प्रकृति माँ की दशा देखकर लेखनी का भी गला भर आता है और वह माँ की बातों का समर्थन करती हुई कहती है - विश्व की विचित्रता को देखकर कभी तो दया आती है और कभी तो गुस्सा, क्या करूं हँसू की रोऊँ, समझ नहीं आता। संसार इस रोती-बिलखती लेखनी को देखता है परखता भी है, भगवान् पर इसका विश्वास भी है भगवान् की बात भी सुनता, समझता है किन्तु लगता है यह सब प्रभाव मस्तिष्क तक ही है, हृदय तक नहीं पहुँचा। तभी तो आज का मानव दिल से कम दिमाग से ज्यादा काम कर रहा है। और इसी कारण इसके चरण स्थायी से हो गए हैं मोक्षमार्ग पर बढ़ नहीं पा रहे हैं।
"आदिम ब्रह्मा, आदिम तीर्थंकर
आदिनाथ से प्रदर्शित पथ का
आज अभाव नहीं है माँ !
परन्तु,
उस पावन पथ पर
दूब उग आई है खूब
वर्षा के कारण नहीं,
चारित्र से दूर रह कर
केवल कथनी में करुणा रस घोल
धर्मामृत-वर्षा करने वालों की
भीड़ के कारण !" (पृ. 151)
यद्यपि प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ प्रभु द्वारा कथित मोक्षमार्ग का आज अभाव नहीं है, किन्तु उस पवित्र मोक्षमार्ग में हरी घास ज्यादा उत्पन्न हो गई है, इसका कारण जल की वर्षा / बरसात नहीं अपितु पथ पर चलने वालों का अभाव। संयम से दूर रहकर केवल प्रवचनों में दया और आत्मा की बात करने वाले असंयमियों की भीड़ के कारण।
जो दूसरों को मार्ग बता रहा है, उसे स्वयं मार्ग दिख नहीं रहा, क्योंकि जिसे मोक्षमार्ग सम्बन्धी शास्त्र पढ़ाये जा रहे हैं, पथ दिखाया जा रहा है वह स्वयं मार्ग में चलना नहीं चाहता अपितु दूसरों को चलाना चाहता है। ऐसे चालाक चालकों की संख्या कितनी है? हम गिन नहीं सकते। क्या करूं माँ - इस संसार में जो घटित हो रहा है उसे देखती हूँ/अनुभव करती हूँ फिर रो लेती हूँ, और कागज में उसे लिख देती हूँ माँ, लेखनी जो रही मैं।
1. दूब = घास।
2. संयम = इन्द्रिय और मन को वश में करना, जीवों की हिंसा नहीं करना।
3. असंयमियों = संयम से विपरीत प्रवृत्ति करने वाले।