Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. एक बार विहार करते हुए चले जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ी जो कि बहुत गहरी थी। पुल पर से सारा संघ गुजर रहा था। नदी बहुत गहरी होने के कारण बहुत शांत लग रही थी। उसमें बहुत कम तरंगें उठ रही थी। तब मैंने आचार्य श्री जी से कहा किआचार्य श्री जी ये नदी कितनी शांत लग रही है। इसमें लग ही नहीं रहा है कि जैसे तरंगें उठ रही हों। तब आचार्य श्री ने कहा कि- नदी में पानी की गहराई जितनी अधिक बढ़ती जाती है तरंगे उतनी ही शांत होती जाती है। ठीक उसी प्रकार जब हमारा ज्ञान, आत्मा तत्त्व की गहराई को जान लेता है तो उसमें भी संकल्पविकल्प की तरंगें शांत होती जाती हैं। संकल्प विकल्प में लगा हुआ ज्ञान अध्यवसाय कहलाता है। इससे कर्म का बंध होता रहता है। अपने मन को समझाओ ताकि कर्म बंध से बच सको। निर्ममत्व को अपनाओ मात्र ज्ञाता दृष्ट बनों अपने धान को आत्मा को जानने में लगाओ दूसरे के परिचय करने में नहीं। हर्ष विषाद से उपर उठ जाने पर गम्भीरता आ ही जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती है। वर्तमान का सदुपयोग करो, संकल्प-विकल्पों में मत उलझो। जब हाथ से वर्तमान छूट जाता है तो भगवान् भी छूट जाते हैं। जो बाहरी संकल्प-विकल्प से दूर हो गये हैं, वही समयसार के अमृत को पीने वाले होते हैं। जमाने की मत सुनो अपना काम करते जाओ।उदाहरण देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि किसी ने आपको गधा कह दिया तो आप बुरा मान जाते हो इसका अर्थ है आप हर किसी की बात मान लेते है जिनवाणी माँ आपको चैतन्य स्वरूप आत्मा हो ऐसा कहती है आप इस बात को नहीं मानते किसी के मुख से निकला शब्द कान पर पड़ा और चला जाता है लेकिन तत्वज्ञान के अभाव में अज्ञानी का मन उन शब्दों को याद रख लेता है और खोटे संकल्प विकल्प करता रहता है तब किसी ने पूछा आचार्य श्री जी इस समय हमें क्या करना चाहिए- आचार्य श्री जी ने कहा कि अपने को क्या करना है बाहरी संकल्प, विकल्पों में नहीं उलझना बस यही काम करना है आत्मा के हितकारी तत्वों में लगे रहना ही सच्चे साधक का काम है बाह्य में संसार और कुछ है ही नहीं संकल्प विकल्पों की तरंगों का नाम ही संसार है संसारी प्राणी इन तरंगों में ही उलझा रहता है |
  2. भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों का प्रकरण चल रहा था तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- बूंद-बूंद से घड़ा भरता है। कछुआ चाल चलते हैं तो भी मेले में पहुँच ही जाते हैं। इन बातों को ध्यान में रखते हुए थोड़ा-थोड़ा त्याग सभी आवकों को समय-समय पर करते रहना चाहिए। जिससे कुलाचार एवं श्रावक धर्म नष्ट होता हो, ऐसी वस्तुओं का दूर से ही त्याग कर देना चाहिए। तब मैंने कहा- आचार्य श्री जी जिनका इन चीजों का पहले से ही त्याग हो, उन्हें क्या करना चाहिए? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- जिनका अभक्ष्य का त्याग है, उन्हें भक्ष्य पदार्थों का त्याग करना प्रारंभ करना चाहिए। अभक्ष्य का त्याग वास्तव में त्याग में नहीं आता। सही त्याग तो भक्ष्य का त्याग है। उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे सभ्य लोग कभी गाली तो देते ही नहीं हैं एवं बहुत कम बोलते हैं। इसी प्रकार मधु, मद्य, मांस का त्याग बालकों का त्याग माना जाता है। बड़ों को तो इससे और आगे बढ़ना चाहिए। अजान फल (जिस फल के बारे में जानकारी नहीं है) का भी त्याग होना चाहिए। क्योंकि वह स्वास्थ्य के लिए अहितकारी हो सकता है।
  3. किसी ने आचार्य श्री जी से पूछा कि- ज्ञान को ही मोक्ष का कारण मानने में क्या बाधा है। ज्ञान या जानकारी होना पर्याप्त है। मोक्षमार्ग के लिए? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- मोक्षमार्ग में कोरा ज्ञान काम नहीं करता जब तक कि- ज्ञान के अनुसार आचरण न हो। ज्ञान, ध्यान और संयम इन तीनों से मोक्ष की सिद्धि होती है। ज्ञान, ध्यान के साथ भी यदि वैराग्य और संयम नहीं है तो कल्याण नहीं हो सकता। जैसे पेट्रोल, लाइट होने पर गाड़ी में ब्रेक होना भी आनिवार्य है। दूसरी बात यह है कि- रसोई का ज्ञान कर लेने से भूख नहीं मिट जाती बल्कि भोजन करने से भूख मिटती है। मोक्षमार्ग में ज्ञान कम हो तो चल जाएगा लेकिन चारित्र निर्दोष होना चाहिए। कम ज्ञान एवं धीमे चाल से चलने वाला कछुआ भी अधिक ज्ञान और तेज रफ्तार वाले अभिमानी एवं सोते हुए खरगोश से अपनी मंजिल पर पहले पहुँच जाता है। एक बात हमेशा याद रखें- सद्गति में ले जाने की शक्ति ज्ञान में नहीं, चारित्र में है। ज्ञान होने के बाद भी बार-बार अशुचि भावना का चिंतन करना चाहिए तभी वैराग्य स्थिर रह सकता है। जैसे कंठस्थ होने पर भी यदि बार-बार पाठ नहीं किया जाता तो वि यि को भूल जाते हैं। वैसे ही शरीर के स्वभाव का चिंतन न किया जाए तो वैराग्य स्थिर नहीं रह सकता। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे डॉक्टर शरीर की अपवित्रता के बारे में अच्छी तरह से जानते हैं, क्योंकि वे शरीर के प्रत्येक अंग की चीड़ा-फाड़ी करते रहते हैं फिर भी उन्हें वैराग्य नहीं आता। इसी प्रकार मोक्षमार्ग में कोरा ज्ञान काम नहीं करता। जानना-मानना अलग बात है और उस पर अमल करना अलग बात है। साधु शरीर से धर्म साधना करते हुए भी उससे ममता नहीं रखते। यह उनका बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। समझो उनका हमेशा स्वाध्याय चल रहा है। आत्मा और शरीर के भेद को जानकर शरीर से ममत्व भाव नहीं रखना ही तो ज्ञानी का लक्षण है। सम्यग्दृष्टि के पास ज्ञान और वैराग्य ये दो शक्तियाँ हुआ करती हैं। जैसे युद्ध में योद्धाओं के पास तलवार और ढाल दोनों चीजें हुआ करती हैं। तभी वह ढाल से प्रहार को रोकता हुआ, तलवार से सामने वाले पर प्रहार करता हुआ युद्ध में विजयी होता है। वैसे ही ज्ञान और वैराग्य मोक्षमार्ग में कर्म रूपी योद्धा से लड़ने के लिए तलवार और ढाल का काम करते हैं। ज्ञान रूपी तलवार से कर्मशत्रुओं पर प्रहार करो और वैराग्य की ढाल से उसके प्रहार से बचाव करो।
  4. पुराण ग्रन्थों में परिणामों के फल के वैचित्य (विविधता) के बारे में पढ़ने को मिलता है कि वस्तु एक ही रहती है, लेकिन व्यक्ति के भावों के अनुसार सभी को अलग-अलग फल देती है। दुर्भावना वाले को फूल की माला भी काला नाग बन जाती है और सद्भावना वाले को कालानाग भी फूलों की माला बन जाती है। जीव का पुण्य और शुभ परिणाम ही है जो मिट्टी को सोना बना देता है और वह जीव का पाप और अशुभ परिणाम ही हैं जो सोने को भी कोयला बना देते हैं। एक दिन आचार्य श्री जी बता रहे थे कि- परिणामों के माध्यम से कर्मों में भी परिवर्तन किया जा सकता है। पवित्र, प्रासुक भोजन भी क्रोध की दशा में ग्रहण किया जाए तो जहर का काम करता है और वही भोजन समता के साथ ग्रहण किया जाता है तो अमृत का काम करता है। इसलिए हमें अपने कर्मों और परिणामों पर श्रद्धान रखना चाहिए फिर अपने आप कर्मों में परिवर्तन आने लगेगा, असाता साता में परिवर्तित हो जावेगी। यही तो है परिणाम-प्रत्यय। आचार्य श्री जी ने अपने ही जीवन का संस्मरण सुनाते हुए कहा है की एक बार एक वृद्ध श्रावक हमारे पास आये थे। उन्हें केंसर था। उन्हें डॉक्टर ने मना कर दिया था। उन्होंने निराश होकर मुझसे। निवेदन किया कि- हे गुरुवर! आप ही हमें कुछ इलाज बताइये। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि हमारे पास कोई भी ग्रहण करने की नहीं बल्कि त्याग करने की दवाई है, लेना हो तो ले लो। उन्होंने कहा- आप जो कहेंगे उसके लिए मैं तैयार हूँ। तब मैंने कहा कि रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दो। तब उन्होंने कहा आचार्य श्री जी रात्रि में दवाई लेनी पढ़ती है। तब मैंने कहा- जब डॉक्टर ने मना कर दिया है तो दवाई लेने से क्या लाभ ? तो वह बोले ठीक है आचार्य श्री जी हम आजीवन रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हैं। कुछ दिन बाद वह वृद्ध श्रावक दर्शन करने आए तो मैंने उनसे पूछा कि- नियम अच्छी तरह चल रहे हैं। तब उन्होंने कहा- जी आचार्य श्री जी मेरा तो आपकी कृपा से केंसर ही केन्सिल हो गया अर्थात् रोग ठीक हो गया। आचार्य श्री जी ने कहा- यह है परिणाम-प्रत्यय का फल। परिणामों से चेतन–अचेतन सभी में परिवर्तन लाया जा सकता है। गरीब भी इस चिकित्सा को अपना सकता है बस धैर्य और श्रद्धान होना चाहिए।
  5. किसी ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि हम लोग आत्म-धर्म तक कैसे पहुँच सकते हैं ? तब आचार्य श्री ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- आत्म-धर्म तक पहुँचने के लिए पहले कर्म रूपी नदी को पार करना पड़ेगा। तभी हम आत्म–धर्म तक पहुँच सकते हैं। आत्मा के साथ वार्ता करने के लिए बीच में कर्म से वार्ता करना अनिवार्य है। जैसे कि आपको मधुवन जाना है तो ईशरी उतरना अनिवार्य होता है। यह काम कायरों का नहीं वीरों का है। कर्मों से पार होना ज्ञानियों का काम है, अज्ञानियों का नहीं संयमियों का काम है- असंयमी का नहीं। धर्मात्मा इस बात के ऊपर रोता है कि देखो ये संसारी प्राणी संसार के रहस्य को नहीं समझता हुआ दुःख पा रहा है। ऐसा सोचता हुआ उसे सही लाइन पर लाने का प्रयास करता है। कर्मों को शिथिल बनाने एवं कर्मों को और सघन बनाने के लिए एक मात्र कारण हैं- अपने ही परिणाम निमित्त अपने आप नहीं बनता किन्तु बनाना पड़ता है। मित्र वही है जो मित्र को पूर्ण रूप से सक्षम बना देता है।
  6. व्रती अपने व्रतों को सुरक्षित रखने के लिए तीन गुप्ति रूपी घर में ही रह जाते हैं। जैसे कि होली से बचने के लिए अपने घर में भी सुरक्षित रहता है। इसी बात को समझाते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- मुनि महाराज जहाँ कहीं भी रहते हैं लेकिन कर्मास्रव की होली से अवश्य बचते हैं। जैसे आप होली के समय होली से बचते हैं, लेकिन होली से बचने के लिए जिस व्यक्ति की अंदर से स्थिरता नहीं रहती वह बार-बार सोचता है कि- थोड़ा-सा खिड़की से तो देख लूँ और देखते-देखते बाहर खड़ा व्यक्ति रंग की पिचकारी छोड़ देता है तो वह भी नियम से रंग जाता है, लेकिन जो पूर्ण रूप से स्थिर चित्त हो जाता है तो वह रंग से बच जाता है। उसी प्रकार यदि उपयोग में स्थिरता नहीं होती तो आत्मा कर्म रूपी रंग से बच नहीं सकती। इसीलिए मुनिराज ऐसे स्टोररूम में बैठ जाते हैं स्थिर चित्त होकर कि कर्म बंध नहीं होता। कर्म का उदय मात्र बंध के लिए कारण नहीं होता जैसे कि- होली का समय मात्र आने से रंग से रंग नहीं जाते। इस रहस्य को जब तक समझ में नहीं आता तब तक इस संसार से पार नहीं हो सकता। इस संस्मरण से व्रतियों को शिक्षा मिल ही जाती है लेकिन श्रावकों को भी यह शिक्षा ले लेनी चाहिए कि- एक बूंद अनछने पानी में विज्ञान के अनुसार 36,450 जीव होते हैं तो जीव रक्षा के लिए एवं पानी की बचत के लिए एवं शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए कभी भी होली नहीं खेलनी चाहिए।
  7. लोहा तब तक सुरक्षित रहता है, जब तक उसमें जंग नहीं लगती। जंग लगने के बाद लोहा सड़ जाता है एवं उसकी कोई कीमत नहीं रह जाती। समझदार व्यक्ति लोहे को जंग तो लगने ही नहीं देते, बल्कि जिस लोहे में जंग लगी हो, उस लोहे से अपने लोहे को बचाकर रखते हैं। इस प्रकार का उदाहरण देते हुए आचार्य श्री जी हम सभी को उपदेश देते हैं कि जिस प्रकार व्यक्ति जंग लगे हुए लोहे से बच जाते हैं और हमेशा अपनी सुरक्षा में प्रयत्नशील रहते हैं। इसी प्रकार मुनियों एवं व्रतियों को असंयम रूपी जंग से एवं असंयमियों से हमेशा अपने आप को दूर एवं सुरक्षित रखना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि- या फिर हम अपनी आत्मा को स्वर्ण के समान बना लें तो फिर उसमें कभी असंयम की जंग नहीं लगेगी। सोना, पानी या कीचड़ में भी पड़ा रहे तो भी उसमें जंग नहीं लगती। सोने जैसी पवित्रता एवं मजबूती हमारी आत्मा में प्रकट करें तभी हम पर पदार्थों से अप्रभावित रह सकते हैं। एक बात हमेशा याद रखो, जो जानता, देखता है, वह (आत्मा) संसारी प्राणी को अच्छा नहीं लगता बल्कि जो देखने जानने में (जड़ पदार्थ) आ रहे हैं वह अच्छे लगते हैं यही तो सबसे बड़ी बीमारी है, पहले इस बीमारी को दूर करो।
  8. आचार्य श्री जी रात्रि भोजन त्याग का वर्णन करते हुए कह रहे थे कि- रात्रि भोजन त्याग से एक वर्ष में छ: माह उपवास का फल मिलता है। इसलिए श्रावकों को रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। श्रावकों को आचार्यों ने दिन में ही दो बार भोजन करने को कहा है। एक बार खावें योगी, दो बार खावें भोगी, तीन बार खावें रोगी, इससे अधिक बार खाओगे तो जल्दी मत्यु होगी। रात्रि भोजन करने से जीव हिंसा तो होती ही है साथ ही साथ अनेक प्रकार के शारीरिक रोग एवं मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं, आलस्य बढ़ता है और स्मरण शक्ति घटती है। आचार्य श्री जी ने आगे कहा कि दिन में सोना नहीं चाहिए एवं रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। दिन में सोने से दर्शनावरणी कर्म का बंध होता है एवं रात में खाने से नरक आयु का आस्रव होता है। तब मैंने कहा कि- आचार्य श्री हम लोग बच्चों को ऐसा कहा करते है। कि- "दिन में सोना, रात में खाना, नरक में जाकर खूब रोना।" इस वाक्य को सुनकर आचार्य श्री हँसने लगे और बोले अब ऐसा कहा करो कि- "दिन में खाना, रात में सोना, जीवन में कभी न रोना।"
  9. श्रावकाचार ग्रंथ की 148 वीं गाथा का स्वाध्याय कराते हुए आचार्य श्री जी ने बताया कि- आगम का श्रेष्ठ ज्ञाता वही है जो पाप को शत्रु के समान समझता है एवं धर्म (पुण्य) को मित्र के समान समझता है। आगमज्ञ का अर्थ पढ़ा-लिखा होना नहीं है, बल्कि जो स्वयं पाप को शत्रु मानता है एवं पाप त्याग का पुरुषार्थ करता है वही आगमज्ञ है। ऐसे ज्ञान को जीवन में कभी महत्त्व नहीं देना चाहिए जो पाप से न डरे। सम्यग्ज्ञान संज्ञा उसी ज्ञान को दी जाती है जो प्राणी को पाप से बचाता है। जो शास्त्रों को पढ़कर भी कषायों एवं पापों का त्याग नहीं कर पाता उसका यह शास्त्र अध्ययन किसी प्रयोजन के लिए नहीं होता। तब किसी साधक ने पूछा कि- आचार्य श्री जी हमें किस प्रकार के ज्ञान को महत्त्व देना चाहिए? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि संवेग, वैराग्य सहित ज्ञान ही आदर के योग्य होता है। भेद-विज्ञान की भी यही तो विशेषता है कि वह कषायों को उत्पन्न नहीं होने देता। हमें बाहर में किसी को शत्रु और मित्र नहीं मानना चाहिए, बल्कि धर्म को ही अपना सच्चा मित्र मानकर उससे मित्रता करो। पाप को शत्रु मानकर उसे शक्ति अनुसार छोड़ने का प्रयास करें। कषाय करने का अर्थ है- मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना। मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने का परिणाम तो आप जानते ही हैं। बस ऐसा ही परिणाम कषाय करने से भी होता है। जो आत्मा और आस्रव के बीच में आने वाले संधि-स्थल को जो नहीं जानता है वही क्रोध आदि करता है। लकड़ी को फोड़ने वाला लकड़ी के संधि-स्थल को जानता है। संधि-स्थल पर चोट करने पर वह दो भागों में विभक्त हो जाती है। ऐसा ही पाषाण में होता है उसके अलग-अलग दो फलक हो जाते हैं। उसी प्रकार आत्मा और कर्मों के बीच में ज्ञानरूपी पैनी छैनी को डाल देते हैं तो वह उनको न्यारा-न्यारा कर देता है। यह सुनकर किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी कुछ लोग कहते हैं- क्रोध तो कर्म के उदय से आता है, हम उसे जानते रहें और करते रहें यही तो ज्ञानीपना है तब आचार्य श्री जी ने कहा कि जो क्रोध करता है वह जानता नहीं और जो जानता है वह क्रोध करता नहीं। जिस समय जीव क्रोध कर रहा है, उस समय वह ज्ञानी हो नहीं सकता। क्रोध आदि न करने वाले को ही समयसार ग्रंथ में सच्चा ज्ञानी माना है। क्रोध करते रहें और कहें मैं आत्मा में रहता हूँ, ज्ञानी हूँ यह एक प्रकार का अज्ञान है।
  10. आचार्य श्री जी ने एक बार कहा कि- आत्मस्थ होने के लिए निर्ममत्व होना बहुत आवश्यक है। मेरे मन का भाव छोड़ने एवं पर वस्तु के प्रति जो लगाव है उसके त्याग का नाम निर्ममत्व है। तब किसी ने कहा कि मुझे किसी से ममत्व नहीं है फिर भी मन में शान्ति क्यों नहीं रहती है। आचार्य श्री जी ने कहा- ऐसा हो ही नहीं सकता, ममता रहित होने पर अशान्ति रह ही नहीं सकती अभी आपके अन्दर परिग्रह एवं ममताभाव विद्यमान है तभी तो मन अशान्त रहता है आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि- दूध तभी उबलता है जब नीचे आग जल रही हो नीचे से आग निकाल दो तो जो दूध उबल रहा है, वह धीरे-धीरे शान्त हो जाता है। वैसे ही परिग्रह छोड़ने पर कषायों का उबाल ठीक हो जाता है एवं धीरे-धीरे मन शान्त होने लगता है। यदि छोड़े हुए पदार्थ के प्रति भी ममत्व भाव आ जाता है तो पुनः आकुलता पैदा होने लगती है। जैसे गर्म घी में एक बूंद पानी की डाल देने से चटपट की आवाज आने लगती है। तब मैंने कहा- आचार्य श्री जी कई लोग कहते हैं कि ये वस्त्र, धन, घर आदि मेरी आत्मा से पृथक् हैं। आत्मा-आत्मा में है, राग-राग में है। बाह्य में मेरा कुछ भी नहीं है ऐसे व्यक्तियों के लिए क्या कहा जाए? तब आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- एक विद्धान प्रवचन दे रहे थे। वह भी यही कह रहे थे कि- पर वस्तु मेरी नहीं हो सकती मैं पर वस्तु का नहीं हो सकता संसार में जो कुछ दिख रहा है वह सब मेरा नहीं है इतने में किसी श्रोता ने उनके सामने रखी हुई घड़ी को उठा लिया तब पंडित जी तत्काल बोल पड़े यह घड़ी मेरी है। यहीं रख दो कहाँ ले जा रहे हो। (सभी लोग हँसने लगे।) ऐसे लोगों के लिए आचार्य ज्ञानसागर जी कहा करते थे कि जब पर वस्तु अपनी नहीं है तब कोई व्यक्ति यदि आपके सामने से आपकी वस्तु उठा ले जाए तो आपको विकल्प नहीं होना चाहिए। जो संसार में उलझ रहा है वह परिग्रह का त्याग कर ही नहीं सकता। परिग्रह को चाहने वाला कभी भी आत्मस्थ नहीं हो सकता।
  11. परिग्रह परिमाण व्रत का व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- यह पदार्थ मेरा है ऐसा भाव आना ही परिग्रह है। बाहरी पदार्थ में मनोज्ञ- अमनोज्ञ की कल्पना करके उसमें हर्ष-विषाद न करने का नाम अपरिग्रह महाव्रत है। पुद्गल ने जीव पर आज तक अधिकार नहीं जमाया लेकिन इस जीव ने पुद्गल एवं जीव दोनों पर अधिकार जमा लिया है। यह अधिकार और ममत्व ही परिग्रह कहलाता है। परिग्रह ममत्व का उदाहरण देते हुए आचार्य श्री जी ने एक संस्मरण सुनाया कि एक व्यक्ति ने मरण के कुछ समय पूर्व जिस हाथ की अंगुलियों में अंगूठी पहने था उस हाथ की मुट्ठी बांध ली। मरण के उपरान्त भी वह मुट्ठी बंधी रही एवं अंगुलियाँ अकड़ गई। परिवार जनों को अंगूठियाँ निकालना कठिन हो गया तब उन्होंने अंगुलियों को काटकर अंगूठियाँ निकाल ली। इसे कहते हैं पर वस्तु में ममत्व का भाव। इसमें मरने वाले एवं उसके परिजन दोनों को पर वस्तु से ममत्व था।
  12. आजकल व्यक्ति विज्ञान के युग में बहुत ही व्यस्त हो गया है। धन, स्त्री और भोजन में इतना आशक्त होता जा रहा है कि उसे धार्मिक कार्य करने का समय ही नहीं मिलता उसे धर्म तो फुर्सत की वस्तु लगने लगी है। कभी उसे जरूरत पड़े तो सामाजिक बंधनों के कारण धर्म को नौकरों के द्वारा करवाना चाहता है या औपचारिकता निभाकर चला जाता है। किसी ने आचार्य श्री जी से पूछा कि- इस आधुनिक युग में व्यक्ति धर्म को फालतू क्यों समझने लगा है? तब आचार्य श्री जी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया कि- "मोह पालतू हो गया है इसलिए धर्म फालतू लगने लगा है।" आचार्य श्री जी ने आगे कहा कि- धार्मिक क्रियायें चाहे आहार दान हो, मुनियों का आहार-विहार हो या अभिषेक, पूजन आदि कार्य हो ये सब श्रावक को उत्तम भावों के साथ अपने हाथों से ही करना चाहिए। धार्मिक कार्य को अपने हाथ से करना उत्तम कार्य है, जबकि बेटे के हाथ से करवाना मध्यम है एवं नौकर आदि के हाथ से करवाना धर्म-कर्म को नष्ट करना है।
  13. स्वदारसंतोष व्रत का स्वरूप समझाते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- जो स्वदार संतोष व्रत का पालन करता है अर्थात् अपनी विवाहित स्त्री को छोड़कर अन्य सभी स्त्रियों से विरक्त हो जाता है। उसका अनंत पाप छूट जाता है। यह व्रत वासना को पूर्ण रूप से नष्ट तो नहीं करता, किन्तु सीमित अवश्य कर देता है। पाप से डरने वाला व्यक्ति ही इस ब्रह्मचर्याणुव्रत को धारण कर सकता है। स्वदारसंतोष व्रत में संतुष्ट रहने वाला ही आगे चलकर मुनि बन सकता है। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- इस व्रत का पालन करने वाला गृहस्थ नवनीत के गोले के समान संसार से ऊपर तैरता रहता है। इसी बीच किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि विवाह को धार्मिक संस्कार क्यों माना जाता है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- शादी, विवाह में धार्मिक अनुष्ठान के साथ संस्कार किए जाते हैं। पति-पत्नि एक-दूसरे को धर्मध्यान में सहयोगी बनें इसलिए विवाह किया जाता है। वासना को सीमित करने एवं संतान की प्राप्ति के लिए विवाह किया जाता है और संतान धर्म परम्परा को आगे बढ़ाती है इसलिए विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है। आचार्य श्री जी ने लिखा भी है बिना विवाह प्रवाहित हुआ क्या, धर्म प्रवाह।
  14. आचार्य श्री जी गृहस्थ धर्म का व्याख्यान कर रहे थे उन्होंने बताया कि- गृहस्थ रागी जरूर होता है, किन्तु वीतरागी का उपासक अवश्य होता है। सच्चा श्रावक हमेशा देव, शास्त्र व गुरु पर समर्पित रहता है। देव पूजा आदि छः आवश्यकों का प्रतिदिन पालन करता है। पर्व के दिनों में एकाशन करता हुआ ब्रह्मचर्य का पालन करता है। जिसके माध्यम से संकल्पी हिंसा होती हो ऐसा व्यापार नहीं करता। उसका आजीविका का साधन न्यायसंगत एवं सात्त्विक होता है। वह विवाह भी करता है तो वासना की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि कुल परम्परा चलाने के लिए करता है। वह संसार कीचड़ में रहता तो है लेकिन रचता-पचता नहीं है। तब मैंने कहा कि- आचार्य श्री जी आज ऐसा आदर्श गृहस्थ मिलना मुश्किल है और यदि मिल भी जाए तो उसके सारे परिवार का कल्याण हो जाए। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- सच बात तो यह है कि एक आदर्श गृहस्थ उस नाविक की तरह है, जो स्वयं तैरते हुए अन्य सभी परिवार रूपी नाव के आश्रित जनों को पार ले जाता है।
  15. आधुनिक युग का व्यक्ति अनुशासन एवं मर्यादा का पालन ही नहीं करना चाहता। वह अनुशासन को कष्टदायी समझता है। उसे मर्यादा में बंधन के दर्शन होते हैं, सुरक्षा के नहीं वह यह भूल जाता है कि मर्यादा में रहकर ही हम अपने जीवन का उत्थान कर सकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि मर्यादा लक्ष्मण रेखा के समान है। जिसका उल्लंघन करने से सीता जैसी सतियों को भी कष्ट एवं अपमान सहना पड़ा। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अनुशासन का पालन करना चाहिए। आचार्य श्री जी एक दिन कह रहे थे कि श्रावक, त्यागी–व्रती या साधु कोई भी हो, उन्हें हमेशा अपनी मर्यादा में रहना चाहिए संघ एवं समाज के नियमों का पालन करते हुए अनुशासन में रहना चाहिए। तब किसी ने आचार्य श्री जी से कहा कि- त्यागी एवं साधुजन तो आपके संकेत से इन सबका पालन कर लेते हैं लेकिन समाज में कोई नियम न होने से एवं मार्गदर्शक का अभाव होने से श्रावक अनुशासन का पालन नहीं कर पाता। तब आचार्य श्री जी ने आज की दिग्भ्रमित समाज के लिए बहुत अच्छा सूत्र देते हुए कहा कि श्रावक को मर्यादा एवं अनुशासन का पालन किसी के भय से नहीं बल्कि पाप के भय से करना चाहिए। जो पाप के भय से त्याग किया जाता है या अनुशासन में रहा जाता है, वही सच्चा त्याग एवं अनुशासन माना जाता है। गुरु से, कानून से मत डरो डरना ही है तो पाप से डरो। अनुशासन में रहना ही पापभीरूता का प्रतीक है और पाप से भयभीत होने से सम्यग्दर्शन का संवेग भाव नाम का गुण प्रकट होता है।
  16. प्रायः कुछ लोगों के मुख से यह सुना जाता है कि जब काललब्धि आएगी तब मुझे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं संसार से मुक्ति अपने आप मिल जाएगी मुझे अभी कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोग काल पर आधारित हो जाते हैं और काल को ही कर्ता मान लेते हैं, पुरुषार्थ को गौण कर देते हैं। इसी संदर्भ में किसी ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए। कहा कि- आत्मकल्याण के मार्ग में काल की क्या स्थिति है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- "शादी में बाराती जैसी है।” जैसे शादी में जिसका संबंध होता है उनकी मुख्यता होती है, किन्तु सहयोग के रूप में बारात में अन्य व्यक्ति भी होते हैं उनका कोई वहाँ संबंध नहीं जुड़ता लेकिन फिर भी उन सब से बारात की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काल की स्थिति होती है। कार्य जिस समय होता है उसमें काल कोई कारण रूप से नहीं होता किन्तु माध्यस्थ रहता है हाँ, यह बात अवश्य है कि जिस समय कोई भी कार्य होता है उस समय काल भी नियम रूप से उपस्थित होता है। पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी कुछ लोग कालद्रव्य एवं गुरु को एक ही कोटि का उदासीन निमित्त मानते हैं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- काल द्रव्य उदासीन निमित्त है, जबकि गुरु प्रेरक निमित्त हैं। जो काल को और गुरु को एक ही कोटि का उदासीन निमित्त मानते हैं उनको घड़े बनाने में कील को और कुम्हार को भी एक कोटि में गिनना चाहिए, जबकि कुम्हार प्रेरक माना जाता है और कील उदासीन निमित्त मानी जाती है। कुछ लोग भगवान् को कर्ता मानते है और कुछ लोग काल को कर्ता मानने लगे दोनों एक से हो गए फिर जीव की स्वतंत्र सत्ता कहाँ रही? इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती है कि हमें भगवान् और काल को मोक्षमार्ग में निमित्त मानना चाहिए कर्ता नहीं । इनकी उपस्थिति में अपने आत्म- पुरुषार्थ को महत्व देते हुए भावों की निर्मलता की ओर बढ़ते रहना चाहिए।
×
×
  • Create New...