माँ प्रकृति से उत्पन्न करुणा की पीड़ा, लेखनी के वक्तव्य को सुनकर भी शिल्पी अप्रभावित निश्चेष्ट-सा खड़ा रहा। लगता है उसने करुण रस को भी स्वीकार नहीं किया। करुणा का प्रभाव उसके मन पर कुछ भी नहीं पड़ा। यह स्थिति देख, इतनी बाल की खाल तो मत निकालो अर्थात् ज्यादा सूक्ष्म दृष्टि से परीक्षा मत करो कहती हुई करुणा रो पड़ी।
इस पर शिल्पी कहता है करुणा से - रोना करुणा का स्वभाव नहीं है, ये बात अलग है कि करुणा जब प्रकट होती है तो आँखें भींग ही जाती हैं। में मानता हूँ कि मन में करुणा करने का भाव होना और दूसरों पर करुणा करना दोनों में बड़ा अन्तर होता है। माँ के मन में बच्चों के प्रति करुणा होना मोह का परिणाम है जबकि दूसरों को दुखी देखकर उनके दुख दूर करने के परिणाम रूप करुणा, सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। फिर भी बात-बात में रोना, दुखी होना अच्छा नहीं, इससे आर्तध्यान बढ़ता है और धर्मध्यान नष्ट होता है।
यह बात मैं भी समझता हूँ कि करुणा छोड़ने योग्य नहीं अपितु मोक्षमार्गी के लिए भी ग्रहण करने योग्य है किन्तु इसकी अपनी सीमा भी होती है। समझना चाहो तो उदाहरण से समझ सकती हो - खेत में खाद डालने पर बीज को ताकत मिलती है और अच्छी फसल पैदा होती है किन्तु खाद में ही बीज डाल दें तो बीज ही जल जाएगा। यदि बीज धरती के ऊपर ही ऊपर हो तो अंकुरित नहीं होगा जब तक उसके ऊपर मिट्टी न डाली जाए किन्तु ज्यादा मिट्टी डाल दिया तो बीज भी दम तोड़ देगा अर्थात् भीतर ही भीतर नष्ट हो जाएगा। “अति सर्वत्र वर्ज्यत” सभी जगह अति का त्याग होना चाहिए। इसी प्रकार करुणा में भी अति न हो, उसकी मर्यादा को समझना अनिवार्य है।
जो करुणा करता है वह भले ही अहंकारी न बने किन्तु स्वयं को बड़ा अवश्य समझता है तथा जिस पर करुणा की जावे वह अपने आपको कमजोर हलका भी मानता है। दोनों का मन एक दूसरे से प्रभावित होता है। शिष्य शरण लेकर और गुरु शरण देकर कुछ नया अनुभव करते हैं पर यह सही-सही सुख नहीं है। हाँ! दुख मिटने और सुख मिलने का द्वार अवश्य यहाँ मिल जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया जावे तो-
"करुणा करने वाला
अधोगामी तो नहीं होता,
किन्तु
अधोमुखी यानी
बहिर्मुखी अवश्य होता है।
और
जिस पर करुणा की जा रही है, वह
अधोमुखी.... तो नहीं,
ऊध्र्वमुखी अवश्य होता है।
तथापि,
ऊध्र्वगामी होने का कोई नियम नहीं है।" (पृ. 155 )
दूसरों पर करुणा करने वाला नीचे की ओर गमन करने वाला तो नहीं किन्तु नीचे मुख वाला यानी आत्म स्वभाव से च्युत, पर को ग्रहण करने वाला, समयसार (द्रव्यानुयोग) के अनुसार बहिरात्मा, बहिर्मुखी अवश्य होता है और जिस पर करुणा की जाती है उसका मुख नीचे से ऊपर की ओर (नीच गतियों पर्यायों से उच्चगति-पर्यायों) अवश्य हो जाता है किन्तु उसकी यात्रा भी ऊपर (सिद्धशिला) की ओर ही हो यह नियम नहीं है, यह तो उसके स्वयं अपने उपादान एवं पुरुषार्थ पर आधारित है। हम एक सीमा तक ही दूसरे के लिए सहारा बन सकते हैं चलना तो उसे ही पड़ेगा।
वैसे भी करुणा दो प्रकार की होती है, पहली विषय कषायों के वशीभूत हो, पञ्चेन्द्रिय के विषय को ग्रहण करने वाली विषय – लोलुपनी, इसकी चर्चा यहाँ नहीं है। दूसरी विषय-कषायों को नष्ट करने वाली, सम्यक् शिव-पथ दिखाने वाली विषय-लोपनी, दिशा-बोधिनी। इसकी चर्चा यहाँ की जा रही है, करुणा का स्वाद यदि जानना चाहते हो तो आँसुओं के समान खारा ही है। इसलिए जिसके मन में करुणा है, वह शान्त रस से भी भरा होगा ऐसा मानना बड़ी भूल है।
1. आध्यात्मिक दृष्टि = आत्म तत्व की मुख्यता/निश्चय से किया गया विचार।
2. समयसार = कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ।