भारतीय इतिहास और दण्ड संहिता कहती है, हिंसा को रोकने के लिए दण्डित करना चाहिए, हिंसक को समाप्त करने के लिए नहीं। दण्ड देना बुरा नहीं लेकिन क्रूरता के साथ दण्ड नहीं देना चाहिए क्योंकि यदि अपराधी को क्रूरता के साथ दण्ड देंगे तो वह शायद कभी सुधरे परन्तु उसको विवेक के साथ दण्डित किया जाये तो सुधर भी सकता है, अहिंसक भी बन सकता है और जीव रक्षा का प्रण भी ले सकता है। दण्ड का विधान ही इसलिए किया गया है कि व्यक्ति उद्दण्डता न करे, उद्दण्डता के लिए दण्ड अनिवार्य है ताकि उद्धृण्डता रुक सके। हिंसा सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, क्रूरता के साथ धन अर्जन करना सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, जीवों को सताना, मारना सबसे बड़ी उद्धृण्डता है, इस उद्धृण्डता को रोकना अनिवार्य है। भारत में यह आज बहुत हो रही है, दुधारू जानवरों को मार करके उनका मांस बेचना कितनी क्रूरता के साथ धन कमाने का साधन बना लिया गया है। भारत को इस क्रूरवृत्ति का त्याग करना चाहिए क्रूरता से राष्ट्र का भला नहीं, भारत को मांस निर्यात बंद करना चाहिए और दूध का निर्यात करना चाहिए, खून-मांस का नहीं।
-१९९७, नेमावर