‘समयसार' का पद्यानुवाद ‘कुन्दकुन्द का कुन्दन' और अध्यात्मरस से भरपूर ‘समयसारकलश' का पद्यानुवाद ‘निजामृतपान' ('कलशागीत' नाम से भी) है। यह ग्रन्थ संस्कृत में मूलरूप में है। इसमें अनुष्टुप्, आर्या, द्रुतविलम्बित, मन्दाक्रान्ता, शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, स्रग्धरा, वसन्ततिलका एवं मालिनी आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है, परन्तु निजामृतपान में छन्दों के अनुसार अनुवाद न होकर समस्त ग्रन्थ को अपने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के नाम पर ही ‘ज्ञानोदय छन्द' में अनूदित किया गया है।
नाटक समयसार कलश' की कठिन भाषा को ध्यान में रखते हुए आचार्यश्री ने लिखा है कि-मनोगत भावों को भाषा का रूप देना तो कठिन है ही, उन्हें लेखबद्ध करना उससे भी कठिन है, किन्तु भाषा को काव्य के साँचे में ढालना तो कठिन से कठिनतम कार्य है। निजामृतपान' के अनुवाद तथा उद्देश्य के सम्बन्ध में उनका कहना है -“यह अनुवाद कहीं-कहीं पर शब्दानुवाद बन पड़ा है तो कहीं-कहीं पर भाव निखर आया है। आशा ही नहीं अपितु विश्वास है कि ‘निजामृतपान' का पानकर भव्य मुमुक्षु पाठकगण भावातीत ध्यान में तैरते हुए अपने आपको उत्सर्गित पाएँगे, चेतना में समर्पित पायेंगे।''
आचार्यश्री ने अनुवाद से पूर्व मंगलाचरण के अन्तर्गत आचार्यत्रय-श्री कुन्दकुन्द, श्री अमृतचन्द्र एवं श्री ज्ञानसागरजी को नमस्कार करने के पश्चात् इस अनुवाद के प्रयोजन को इस प्रकार बतलाया है
‘अमृत-कलश' का मैं करू, पद्यमयी अनुवाद।
मात्र कामना मम रही, मोह मिटे परमाद॥
अर्थात् मैं मोह और प्रमाद मिटाने की कामना से अमृत कलश का पद्यानुवाद कर रहा हूँ।
इसके अतिरिक्त प्रस्तावना में वे इसका उद्देश्य भव्य मुमुक्षु पाठकों का आत्म-चेतना में समर्पित होना भी लिख चुके हैं।
इसमें देव-शास्त्र-गुरु स्तवन के बाद, ‘ज्ञानोदय छन्द' में कलशों का पद्यबद्ध रूपान्तर प्रस्तुत हुआ है। इसका लक्ष्य है जैन चिन्तन में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली की गाँठे खुल जायें ताकि पाठक उसका भरपूर आस्वाद ले सके। इसमें कई अधिकार हैं-जीवाजीवाधिकार, कर्तृकर्माधिकार, पुण्यपापाधिकार, आस्रवाधिकार, संवराधिकार, निर्जराधिकार, बन्धाधिकार, मोक्षाधिकार, सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार, स्याद्वादाधिकार तथा साध्यसाधकाधिकार। अन्ततः मंगलकामना के साथ यह भाषान्तर सम्पन्न हुआ है।