आचार्य श्री जी रात्रि भोजन त्याग का वर्णन करते हुए कह रहे थे कि- रात्रि भोजन त्याग से एक वर्ष में छ: माह उपवास का फल मिलता है। इसलिए श्रावकों को रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। श्रावकों को आचार्यों ने दिन में ही दो बार भोजन करने को कहा है। एक बार खावें योगी, दो बार खावें भोगी, तीन बार खावें रोगी, इससे अधिक बार खाओगे तो जल्दी मत्यु होगी। रात्रि भोजन करने से जीव हिंसा तो होती ही है साथ ही साथ अनेक प्रकार के शारीरिक रोग एवं मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं, आलस्य बढ़ता है और स्मरण शक्ति घटती है।
आचार्य श्री जी ने आगे कहा कि दिन में सोना नहीं चाहिए एवं रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। दिन में सोने से दर्शनावरणी कर्म का बंध होता है एवं रात में खाने से नरक आयु का आस्रव होता है। तब मैंने कहा कि- आचार्य श्री हम लोग बच्चों को ऐसा कहा करते है। कि- "दिन में सोना, रात में खाना, नरक में जाकर खूब रोना।" इस वाक्य को सुनकर आचार्य श्री हँसने लगे और बोले अब ऐसा कहा करो कि- "दिन में खाना, रात में सोना, जीवन में कभी न रोना।"