संवर का रिपु आस्रव को यम मन्दिर बस दिखलाती है,
दुख-हर, सुखकर वर संवर धन सहज शीघ्र प्रकटाती है।
पर परिणति से रहित नियत नित निज में सम्यक् विलस रही,
ज्योति-शिखा वहचिन्मय निज खर किरणावलि से विहस रही ॥१२५॥
ज्ञान राग ये चिन्मय जड़ है किन्तु मोह वश एक लगे,
जिन्हें विभाजित निज बल से कर, स्व-पर बोध उर देख जगे।
उस भेद-ज्ञान का आश्रय ले तुम बन कर पूरण गत रागी,
शुद्ध ज्ञान-घन का रस चाखो सकल संग के हो त्यागी ॥१२६॥
धारा प्रवाह बहने वाला ध्रुव बोधन में सुरत यमी,
किसी तरह शुद्धातम ध्याता विशुद्ध बनता तुरत दमी।
हरित भरित निज कुसुमित उपवन में तब आतम रमता है।
पर परिणति से पर द्रव्यन में पल भर भी नहिं भ्रमता है ॥१२७॥
अनुपम अपनी महिमा में मुनि भेद ज्ञानवश रमते हैं।
शुद्ध तत्त्व का लाभ उन्हें तब हो हम उनको नमते हैं।
उसको पावे पर यति निश्चल अन्य द्रव्य से दूर रहे,
मोक्षधाम बस पास लसेगा सभी कर्म चकचूर रहे ॥१२८॥
विराग मुनि में जब जब होता भवहर, सुखकर संवर है,
शुद्धातम के आलम्बन का फल कहते-दिग-अम्बर हैं।
शुचितम आतम भेद-ज्ञान से सहज शीघ्र ही मिलता है,
भेद-ज्ञान तू इसीलिये भज जिससे जीवन खिलता है ॥१२९॥
तब तक मुनिगण अविकल अविरल तन मन वच से बस भावे,
भेद-ज्ञान को, जीवन अपना समझ उसी में रम जावे।
ज्ञान ज्ञान में सहजरूप से जब तक स्थिरता नहिं पावें,
पर परिणतिमय चंचलता को तज निज-पन को भज पावें ॥१३०॥
सिद्ध शुद्ध बन तीन लोक पर विलस रहे अभिराम रहे,
तुम सब समझो भेद ज्ञान का मात्र अहो परिणाम रहे।
भेद-ज्ञान के अभाव वश ही भव, भव, भव-वन फिरते हैं,
विधि बंधन में बँधे मूढ़ जन भवदधि नहिं ये तिरते हैं ॥१३१॥
भेदज्ञान बल शुद्ध तत्त्व में निरत हुवा मुनि तज अम्बर,
राग-दोष का विलय किया मुनि किया कर्म का वर संवर।
उदित हुआ तब मुदित हुआ ध्रुव अचल बोध शुचि शाश्वत है,
खिला हुआ है खुला हुआ है एक आप बस भास्वत है॥१३२॥
॥ इति संवराधिकार ॥
दोहा
रागादिक के हेतु को तजते अम्बर छाँव।
रागादिक पुनि मुनि मिटा भजते संवर भाव ॥१॥
बिन रति-रस चख जी रहें निज घर में कर वास।
निज अनुभव-रस पी रहें उन मुनि का मैं दास ॥२॥