आधुनिक युग का व्यक्ति अनुशासन एवं मर्यादा का पालन ही नहीं करना चाहता। वह अनुशासन को कष्टदायी समझता है। उसे मर्यादा में बंधन के दर्शन होते हैं, सुरक्षा के नहीं वह यह भूल जाता है कि मर्यादा में रहकर ही हम अपने जीवन का उत्थान कर सकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि मर्यादा लक्ष्मण रेखा के समान है। जिसका उल्लंघन करने से सीता जैसी सतियों को भी कष्ट एवं अपमान सहना पड़ा। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अनुशासन का पालन करना चाहिए।
आचार्य श्री जी एक दिन कह रहे थे कि श्रावक, त्यागी–व्रती या साधु कोई भी हो, उन्हें हमेशा अपनी मर्यादा में रहना चाहिए संघ एवं समाज के नियमों का पालन करते हुए अनुशासन में रहना चाहिए। तब किसी ने आचार्य श्री जी से कहा कि- त्यागी एवं साधुजन तो आपके संकेत से इन सबका पालन कर लेते हैं लेकिन समाज में कोई नियम न होने से एवं मार्गदर्शक का अभाव होने से श्रावक अनुशासन का पालन नहीं कर पाता। तब आचार्य श्री जी ने आज की दिग्भ्रमित समाज के लिए बहुत अच्छा सूत्र देते हुए कहा कि श्रावक को मर्यादा एवं अनुशासन का पालन किसी के भय से नहीं बल्कि पाप के भय से करना चाहिए। जो पाप के भय से त्याग किया जाता है या अनुशासन में रहा जाता है, वही सच्चा त्याग एवं अनुशासन माना जाता है। गुरु से, कानून से मत डरो डरना ही है तो पाप से डरो। अनुशासन में रहना ही पापभीरूता का प्रतीक है और पाप से भयभीत होने से सम्यग्दर्शन का संवेग भाव नाम का गुण प्रकट होता है।