किसी ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि हम लोग आत्म-धर्म तक कैसे पहुँच सकते हैं ? तब आचार्य श्री ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- आत्म-धर्म तक पहुँचने के लिए पहले कर्म रूपी नदी को पार करना पड़ेगा। तभी हम आत्म–धर्म तक पहुँच सकते हैं। आत्मा के साथ वार्ता करने के लिए बीच में कर्म से वार्ता करना अनिवार्य है। जैसे कि आपको मधुवन जाना है तो ईशरी उतरना अनिवार्य होता है। यह काम कायरों का नहीं वीरों का है। कर्मों से पार होना ज्ञानियों का काम है, अज्ञानियों का नहीं संयमियों का काम है- असंयमी का नहीं। धर्मात्मा इस बात के ऊपर रोता है कि देखो ये संसारी प्राणी संसार के रहस्य को नहीं समझता हुआ दुःख पा रहा है। ऐसा सोचता हुआ उसे सही लाइन पर लाने का प्रयास करता है। कर्मों को शिथिल बनाने एवं कर्मों को और सघन बनाने के लिए एक मात्र कारण हैं- अपने ही परिणाम निमित्त अपने आप नहीं बनता किन्तु बनाना पड़ता है। मित्र वही है जो मित्र को पूर्ण रूप से सक्षम बना देता है।