आस्रव भट झट कूद पड़ा है क्रुद्ध हुआ है अब रण में,
महा मान का रस वह जिसके भरा हुआ है तन मन में।
ज्ञान मल्ल भी धनुष्यधारी उस पर टूटा धृति-धर है,
क्षण में आस्रव जीत विजेता यह बलधारी सुखकर है॥११३॥
राग-रोष से मोह-द्रोह से विरहित आतम भाव सही,
ज्ञान सुधा से रचा हुआ है जिन आगम का भाव यही।
नियम रूप से अभावमय है भावात्रव का रहा वही,
तथा निवारक निमित्त से है द्रव्यास्रव का रहा सही ॥११४॥
भावास्रव के अभावपनपा व्रती विरागी वह ज्ञानी,
द्रव्यास्रव से पृथक रहा हूँ बन के जाना मुनि ध्यानी।
ज्ञान भाव का केवल धारी ज्ञानी निश्चित वही रहा,
निरास्रवी है सदा निराला जड़ के ज्ञायक सही रहा ॥ ११५॥
सुबुद्धिपूर्वक सकल राग से होते प्रथम अछूते हैं,
अबुद्धिपूर्वक राग मिटाने बार-बार निज-छूते हैं।
यमी ज्ञान की चंचलता को तभी पूर्णतः अहो मिटा,
निरास्रवी वे केवलज्ञानी बनते निज में स्वको बिठा ॥११६॥
जिसके जीवन में वह अविरल दुरित दु:खमय जल भरिता,
जड़मय पुद्गल द्रव्यास्रव की बहती रहती नित सरिता।
फिर भी ज्ञानी निरास्रवि वह कैसे इस विध हो कहते,
ऐसी शंका मन में केवल शठजन भ्रमवश हो गहते ॥११७॥
उदयकाल आता नहिं जब तक, तब तक सत्ता नहिं तजते,
पूर्व बद्ध विधि यद्यपि रहते, ज्ञानी जन के उर सजते।
पर ना नूतन नूतन विधि आ उनके मन पे अंकित हो,
रागादिक से रहित हुए हों जब मुनि पूर्ण-अशंकित हो ॥११८॥
ज्ञानी जन के ललित भाल पर रागादिक का वह लांछन,
संभव हो न, असंभव ही है वह तो उज्ज्वलतम कांचन।
वीतराग उन मुनिजन को फिर प्रश्न नहीं विधि-बंधन का
रागादिक ही बंधन कारण कारण है मन-स्पन्दन का ॥११९॥
निर्मल विकसित बोधधाममय विशुद्ध नय का ले आश्रय,
मन का निग्रह करते रहते मुनि-जन गुण-गण के आलय,
राग मुक्त हैं रोष मुक्त हैं मुनि वे मुनि-जन-रंजन हैं,
समरस पूरित समय सार का दर्शन करते वंदन हैं ॥१२०॥
जब यति विशुद्ध नय से चिगते, उलटे लटके वे झूले,
विकृत विभावों निश्चित करते आत्म बोध ही तब भूले।
विगत समय में अर्जित विधि के आस्रव वश बहु विकल्पदल,
करते, बंधते विविध विधी के बंधन से खो अनल्प बल ॥१२१॥
यही सार है समयसार का छंद यहाँ है यह गाता,
हेय नहीं है विशुद्ध नय पर ध्येय साधु का वह साता।
तथापि उसको जड़ ही तजते भजते विधि के बंधन को,
जो नहिं मुनि जन तजते इसको भजते नहिं विधि बंधन को ॥१२२॥
अनादि अक्षय अचल बोध में धृति बांधे विधि नाशक है,
अतः शुद्ध नय उन्हें त्याज्य नहिं मुनि या मुनि जन शासक है।
लखते इसमें स्थित मुनि निज बल आकुंचन कर बहिराता,
एक ज्ञान-घन पूर्ण शांत जो अतुल अचल द्युतिमय भाता ॥१२३॥
रागादिक सब आस्रव विघटे जब निज मन्दर में अन्दर,
झांक झांक कर देखा मुनि ने दिखता झग झग अति सुन्दर।
तीन जगत के जहां चराचर निज प्रति-छवि ले प्रकट रहें,
अतुल अचल निज किरणों सह वह बोध भानु मम निकट रहे ॥१२४॥
दोहा
राग द्वेष अरु मोह से, रंजित वह उपयोग
वसुविध-विधि का नियम से, पाता दुखकर योग ॥१॥
विराग समकित मुनि लिए, जीता जीवन सार।
कर्मास्रव से बस बचे, निज में करें विहार ॥२॥