरक्षा की जाती थी। अनुपयोगी कहकर पशुओं को काटना छल है, कोई भी जीव, किसी का जीवन कभी अनुपयोगी नहीं होता। यदि मनुष्य पशुओं को अनुपयोगी कहता है तो क्या आदमी पशुओं के लिए अनुपयोगी नहीं है? -१९९७, नेमावर
  17. यह भारत योग प्रधान है, भोग प्रधान नहीं। अब उपयोग लगाकर योग की साधना करो। यहाँ आत्मा-परमात्मा की साधना होती है और यह आत्मा सभी के पास है, पशुओं के पास भी है फिर पशुओं का कत्ल क्यों? यह पापाचार कब तक चलेगा। याद रखो! जब किसी की अति हो जाती है तो उसकी इति भी होती है। अब पाप की इति करना है, कीमत पैसों की नहीं, कीमत तो जीवन की है। किसी के जीवन को छीनने का हमको कोई अधिकार नहीं, सबको जीने का अधिकार है। अत: किसी को मत मारो, सबको जीने दो, जीवन सबको प्यारा है, चाहे वह जानवर हो या आदमी। अत: किसी भी जीव को मत मारो। -१९९७, नेमावर
  18. मTके मरने पर बच्चे का पालन गौमाता के दूध से ही होता है। दुनिया में दो ही दूध है पहला माँ का दूध, दूसरा गौमाता का दूध। आज गाय भी खतरे में है और दूध भी। अब कायरता को छोड़ दो और पशुहत्या को रोकने के लिए आगे आओ। -१९९७, नेमावर
  19. ये पशु-पक्षी देश की अमूल्य सम्पद हैं। इनसे ही धरती की हरियाली सुरक्षित रहेगी, ये पशु जीवित रहेंगे तो यह धरती प्रसन्न रहेगी, पशुओं को मारकर धरती को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। हमारा कर्तव्य है कि हम इन तमाम पशु-पक्षियों की रक्षा करें, इनको मारें नहीं, इनको सतावें नहीं, इनको अपनी शरण दें, सेवा करें, इनकी रक्षा करें, वस्तुतः यही सच्ची धार्मिकता है। जीवों पर दया करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है, राष्ट्रीय कर्तव्य को भूलकर हम अपने राष्ट्र को उन्नत नहीं कर सकते। जिस राष्ट्र में दया नहीं है, मैं समझता हूँ उस राष्ट्र में कोई शास्त्र नहीं है क्योंकि दया से बड़ा और कौन-सा शास्त्र हो सकता है। आखिर हमारे शास्त्र-पुराण हमको दया करना ही तो सिखलाते हैं। फिर भी हमने यदि दया का पालन नहीं किया तो शास्त्रों को पढ़कर या अपने पास रखकर उनकी पूजा-आरती मात्र करने से कुछ नहीं होगा। दया से बढ़कर और कौन-सी पूजा है। जिसके दिल में दया नहीं वह आरती करके भी क्या करेगा? आरती तो दिल को साफ-कोमल करने के लिए की जाती है लेकिन कठोर दिल वाला आरती करके भी क्या प्राप्त करेगा? दया करना परमार्थ है, आज हम धर्म को बेचकर धन कमा रहे हैं, उसी का यह परिणाम है कि हमारा देश ५० वर्ष पार करके भी गरीबी को नहीं भगा सका है। -१९९७, नेमावर
  20. भारत ने कितने कत्लखाने खोल लिये, इन कत्लखानों में प्रतिदिन कितना खून हो रहा है, कितनी गायें कट रही हैं, मांस का निर्यात हो रहा है, सरकार विदेशी मुद्रा की लालच में अपनी पशु सम्पदा का विनाश कर रही है। इन पशुओं के कटने से प्रकृति असन्तुलित हो रही है, प्रकृति के प्रकोप बढ़ रहे हैं, लेकिन हमने अपने स्वार्थ के लिये यह सब अनदेखा कर दिया है, मात्र अर्थ के लिए हम अपनी प्रकृति का विनाश कर रहे हैं, परमार्थ की हमने अथीं निकाल दी है। जिस परमार्थ के लिये यह जीवन था उसी परमार्थ की आज अथीं बन गई है। याद रखो! परमार्थ की अथी बनना ही प्रलय का लक्षण है। आज हम प्रलय के निकट हैं, किस वक्त हमारे ऊपर प्रलय का प्रहार हो जावे यह कहना अनिश्चित है। भारत की आजादी के उपरान्त भारत में गाय-बैलों के कत्ल की रफतार तेजी से बढ़ गयी है। भारत में पशुओं का कत्ल करके उनके मांस को बेचकर विदेशी मुद्रा कमाने की अवैध नीति अपनाकर कृषि प्रधान देश के धवल माथे पर कलंक की काली बिन्दी लगा दी, जो भारत के लिए अभिशाप है। -१९९७, नेमावर
  21. जिस दिन मांस निर्यात रुकेगा उसी दिन सही ‘स्वतंत्रता दिवस' होगा। यह स्वतंत्रता नहीं है। स्वतंत्रता का अर्थ तो सभी जीवों को जीने का समान अधिकार दिलाना होता है। यह कौन-सी स्वतंत्रता है कि हम अपने लिए तो मानवाधिकार की बात करें और पशुओं को अनुपयोगी कहकर कत्ल कर दें। यह मानवाधिकार भी नहीं है, मानव को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी की जान पर हमला करे, किसी का जीवन छीने। जीने का अधिकार सबको है। मृत्युदण्ड भी उसी को मिलता है जिसने कोई क्रूर अपराध किया हो लेकिन ये बेकसूर पशु निरपराधी हैं, इन्होंने कोई अपराध नहीं किया है, फिर इनको बेमौत क्यों मारा जा रहा है? इस अपराध की भी सजा होना चाहिए। भारत वह राष्ट्र है जिसने हमेशा सारे विश्व को दिशा बोध दिया है और अहिंसा का सन्देश दिया है लेकिन वही भारत आज अपनी दिशा से भटक गया है। अहिंसक देश को आज अहिंसा का उपदेश देना पड़ रहा है क्योंकि उसने हिंसा को विकास का साधन समझ लिया है। जो गलत कदम है। मात्र अर्थनीति ही सब कुछ नहीं है, परमार्थनीति भी होना चाहिए। अर्थनीति देश को समृद्ध नहीं कर सकती, भौतिक सुख सुविधाएं आदमी को सुखी नहीं बना सकतीं। सुखी बनने के लिए परमार्थ नीति की आवश्यकता है। केवल अर्थनीति व्यक्ति को सन्तुष्ट नहीं कर सकती उसके साथ परमार्थ भी होना चाहिए। परमार्थ का अर्थ न्याय नीति का सहारा लेकर जीवन विकास है। हम न्याय की बात करते हैं लेकिन न्याय का काम करना नहीं चाहते, हमारे न्यायालय किसलिए हैं? न्याय और कानून की व्यवस्था हिंसा और अपराध को रोकने के लिए ही तो हैं, न कि 'शो' के लिए। फिर हमारे न्याय का क्या अर्थ है, जो हिंसा पर प्रतिबंध न लगा सके। क्या न्यायालय कत्लखाने नहीं रुकवा सकता? हिंसा को रोकने में न्यायालय की क्या भूमिका है? ये कत्लखाने हिंसा और कत्ल के ठिकाने हैं, ये कत्लखाने पर्यावरण के लिए घातक हैं और प्रदूषण, गन्दगी, फैलाने वाले हैं, इन पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। कत्लखाने मुक्त भारत का निर्माण करो, यही भारत की सही स्वर्ण जयन्ती है। -१९९७, नेमावर
  22. याद रखो! जिस दिन दया का समापन हो जाएगा, यह धरती शमशान बन जाएगी!!! दिल में दया के रहते ही हम मिल-जुलकर कुछ कर सकते हैं, दया के अभाव में मात्र आपसी टकराव ही होगा, हिंसा ही होगी इसलिए हिंसा को रोकने के लिए दिल में दया को पैदा करना होगा, दया हिंसा को रोकती है जबकि दया की कमी हिंसा को जन्म देती है। देश में दया की कमी के कारण ही कत्लखाने खुल गए हैं, यदि हम दया की कमी को दूर कर देंगे तो देश के सारे कत्लखाने बंद हो जाएँगे और अब समय आ गया है दिल में दया को जागृत करने का। यदि हमने दया की उपेक्षा की तो यह हमारे लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है। आज आवश्यकता है पशुओं को बचाने की, जो बेमौत मारे जा रहे हैं। बेकसूर, निर्दोष प्राणियों की हत्या महापाप है यह महापाप हमको रोकना चाहिए। यदि हम जीव-जन्तुओं की रक्षा नहीं कर सके तो इतने बड़े राष्ट्र की रक्षा कैसे करेंगे? जीव जन्तुओं को मारना जघन्य अपराध है। पशुवध जैसे हिंसक, क्रूर कार्य करके हम अपने राष्ट्र को उन्नत नहीं बना सकते। हिंसा से उन्नति संभव नहीं है, हिंसा को छोड़े बिना राष्ट्र उन्नत हो ही नहीं सकता। -१९९७, नेमावर
  23. यह मनुष्य मनु की सन्तान है, मनन करता है, चिन्तन करता है, विचार करता है, विचारशील है लेकिन आचारशील नहीं है। अब मनुष्य को आचारशील बनना है। आचार का अर्थ नैतिक आचरण होता है। हमको आज आचरण की आवश्यकता है मनुष्य के जीवन में आचरण की बड़ी कीमत होती है। आचरण के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं कहला सकता। कीमत मनुष्य की नहीं होती, कीमत आचरण की होती है, सदाचार की होती है, शाकाहार की होती है। यदि मनुष्य में सदाचार, सेवा, शाकाहार, सरलता नहीं तो वह मनुष्य नहीं कहला सकता। सदाचार का नाम है आदमी, सरलता का नाम है आदमी, अहिंसा का नाम है आदमी। ईमान का नाम है इंसान। मानवता का नाम है धर्म, इंसान को ईमान की पूजा करना चाहिए। भारत की प्राचीन कानून प्रणाली एवं दण्ड संहिता में दण्ड के नाम पर तीन धाराएँ थीं पहला 'हा' दूसरा 'मा' और तीसरा ‘धिक्र' इनका अर्थ यह है कि यदि किसी ने कोई अपराध कर लिया तो राजा उसको दण्ड के नाम पर मात्र ‘हा’ कहता था यानि हाय! हाय! तूने यह क्या कर लिया। बस इतने मात्र में वह अपराधी सुधर जाता था। किसी को 'मा' यानि अब ऐसा कभी मत करो और किसी को ‘धिक्र' यानि धिक्कार धिक्कार छी-छी। बस ये तीन ही दण्ड थे, न सजा थी, न जुर्माना और न फाँसी। मात्र शाब्दिक उच्चारण रूप दण्ड में ही उस समय का आदमी सुधर जाता था लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता गया उद्धृण्डता बढ़ती गई और दण्ड संहिताओं का भी विस्तार होता गया और आज तो दण्ड के नाम पर सजा है, जुर्माना है, फाँसी है, सब कुछ है लेकिन किसी भी प्रकार से अपराधों में कमी नहीं आ रही है, दिनों दिन अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। अपराधों को जन्म देने में हिंसक वातावरण का पहला हाथ है, सरकार अपराधों को रोकने के लिए कानून बनाती है लेकिन हिंसक वातावरण का स्वयं निर्माण भी करती है। यह तो सत्य है कि कत्लखानों से कभी अहिंसक वातावरण का निर्माण नहीं हो सकता। जहाँ कत्ल होता है, खून होता है, जिन्दा जीवों को मशीनों से काटा जाता है, ऐसे वध स्थानों में अहिंसक वातावरण की क्या कल्पना की जा सकती है? इन्हीं कत्लखानों की वजह से ही आदमी के अन्दर भी अनेक प्रकार के अपराध जाग रहे हैं। इन कत्लखानों ने पशुओं की चोरी करना सिखला दिया, हजारों को कसाई बना दिया, अत्याचार करना सिखला दिया। यूजलैस जानवर के नाम पर दुधारु जानवरों का भी वध होने लगा है, जवान गाय-बैल का भी कत्ल होने लगा है। एक तरफ तो सरकार गौवंश के गीत गाती है और दूसरी और कत्लखाने खोलकर गाय-बैलों का कत्ल करके उनके मांस को डिब्बों में बन्द कर विदेश निर्यात करती है और वहाँ से गोबर मंगाती है, दूध पाउडर मंगाती है यह कौन-सी नीति है? मांस निर्यात मनुष्यता के लिए अभिशाप है इसको रोकना चाहिए, कत्लखाने मानव जाति पर कलंक हैं, कत्लखाने भारतीय अहिंसक संस्कृति पर कुठाराघात है। मांस निर्यात को रोकना चाहिए, पशु बचाओ और उसके लिए हम सबको एक जुट हो जाना चाहिए। -१९९७, नेमावर
  24. शंकर का नन्दी कत्लखानों में कट रहा है और आप शंकरजी के मंदिर में पूजा कर रहे हैं। यह ठीक नहीं, अब मंदिर नहीं, कत्लखाने में कट रहे शंकर के नन्दी को बचाओ, यही सबसे बड़ी शंकर की पूजा है। पशु वध रोकना ही सबसे बड़ी पूजा है। पूजा के लिए मंदिर अनिवार्य नहीं। मंदिर तो हम अपने अंदर ही बना सकते हैं, यदि हमारे दिल में करुणा और अहिंसा की वेदी बनी है तो समझ लो अवश्य तुम्हारे अन्दर परमात्मा का मंदिर बना हुआ है और तुम उस परमात्मा की पूजा कर रहे हो। हम आज मंदिर में पूजा कर लेते हैं और समझ लेते हैं कि हमने परमात्मा को खुश कर लिया। नहीं, नहीं, जब तक हमारे अन्दर से हिंसा, क्रूरता, बर्बरता निकल नहीं जाएगी तब तक हम अपने भीतरी भगवान को नहीं समझ पायेंगे। अब मंदिर में जाकर भगवान की पूजा करने की अपेक्षा, जो कत्लखानों में पशु कट रहे हैं उन पशुओं की हत्या रोको, उनकी जान बचाओ, यही सबसे बड़ी पूजा है। पशुओं की रक्षा के लिए उनके संरक्षण के लिए हमको अपने गांव में गौशाला का अवश्य निर्माण करना चाहिए। गौशाला भी मंदिर से कम नहीं है, उस गौशाला में भी आपको परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं, वहाँ आपकी पूजा हो सकती है, वहाँ भी आपका भजन हो सकता है। अहिंसा के दर्शन आपको गौशाला में भी हो सकते हैं इसलिए आप गौशाला का अवश्य निर्माण करें। दूसरी बात यदि आपके घर में गाय, बैल, भैंस आदि जानवर हैं और जब वे वृद्ध हो जाते हैं तो आप उनको बेचें नहीं। यदि आप बूढ़े गाय-बैल आदि पशुओं को बेचते हैं तो अवश्य आप पाप के भागीदार हैं क्योंकि वे बूढ़े जानवर कसाई के यहाँ जावेंगे और वह उनका कत्ल करेगा और मांस बेचेगा। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हमने जिनसे जीवनभर काम लिया, उनसे खेती करवाई, उनका दूध पिया, अब उनको अपने माता-पिता के समान पालन पोषण करें, यही सबसे बड़ा धर्म है। -१९९७, नेमावर
  25. किसी ने मुझसे कहा महाराज १५ अगस्त को आप कोई विशेष कार्यक्रम देगें क्या? मैंने कहा मैं तो रोज १५ अगस्त मना रहा हूँ क्योंकि आप लोगों ने आजादी का दुरुपयोग किया है, मैं तो आजादी का महोत्सव प्रतिदिन मनाता हूँ, मेरे लिए १५ अगस्त रोज है क्योंकि मैंने समझा है-आजादी का सही मायना। आजादी की स्वर्ण जयन्ती का मनाना तभी यथार्थ होगा कि हम अपने देश से हिंसा, अन्याय, अत्याचार को समाप्त कर दें और अहिंसा, न्याय, सदाचार को अपने जीवन में उतार लें। यदि हमारे जीवन में अहिंसा नहीं, सत्य नहीं, न्याय नहीं, सदाचार नहीं तो फिर हम अपने देश को सुरक्षित नहीं रख पायेंगे क्योंकि देश की रक्षा, सत्य अहिंसा न्याय सदाचार से ही होगी, अकेले राष्ट्रीय जश्न मनाने और गीत गाने से नहीं होगी। -१९९७, नेमावर
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