एक बार विहार करते हुए चले जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ी जो कि बहुत गहरी थी। पुल पर से सारा संघ गुजर रहा था। नदी बहुत गहरी होने के कारण बहुत शांत लग रही थी। उसमें बहुत कम तरंगें उठ रही थी। तब मैंने आचार्य श्री जी से कहा किआचार्य श्री जी ये नदी कितनी शांत लग रही है। इसमें लग ही नहीं रहा है कि जैसे तरंगें उठ रही हों। तब आचार्य श्री ने कहा कि- नदी में पानी की गहराई जितनी अधिक बढ़ती जाती है तरंगे उतनी ही शांत होती जाती है। ठीक उसी प्रकार जब हमारा ज्ञान, आत्मा तत्त्व की गहराई को जान लेता है तो उसमें भी संकल्पविकल्प की तरंगें शांत होती जाती हैं।
संकल्प विकल्प में लगा हुआ ज्ञान अध्यवसाय कहलाता है। इससे कर्म का बंध होता रहता है। अपने मन को समझाओ ताकि कर्म बंध से बच सको। निर्ममत्व को अपनाओ मात्र ज्ञाता दृष्ट बनों अपने धान को आत्मा को जानने में लगाओ दूसरे के परिचय करने में नहीं। हर्ष विषाद से उपर उठ जाने पर गम्भीरता आ ही जाती है। चंचलता समाप्त हो जाती है।
वर्तमान का सदुपयोग करो, संकल्प-विकल्पों में मत उलझो। जब हाथ से वर्तमान छूट जाता है तो भगवान् भी छूट जाते हैं। जो बाहरी संकल्प-विकल्प से दूर हो गये हैं, वही समयसार के अमृत को पीने वाले होते हैं। जमाने की मत सुनो अपना काम करते जाओ।उदाहरण देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि किसी ने आपको गधा कह दिया तो आप बुरा मान जाते हो इसका अर्थ है आप हर किसी की बात मान लेते है जिनवाणी माँ आपको चैतन्य स्वरूप आत्मा हो ऐसा कहती है आप इस बात को नहीं मानते किसी के मुख से निकला शब्द कान पर पड़ा और चला जाता है लेकिन तत्वज्ञान के अभाव में अज्ञानी का मन उन शब्दों को याद रख लेता है और खोटे संकल्प विकल्प करता रहता है तब किसी ने पूछा आचार्य श्री जी इस समय हमें क्या करना चाहिए- आचार्य श्री जी ने कहा कि अपने को क्या करना है बाहरी संकल्प, विकल्पों में नहीं उलझना बस यही काम करना है आत्मा के हितकारी तत्वों में लगे रहना ही सच्चे साधक का काम है बाह्य में संसार और कुछ है ही नहीं संकल्प विकल्पों की तरंगों का नाम ही संसार है संसारी प्राणी इन तरंगों में ही उलझा रहता है |