श्रृंगार के गालों में चाँटे लगाने के बाद करुणामयी माँ की आँखों में आँसू आ गए। बूंद-बूंद कर बाहर आते आँसुओं के रूप में करुणा जगती के कणकण, जन-जन से कुछ कह रही है - प्रकृति की गोद में तुमने जन्म लिया तुम्हारा क्या कर्तव्य है और तुम क्या कर रहे हों। तुम इतने बड़े समझदार होकर भी आपस में लड़े-भिड़े, एक दूसरे को भला-बुरा कहा, मारने मरने को तैयार हुए इससे प्रकृति माँ का हृदय बुरी तरह आहत हुआ।
अरे! जीवन को युद्ध का मैदान नहीं बनाओ अपितु माँ ने आज तक जो दुख-दर्द झेले हैं, उन्हें दूर करने का प्रयास करो, पीड़ा के घाव सुखाओ। दयावान बनो, जो दया से रहित (क्रूर) हैं, उस पर भी दया करो, भयभीत को अभयदान दो, हमेशा सकारात्मक अच्छे विचार रखो, अमृत के समान मीठे वचन मुख से निकाला करो। हे चेतन मानव! सबको मिलाकर जीने की बात किया करो और प्रकृति का जो तुम्हारे ऊपर उपकार है, उसे चुकाने का पुरुषार्थ करो।
"अपना ही न अंकन हो
पर का भी मूल्यांकन हो,
पर, इस बात पर भी ध्यान रहे
पर की कभी न वांछन हो
पर पर कभी न लांछन हो !" (पृ. 149)
हमेशा अपने को ही श्रेष्ठ मानकर, अपनी-अपनी ना चलाया करो, कभी दूसरों को भी आदर की दृष्टि से देखने, उनकी बात सुनने का मन बनाया करो। और इस बात पर भी विशेष ध्यान रखो कि अपने से पर वस्तु अथवा अपने स्वामित्व के बाहर की वस्तु की कभी चाह न हो। पर से कुछ अपेक्षा भी न हो क्योंकि पर से की गई अपेक्षा ही महान् दुख का कारण बनती है और कभी भी दूसरों पर दोषारोपण, उनकी निंदा नहीं किया करो। प्रकृति माँ का मन कभी न दुखाया करो। अन्त में इतना ही कहना है –
"जीवन-जगत् क्या?
आशय समझो, आशा जीतो!
आशा ही को पाशा समझो!" (पृ. 150)
संसार का यथार्थ स्वरूप क्या है? इसे समझने का पुरुषार्थ करो, गुरुओं का अभिप्राय, जीवन का उद्देश्य क्या है? समझो। इच्छाओं को जीती, क्योंकि ये इच्छाएँ ही सांसारिक बन्धन का मूल कारण है ऐसा मानो।