अर्थ और परमार्थ के सूक्ष्म भेद को स्पष्ट करता हुआ शिल्पी कहता है- कि सोना तौलने वाली तराजू अतुलनीय है असाधारण होती है। सोना तुलता है इसलिए तुलनीय है तराजू तुलती नहीं तौलती है इसलिए अतुलनीय है। इसी प्रकार परमार्थ अतुलनीय है, उसे कभी भी अर्थ की तुला में तौलना नहीं चाहिए। परमार्थ को अर्थ से तौलना यानी युग को अनर्थ के गड़े में डालना, सही सही अर्थशास्त्र को नहीं जानना है। अर्थ का मूल्य जानने वालों को क्या यह अर्थ ज्ञात है?
इन सारे प्रसंगों में संगीत के स्वर को किसी ने याद ही नहीं किया। यूँ धीमी आवाज में श्रृंगार कुछ बोलता है - स्वर को प्रकाशमान ईश्वर (ब्रह्मा) की उपमा दी गई है। ईश्वर शब्द में भी स्वर छिपा है फिर स्वर के बिना शाश्वत, प्रकाशमान सुख का अनुभव कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
"स्वर संगीत का प्राण है
संगीत सुख की रीढ़ है
और
सुख पाना ही सबका ध्येय
इस विषय में सन्देह को गेह कहाँ?
नि:संदेह कह सकते हैं-
विदेह बनना हो..... तो
स्वर की देह को स्वीकारता देनी होगी
हे देहिन ! हे शिल्पिन् !" (पृ. 143)
संगीत ही सुख का साधन / आधार है, इस विषय में किसी भी प्रकार से संदेह को स्थान नहीं देना चाहिए। अत: यदि देह रहित शुद्ध दशा, सच्चा सुख पाना चाहते हों तो, हे देहधारी पुरुष! हे शिल्पी!! स्वर/संगीत को अपनाना ही होगा......।