लोहा तब तक सुरक्षित रहता है, जब तक उसमें जंग नहीं लगती। जंग लगने के बाद लोहा सड़ जाता है एवं उसकी कोई कीमत नहीं रह जाती। समझदार व्यक्ति लोहे को जंग तो लगने ही नहीं देते, बल्कि जिस लोहे में जंग लगी हो, उस लोहे से अपने लोहे को बचाकर रखते हैं। इस प्रकार का उदाहरण देते हुए आचार्य श्री जी हम सभी को उपदेश देते हैं कि जिस प्रकार व्यक्ति जंग लगे हुए लोहे से बच जाते हैं और हमेशा अपनी सुरक्षा में प्रयत्नशील रहते हैं। इसी प्रकार मुनियों एवं व्रतियों को असंयम रूपी जंग से एवं असंयमियों से हमेशा अपने आप को दूर एवं सुरक्षित रखना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि- या फिर हम अपनी आत्मा को स्वर्ण के समान बना लें तो फिर उसमें कभी असंयम की जंग नहीं लगेगी। सोना, पानी या कीचड़ में भी पड़ा रहे तो भी उसमें जंग नहीं लगती। सोने जैसी पवित्रता एवं मजबूती हमारी आत्मा में प्रकट करें तभी हम पर पदार्थों से अप्रभावित रह सकते हैं। एक बात हमेशा याद रखो, जो जानता, देखता है, वह (आत्मा) संसारी प्राणी को अच्छा नहीं लगता बल्कि जो देखने जानने में (जड़ पदार्थ) आ रहे हैं वह अच्छे लगते हैं यही तो सबसे बड़ी बीमारी है, पहले इस बीमारी को दूर करो।