शिल्पी के समक्ष वीर रस को भी कायर की भाँति पीठ दिखाते युद्ध भूमि से लौटते, रौद्र रस को पीड़ित के रूप में, भय रस को भयभीत के रूप में देखकर विस्मय रस (आश्चर्य, अचम्भा) भी आश्चर्यचकित रह गया। उसकी पलकें भी अपलक रह गई, मुख से शब्द नहीं निकले, उसकी भूख भी मन्द पड़ गई। विस्मय की दशा देख श्रृंगार रस के मुख का पानी भी सूखने लगा, विषयी भूख मन्द पड़ना-किसी कार्य के प्रति उत्साह समाप्त होना।
मानवों को सुख देने वाली श्रृंगार-कथा भी फीकी, प्रकाश रहित हो गई। दीर्घ श्वांस लेता शिल्पी मन ही मन विचार करता है कि हे भगवान्! पञ्चेन्द्रियों के विषयों को भोगने में लीन, अन्ध बने हुए विषयान्धों को समीचीन प्रकाश, आत्म तत्व का बोध कब मिलेगा?
फिर शिल्पी के मुख से निकलते हैं कुछ शब्द-जो रस, स्पर्श, गंध और रूप से रहित निज आत्मा को चाह रहा है, उसे इन बाहरी रसादि में रस यानी आनंद कहाँ आवेगा। इन्द्रियों को तृप्त करने की यह पद्धति कब से चल रही है किन्तु अब -
"यह चेतना मेरी
जाया चाहती है,
दर्श में बदलाहट,
काम नहीं अब,
.....राम मिले ! "(प्र. 140)
मेरी चेतना सही जीवन-साथी, दृष्टि में बदलाहट/परिवर्तन चाहती है। अब आतमराम मिले, विषय-वासना काम की चाह नहीं रही इस मन में। बाहर चल रही विषयों की गरम-गरम हवाओं से मेरी यह देह जल-सी गई है, अब धूप नहीं शान्ति की छाँव से परिपूर्ण स्थान / शिवधाम मिले।
इस बीच शिल्पी का भीतरी पुरुषार्थ, चिन्तन-मनन भी बढ़ता जा रहा है। कामदेव-मदन का प्रताप, तेज कम तो हुआ ही; तत्व का विचार, चिन्तन-मनन बहुत हुआ, अभी भी चल रहा है। मन थकता-सा, तन रुकता-सा लगता है, शिल्पी भावना भाता है, अब झाग यानी ऊपर-ऊपर दिखने वाला फेन नहीं किन्तु पाग यानी सारभूत मधुर वस्तु/ तत्त्व मिले।
मैं मानता हूँ कि मैं भी अनन्त गुणों का धारी परमात्मा बन सकता हूँ किन्तु यह भव्य आत्मा आखिर इसी रूप में कब तक रहेगी। कब इसके भीतर से शुद्धोपयोग की सुगंध फूटेगी। निज तत्व के उद्घाटन / प्रकटीकरण में बाधक ये ज्ञानावरणादि कर्म कब नष्ट होवेंगे? अब राग रंग नहीं किन्तु वीतरागता, वीतराग विज्ञान मिले, बस यही भावना है।
1. ज्ञानावरणादि कर्म – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतराय ।