आचार्य श्री जी गृहस्थ धर्म का व्याख्यान कर रहे थे उन्होंने बताया कि- गृहस्थ रागी जरूर होता है, किन्तु वीतरागी का उपासक अवश्य होता है। सच्चा श्रावक हमेशा देव, शास्त्र व गुरु पर समर्पित रहता है। देव पूजा आदि छः आवश्यकों का प्रतिदिन पालन करता है। पर्व के दिनों में एकाशन करता हुआ ब्रह्मचर्य का पालन करता है। जिसके माध्यम से संकल्पी हिंसा होती हो ऐसा व्यापार नहीं करता। उसका आजीविका का साधन न्यायसंगत एवं सात्त्विक होता है। वह विवाह भी करता है तो वासना की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि कुल परम्परा चलाने के लिए करता है। वह संसार कीचड़ में रहता तो है लेकिन रचता-पचता नहीं है। तब मैंने कहा कि- आचार्य श्री जी आज ऐसा आदर्श गृहस्थ मिलना मुश्किल है और यदि मिल भी जाए तो उसके सारे परिवार का कल्याण हो जाए। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- सच बात तो यह है कि एक आदर्श गृहस्थ उस नाविक की तरह है, जो स्वयं तैरते हुए अन्य सभी परिवार रूपी नाव के आश्रित जनों को पार ले जाता है।