स्वदारसंतोष व्रत का स्वरूप समझाते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- जो स्वदार संतोष व्रत का पालन करता है अर्थात् अपनी विवाहित स्त्री को छोड़कर अन्य सभी स्त्रियों से विरक्त हो जाता है। उसका अनंत पाप छूट जाता है। यह व्रत वासना को पूर्ण रूप से नष्ट तो नहीं करता, किन्तु सीमित अवश्य कर देता है। पाप से डरने वाला व्यक्ति ही इस ब्रह्मचर्याणुव्रत को धारण कर सकता है। स्वदारसंतोष व्रत में संतुष्ट रहने वाला ही आगे चलकर मुनि बन सकता है।
आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- इस व्रत का पालन करने वाला गृहस्थ नवनीत के गोले के समान संसार से ऊपर तैरता रहता है। इसी बीच किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि विवाह को धार्मिक संस्कार क्यों माना जाता है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- शादी, विवाह में धार्मिक अनुष्ठान के साथ संस्कार किए जाते हैं। पति-पत्नि एक-दूसरे को धर्मध्यान में सहयोगी बनें इसलिए विवाह किया जाता है। वासना को सीमित करने एवं संतान की प्राप्ति के लिए विवाह किया जाता है और संतान धर्म परम्परा को आगे बढ़ाती है इसलिए विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है। आचार्य श्री जी ने लिखा भी है
बिना विवाह
प्रवाहित हुआ क्या,
धर्म प्रवाह।