प्रायः कुछ लोगों के मुख से यह सुना जाता है कि जब काललब्धि आएगी तब मुझे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं संसार से मुक्ति अपने आप मिल जाएगी मुझे अभी कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोग काल पर आधारित हो जाते हैं और काल को ही कर्ता मान लेते हैं, पुरुषार्थ को गौण कर देते हैं। इसी संदर्भ में किसी ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए। कहा कि- आत्मकल्याण के मार्ग में काल की क्या स्थिति है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- "शादी में बाराती जैसी है।” जैसे शादी में जिसका संबंध होता है उनकी मुख्यता होती है, किन्तु सहयोग के रूप में बारात में अन्य व्यक्ति भी होते हैं उनका कोई वहाँ संबंध नहीं जुड़ता लेकिन फिर भी उन सब से बारात की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काल की स्थिति होती है। कार्य जिस समय होता है उसमें काल कोई कारण रूप से नहीं होता किन्तु माध्यस्थ रहता है हाँ, यह बात अवश्य है कि जिस समय कोई भी कार्य होता है उस समय काल भी नियम रूप से उपस्थित होता है।
पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी कुछ लोग कालद्रव्य एवं गुरु को एक ही कोटि का उदासीन निमित्त मानते हैं। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- काल द्रव्य उदासीन निमित्त है, जबकि गुरु प्रेरक निमित्त हैं। जो काल को और गुरु को एक ही कोटि का उदासीन निमित्त मानते हैं उनको घड़े बनाने में कील को और कुम्हार को भी एक कोटि में गिनना चाहिए, जबकि कुम्हार प्रेरक माना जाता है और कील उदासीन निमित्त मानी जाती है। कुछ लोग भगवान् को कर्ता मानते है और कुछ लोग काल को कर्ता मानने लगे दोनों एक से हो गए फिर जीव की स्वतंत्र सत्ता कहाँ रही? इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती है कि हमें भगवान् और काल को मोक्षमार्ग में निमित्त मानना चाहिए कर्ता नहीं । इनकी उपस्थिति में अपने आत्म- पुरुषार्थ को महत्व देते हुए भावों की निर्मलता की ओर बढ़ते रहना चाहिए।