पुराण ग्रन्थों में परिणामों के फल के वैचित्य (विविधता) के बारे में पढ़ने को मिलता है कि वस्तु एक ही रहती है, लेकिन व्यक्ति के भावों के अनुसार सभी को अलग-अलग फल देती है। दुर्भावना वाले को फूल की माला भी काला नाग बन जाती है और सद्भावना वाले को कालानाग भी फूलों की माला बन जाती है। जीव का पुण्य और शुभ परिणाम ही है जो मिट्टी को सोना बना देता है और वह जीव का पाप और अशुभ परिणाम ही हैं जो सोने को भी कोयला बना देते हैं।
एक दिन आचार्य श्री जी बता रहे थे कि- परिणामों के माध्यम से कर्मों में भी परिवर्तन किया जा सकता है। पवित्र, प्रासुक भोजन भी क्रोध की दशा में ग्रहण किया जाए तो जहर का काम करता है और वही भोजन समता के साथ ग्रहण किया जाता है तो अमृत का काम
करता है। इसलिए हमें अपने कर्मों और परिणामों पर श्रद्धान रखना चाहिए फिर अपने आप कर्मों में परिवर्तन आने लगेगा, असाता साता में परिवर्तित हो जावेगी। यही तो है परिणाम-प्रत्यय।
आचार्य श्री जी ने अपने ही जीवन का संस्मरण सुनाते हुए कहा है की एक बार एक वृद्ध श्रावक हमारे पास आये थे। उन्हें केंसर था। उन्हें डॉक्टर ने मना कर दिया था। उन्होंने निराश होकर मुझसे। निवेदन किया कि- हे गुरुवर! आप ही हमें कुछ इलाज बताइये। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि हमारे पास कोई भी ग्रहण करने की नहीं बल्कि त्याग करने की दवाई है, लेना हो तो ले लो। उन्होंने कहा- आप जो कहेंगे उसके लिए मैं तैयार हूँ। तब मैंने कहा कि रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दो। तब उन्होंने कहा आचार्य श्री जी रात्रि में दवाई लेनी पढ़ती है। तब मैंने कहा- जब डॉक्टर ने मना कर दिया है तो दवाई लेने से क्या लाभ ? तो वह बोले ठीक है आचार्य श्री जी हम आजीवन रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हैं।
कुछ दिन बाद वह वृद्ध श्रावक दर्शन करने आए तो मैंने उनसे पूछा कि- नियम अच्छी तरह चल रहे हैं। तब उन्होंने कहा- जी आचार्य श्री जी मेरा तो आपकी कृपा से केंसर ही केन्सिल हो गया अर्थात् रोग ठीक हो गया।
आचार्य श्री जी ने कहा- यह है परिणाम-प्रत्यय का फल। परिणामों से चेतन–अचेतन सभी में परिवर्तन लाया जा सकता है। गरीब भी इस चिकित्सा को अपना सकता है बस धैर्य और श्रद्धान होना चाहिए।