Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 37. दशा : करुणा और शान्त रस की

       (0 reviews)

    उछलती हुई नहर के समान करुणावान की मनोदशा होती है जो खेत में पहुँचती फसल की प्यास बुझाती कुछ समय में बंद हो, सूख जाती है, किन्तु बहने के मार्ग को छोड़ मंजिल (सागर) को प्राप्त कर सुख पाने वाली सरिता के उज्ज्वल जल के समान शान्त रस के धारक की मनोदशा होती है।

     

    शिल्पी कहता है कि - करुणारस और शान्तरस के विषय को कुछ और स्पष्ट करना चाहता हूँ, क्योंकि बहुतायत मोक्ष पुरुषार्थी यहीं पर गलती कर जाते हैं। दया, करुणा को ही धर्म की चरम सीमा, साधना का अंतिम लक्ष्य मान लेते हैं।

     

    अत: आगे सुनो-करुणा की दशा बहते हुए जल के समान तरल, पर से प्रभावित होने वाली होती है, धूल में गिरते ही जल दल-दल (कीचड़) में बदल जाता है। अग्नि से प्रभावित हो शीघ्र ही शीतलता को भूल उबल जाता है फिर स्वयं जलता है और औरों को जलाता भी, किन्तु शान्त रस बहता नहीं किसी के बहाव में आकर, जमाना पलटने पर भी पलटता नहीं बर्फ के समान उसकी स्थिति होती है। बर्फ धूल में गिरने पर भी धूल को स्वीकार नहीं करता बदलता नहीं और इतना ही नहीं आग में रखने पर भी गरम नहीं होता, ना स्वयं जलता ना ही औरों को जलाता। इससे यह भी ध्वनि निकलती है कि-

     

    "करुणा में वात्सल्य का

    मिश्रण सम्भव नहीं है

    और

    वात्सल्य को हम

    पोल नहीं कह सकते

    न ही कपोल - कल्पित।" (पृ. 157)

    करुणा में वात्सल्य भाव का भी मिश्रण सम्भव नहीं, किन्तु वात्सल्य को हम खाली कल्पना या खोखला नहीं कह सकते कारण वात्सल्य विशाल हृदय वाली माँ के सुडौल गालों पर खिलता है, देखने को मिलता है। करुणा के समान ही इसमें दो की आवश्यकता होती है कोई वात्सल्य देता है तो कोई वात्सल्य लेता है, इसी कारण अद्वैत (एक मात्र) यहाँ उपस्थित नहीं रहता है, अकेलेपन में इसका व्यतिकरण (प्रकट होना) नहीं होता।


    यह वात्सल्य ममता सहित खुशमिजाजी (प्रसन्न स्वभाव वाला) होता है। साधर्मी और एक जैसे आचार-विचार वालों पर ही इसका प्रयोग होता है, मन्द मधुर मुस्कान के बिना इसका प्रकटीकरण सम्भव नहीं किन्तु इतना भी निश्चित है कि कुछ क्षण मधुर मुस्कान के बाद वह नष्ट भी हो जाता है। वात्सल्य ओस के कणों के समान है जिससे ना ही प्यास बुझती है और ना ही इच्छा, बस जीवन ही धीरे-धीरे व्यतीत होता चला जाता है। फिर तुम ही बताओ वात्सल्य में शान्त रस का अन्तभाव कैसे संभव हो सकता है।



    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...