चेतनकर्ता मैं क्रोधादिक कर्म रहें मम ‘जड़' गाता,
उसके कर्तृ-कर्मपन को जो शीघ्र नष्ट है कर पाता।
लोकालोकालोकित करता ज्ञानभानु द्युति पुंज रहा,
निर्विकार है, निजाधीन है, दीन नहीं दृग मंजु रहा ॥४६॥
पर परिणति को भेदभाव को विभाव भावों विदारता,
ज्ञान दिवाकर उदित हुआ हो समकित किरणें सुधारता।
कर्तापन-तम कुकर्मपनतम फिर क्या वह रह पायेगा?
विधि बंधन का गीत पुराना पुद्गल अब ना गायेगा ॥४७॥
जड़मय पुद्गल परपरिणति से पूर्ण रूप से विरत बना,
निश्चय निर्भय बनकर मुनि जब सहज ज्ञान में निरत तना,
ऊपर उठ सुख-दुख से तजता कर्ता कुकर्म-कारणता,
ज्ञाता-द्रष्टा साक्षी जग का पुराण पुरुषोत्तम बनता ॥४८॥
व्याप्यपना औ व्यापकता वह पर में नहिं निज द्रव्यन में,
व्याप्य और व्यापकता बिन नहिं कर्तृकर्म पर-जीवन में,
बार-बार मुनि विचार इस विध करें सदा वे जगा विवेक,
पर कर्तापन तजते लसते अंधकार का भगाऽतिरेक ॥४९॥
ज्ञानी निज पर परिणति लखता लखता पर नहीं पुद्गल है।
निरे निरे हैं अतः परस्पर मिले न चेतन पुद्गल हैं।
जड़ चेतन में कर्तृ-कर्म का भ्रम धारें जड़ शठ तब लौं
आरे सम निर्दय बन काटत बोध उन्हें नहिं झट जब लौं ॥५०॥
स्वतंत्र होकर परिणमता है होता स्वतंत्र कर्ता हैं,
उसका जो परिणाम कर्म है कहते जिन, विधि हर्ता हैं।
जो भी होती परिणति अविरल पदार्थ में है वहीं क्रिया,
वैसे तीनों एकमेक हैं यथार्थ से सुन सही जिया! ॥५१॥
सतत एक ही परिणमती है इक का इक परिणाम रहा,
इक की परिणति होती है यह वस्तु-तत्त्व अभिराम रहा।
इस विध अनेक होकर के भी वस्तु एक ही भाती है,
निर्मल-गुण-धारक जिनवर की वाणी इस विध गाती है ॥५२॥
कदापि मिलकर परिणमते नहिं, दो पदार्थ नहिं, संभव हो,
तथा एक परिणाम न भाता दो पदार्थ में उद्भव हो।
उभय-वस्तु में उसी तरह ही कभी न परिणति इक होती,
भिन्न-भिन्न जो अनेक रहती एकमेक ना, इक होती ॥५३॥
एक वस्तु के कर्ता दो नहिं इसविध मुनिगण गाते हैं,
एक वस्तु के कर्म कभी भी दो नहिं पाये जाते हैं।
एक वस्तु की परिणतियाँ भी दो नहिं कदापि होती है,
एक एक ही रहती सचमुच अनेक नहिं नहिं होती है ॥५४॥
भव-भव भव-वन भ्रमता-भ्रमता जीव भ्रमित हो यह मोही,
पर कर्तापन वश दुख सहता-मदतम-तम में निज द्रोही।
वीतरागमय निश्चय धारे एक बार यदि द्युति शाला,
फैले फलतः प्रकाश परितः कर्म बंध पुनि नहिं खारा ॥५५॥
पूर्ण सत्य है आतम करता अपने-अपने भावों को,
पर भी करता पर-भावों पर, पर ना आतम भावों को।
सचमुच सब कुछ पर का पर है आतम का बस आतम है,
जीवन भी संजीवन पीवन, आतम ही परमातम है ॥५६॥
विज्ञा होकर अज्ञ बनी तू पर पुद्गल में रमती है,
गज सम गन्ना खाती पर, ना तृण को तजती भ्रमती है।
मिश्री मिश्रित दधि को पी पी पीने पुनि मति! मचल रही,
रसानभिज्ञा पय को पीने गो दोहत भी विफल रही ॥५७॥
रस्सी को लख सर्प समझ जन निशि में भ्रम से डर जाते,
जल लख मृग मृगमरीचिका में पीने भगते, मर जाते।
पवनाहत सर सम लहराता विकल्प जल्पों का भर्ता,
यदपि ज्ञान-घन व्याकुल बनता तदपि भूल में पर कर्ता ॥५८॥
सहज ज्ञान से स्वपर भेद को परम हंस यह मुनि नेता,
दूध दूध को नीर नीर को जैसा हंसा लख लेता।
केवल अलोल चेतन गण को अपना विषय बनाता है,
कुछ भी फिर ना करता मुनि बन मुनिपन यही निभाता है॥५९॥
शीतल जल है अनल उष्ण है ज्ञान कराता यह निश्चय,
है अथवा ना लवण अन्न में ज्ञान कराता यह निश्चय।
सरस स्वरस परिपूरित चेतन क्रोधादिक से रहित रहा,
यह भी अवगम, मिटा कर्तृपन ज्ञान मूल हो उदित अहा ॥६०॥
मूढ़ कुधी या पूर्ण सुधी भी निज को आतम करता है,
सदा सर्वथा शोभित होता धरे ज्ञान की स्थिरता है।
स्वभाव हो या विभाव हो पर कर्ता अपने भावों का,
परंतु कदापि आतम नहिं है कर्ता पर के भावों का ॥६१॥
आतम लक्षण ज्ञान मात्र है स्वयं ज्ञान ही आतम है,
किस विध फिर वह ज्ञान छोड़कर पर को करता आतम है।
पर भावों का आतम कर्ता इस विध कहते व्यवहारी,
मोह मद्य का सेवन करते भ्रमते फिरते भव-धारी ॥६२॥
चेतन आतम यदि जड़ कर्मों को करने में मौन रहे,
फिर इन पुद्गल कर्मों के हैं कर्ता निश्चित कौन रहे।
इसी मोह के तीव्र वेग के क्षयार्थ आगम गाता है,
पुद्गल पुद्गल-कर्मों कर्ता जड़ से जड़ का नाता है॥६३॥
स्वभावभूता परिणति है यह पुद्गल की बस ज्ञात हुई,
रही अतः ना कुछ भी बाधा प्रमाणता की बात हुई।
जब जब इस विध निज में जड़ है विभाव आदिक करे वही,
तब तब उसका कर्ता होता जिन श्रुति आशय धरे यही ॥६४॥
स्वभावभूता परिणति यह है चेतन की बस ज्ञात हुई,
रही अतः ना कुछ भी बाधा प्रमाणता की बात हुई।
जब जब इस विध निज में चेतन विभाव आदिक करे वही,
तब तब उसका कर्ता होता जिन श्रुति आशय धरे यही ॥६५॥
विमल ज्ञान रस पूरित होते ज्ञानी मुनि का आशय है,
ऐसा कारण कौन रहा है क्यों ना हो अघ आलय है।
अज्ञानी के सकल-भाव तो मूढ़पने से रंजित हो,
क्यों ना होते गत-मल निर्मल, ज्ञानपने से वंचित हो ॥६६॥
राग रंग सब तजने नियमित ज्ञानी मुनि-ले निज आश्रय,
अतः ज्ञान जल सिंचित सब ही भाव उन्हीं के हों, भा-मय।
राग रंग में अंग संग में निरत अतः वे अज्ञानी,
मूढ़पने के भाव सुधारे कलुषित पंकिल ज्यों पानी ॥६७॥
निर्विकल्प मय समाधिगिरि से गिरता मुनि जब अज्ञानी,
प्रमत्त बन अज्ञान भाव को करता क्रमशः नादानी।
विकृत विकल्पों विभाव भावों को करता तब निश्चित है,
द्रव्य कर्म के निमित्त कारण जो है सुख से वंचित है ॥६८॥
कुनय सुनय के पक्षपात से पूर्ण रूप से विमुख हुए,
निज में गुप लुप छुपे हुए हैं निज के सम्मुख प्रमुख हुए।
विकल्प जल्पों रहित हुए हैं प्रशांत मानस धरते हैं,
नियम रूप से निशिदिन मुनि-“निज-अमृत-पान''वे करते हैं॥६९॥
इक नय कहता जीव बंधा है, इक नय कहता नहीं बंधा,
पक्षपात की यह सब महिमा दुखी जगत है तभी सदा।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है ॥७०॥
भिन्न-भिन्न नय क्रमशः कहते आत्मा मोही निर्मोही,
इस विध दृढ़तम करते रहते अपने-अपने मत को ही।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७१॥
इक नय मत है आत्मा रागी इक कहता है गत-रागी,
पक्षपात की निशा यही है केवल ज्योत न वो जागी।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७२॥
इक नय कहता आत्मा द्वेषी इक कहता है ना द्वेषी,
पक्षपात को रखने वाली सुखदात्री मति हो कैसी?
पक्षपात से रहित बना है मुनिमन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७३॥
इक नय रोता आत्मा कर्ता कर्ता नहिं है इक गाता,
पक्षपात से सुख नहिं मिलता पक्षपात की यह गाथा।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है।
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७४॥
इक नय कहता आत्मा भोक्ता भोक्ता नहिं है इक कहता,
पक्षपात का प्रवाह जड़ में अविरल देखो वह बहता।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७५॥
इक नय मत में जीव रहा है इक कहता है जीव नहीं,
पक्षपात से घिरा हुवा मन! सुख पाता नहिं जीव वही।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७६॥
जीव सूक्ष्म है सूक्ष्म नहीं है भिन्न-भिन्न नय कहते हैं,
इस विध पक्षपात से जड़ जन भव-भव में दुख सहते हैं।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७७॥
इक नय कहता जीव हेतु है हेतु नहीं है इक गाता,
इस विध पक्षपात कर मन है वस्तुतत्त्व को नहिं पाता।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७८॥
जीव कार्य है कार्य नहीं है भिन्न-भिन्न नय हैं कहते,
इस विध पक्षपात जड़ करते परम तत्व को नहिं गहते।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥७९॥
इक नय कहता जीव भाव है भाव नहीं है इक कहता,
इस विध पक्षपात कर मन है वस्तुतत्व को नहिं गहता।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८०॥
एक अपेक्षा जीव एक है एक अपेक्षा एक नहीं,
ऐसा चिंतन जड़ जन करते दुखी हुए हैं देख यहीं।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८१॥
जीव सान्त है सान्त नहीं है इस विध दो नय हैं कहते
ऐसा चिंतन जड़ जन करते पक्षपात कर दुख सहते।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८२॥
जीव नित्य है नित्य नहीं है भिन्न-भिन्न नय दो कहते,
इस विध चिंतन पक्षपात है पक्षपात को जड़ गहते।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन-चेतन है॥८३॥
अवाच्य आत्मा वाच्य रहा है भिन्न-भिन्न नय हैं कहते,
इस विध चिंतन पक्षपात है करते जड़ जन दुख सहते।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८४॥
इक नय कहता आत्मा नाना, नाना ना है इक कहता,
इस विध चिन्तन पक्षपात है करता यदि तू दुख सहता।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है ॥८५॥
जीव ज्ञेय हैं ज्ञेय नहीं है भिन्न-भिन्न नय हैं कहते,
इस विध चिंतन पक्षपात है, करते जड़ जन दुख सहते।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८६॥
जीव दृश्य है जीव दृश्य नहिं भिन्न-भिन्न नय हैं कहते,
इस विध चिंतन पक्षपात है, करते जड़ जन दुख सहते।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८७॥
जीव वेद्य है वेद्य जीव नहिं भिन्न-भिन्न नय हैं कहते,
इस विध चिंतन पक्षपात है करते जड़ जन दुख सहते।
पक्षपात से रहित बना है मुनि मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८८॥
जीव आज भी प्रकट स्पष्ट है प्रकट नहीं दो नय गाते,
इस विध चिंतन पक्षपात है करते जड़जन दुख पाते।
पक्षपात से रहित बना है मुनि-मन निश्चल केतन है,
स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-घन केवल चेतन चेतन है॥८९॥
पक्षपात-मय नय-वन जिसने सुदूर पीछे छोड़ दिया,
विविध विकल्पों जल्पों से बस चंचल मन को मोड़ दिया।
बाहर भीतर समरस इक रस महक रहा है, अपने को,
अनुभवता मुनि मूर्तरूप से स्वानुभूति के सपने को ॥९०॥
रंग बिरंगी तरल तरंगे क्षणरुचि सम झट उठ मिटती,
विविध नयों की विकल्प माला मानस तल में नहिं उठती।
शत शत सहस्र किरण संग ले झग झग करता जग जाता,
निजानुभव केवल मम चेतन भ्रम-तम लगभग भग जाता ॥९१॥
स्वभाव भावों विभाव भावों भावाभाव रहित रहा,
केवल निर्मल चेतनता से खचित रहा है भरित रहा।
उसी सारमय समयसार को अनुभवता कर वंदन मैं,
विविध विधी के प्रथम तोड़ के तड़ तड़ तड़ तड़ बंधन मैं ॥९२॥
निर्भय निश्चल निरीह मुनि जब पक्षपात बिन जीता है,
समरस पूरित समयसार को सहर्ष सविनय पीता है।
पुण्य पुरुष है परम पुरुष है पुराण पावन भगवंता,
ज्ञान वही है दर्शन भी है सब कुछ वह जिन अरहन्ता ॥९३॥
विकल्पमय घन कानन में चिर भटका था वह धूमिल था,
मुनि का विबोधरस निज घर में विवेक पथ से आ मिलता।
खुद ही भटका खुद ही आत्मा लौटा निज में घुल जाता,
फैला जल भी निचली गति से बह बह पुनि वह मिल जाता ॥९४॥
विकल्प करने वाला आत्मा कर्ता यथार्थ कहलाता,
विकल्प जो भी उर में उठता कर्म नाम वह है पाता।
जब तक जिसका विकल्प दल से मानस तल वो भूषित है,
तब तक कर्तृ-कर्म-पन मल से जीवन उसका दूषित है॥९५॥
विराग यति का कार्य स्वयं को केवल लखना लखना है,
रागी जिसका कार्य, कर्म को केवल करना करना है।
सुधी जानता इसीलिए मुनि कदापि विधि को नहिं करता,
कुधी जानता कभी नहीं है चूंकि निरंतर विधि करता ॥९६॥
ज्ञप्ति क्रिया में शोभित होती कदापि करोति क्रिया नहीं,
उसी तरह बस करण-क्रिया में ज्ञप्ति क्रिया वह जिया! नहीं।
करण क्रिया औ ज्ञप्ति क्रिया ये भिन्न-भिन्न हैं अतः यदा,
ज्ञाता कर्ता भिन्न-भिन्न ही सुसिद्ध होते स्वतः सदा ॥९७॥
कर्म न यथार्थ कर्ता में हो, नहीं कर्म में कर्ता हो,
हुए निराकृत जब ये दो, क्या कर्तृ-कर्मपन सत्ता हो?
ज्ञान ज्ञान में कर्म कर्म में अटल सत्य बस रहा यही,
खेद! मोह नेपथ्य किन्तु ना तजता, नाचत रहा वहीं ॥९८॥
चिन्मय द्युति से अचल उजलती ज्ञान ज्योति जब जग जाती,
मुनिवर अंतर्जगतीतल को परितः उज्वल कर पाती।
ज्ञान ज्ञान तब केवल रहता रहता पुद्गल पुद्गल है,
ज्ञान कर्म का कर्ता नहिं है ढले न विधि में पुद्गल है॥९९॥
॥इति कर्तृकर्माधिकारः समाप्तः ॥
दोहा
निज गुण कर्ता आत्म है पर कर्ता पर आप।
इस विध जाने मुनि सभी निज-रत हो तज पाप ॥१॥
प्रमाद जब तक तुम करो, पर-कर्तापन मान।
तब तक विधि बन्धान हो, हो न 'समय' का ज्ञान ॥२॥