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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • मोक्ष अधिकार

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    भिन्न भिन्न कर बन्ध पुरुष को प्रज्ञामय उस आरे से,

    बिठा पुरुष को मोक्ष-धाम में उठा भवार्णव-खारे से!

    परम सहज निज चिदानन्दमय-रस से पूरित झील अहो!

    सकल कार्य कर विराम पाया ज्ञान सदा जय शील रहो ॥१८०॥

     

    आत्म कर्म की सूक्ष्म संधि में प्रमाद तज जब मुनि झटके,

    प्रज्ञावाली पैनी छैनी पूर्ण लगाकर बल पटके।

    अबोध-विभाव में विधि, शुचि-ध्रुव चेतन में निज आतम को,

    स्थापित करती भिन्न भिन्न कर करे दूर वह हा! तम को ॥१८१॥

     

    जो कुछ भिदने योग्य रहा था उसे भेद निज लक्षण से,

    अविभागी निज चेतन शाला नित ध्याऊँ मैं क्षण क्षण से।

    कारक गुण धर्मादिक से मुझ, में भले हि कुछ भेद रहे,

    तथापि शुचिमय विभुमय चिति में भेद नहीं गत-भेद रहे ॥१८२॥

     

    अभेद होकर भी यदि चेतन तजता दर्शन-ज्ञान मनो,

    समान विशेष नहीं रह पाते तजता निज को तभी सुनो!

    निज को तजता भजता जड़ता बिना व्याप्य व्यापक चेतन,

    होगा विनष्ट अतः नियम से आत्म, ज्ञान - दृग का केतन ॥१८३॥

     

    एक भाव वह द्युतिमय चिन्मय चेतन का नित लसता है,

    किन्तु भाव सब पर के पर हैं तू क्यों उनमें फँसता है?

    उपादेय है ज्ञेय ध्येय है केवल चेतन-भाव सदा,

    भाव हेय हैं पर के सारे सुखद-अचेतन-भाव कदा? ॥१८४॥

     

    जिनकी मन की परिणति उजली मोक्षार्थी वे आराधे,

    छविमय द्युतिमय एक आपको शुचितम करके शिव, साधे।

    विविध भाव हैं जो कुछ लसते मुझसे विभिन्नपन धारे,

    मैं बस चेतन ज्ञान-निकेतन ये पर सारे हैं खारे ॥१८५॥

     

    जड़मय-पुद्गल पदार्थ दल का पर का संग्रह करता है,

    वसुविध विधि से अपराधी वह बंधता विग्रह धरता है।

    निरपराध मुनि विराग बन के निज में रमता भज संवर,

    बँधता कदापि ना वो विधि से निज को नमता तज अंबर ॥१८६॥

     

    मलिन भाव कर अपराधी मुनि अविरल निश्चित विधि पाता,

    विधि से बंधता निरपराध नहिं यतिवर निज की निधि पाता।

    शुद्धातम की सेवा करता निरपराध मुनि कहलाता,

    रागात्मा को भजने वाला सापराध बन दुख पाता ॥१८७॥

     

    विलासतामय जीवन जीते प्रमत्त जन को धिक्कारा,

    क्रियाकाण्ड को छुड़ा मिटाया चंचलतम मन की धारा।

    शुद्ध-ज्ञान-घन की उपलब्धी जीवन में नहिं हो जब लौं,

    निश्चित निज में उनको गुरु ने विलीन करवाया तब लौं ॥१८८॥

     

    प्रतिक्रमण ही विष है खारा गाया जिनने जब ऐसा,

    अप्रतिक्रमणा सुधासरस हो सकता सुखकर तब कैसा?

    बार-बार कर प्रमाद फिर भी नीचे नीचे गिरते हो,

    क्यों ना ऊपर- ऊपर उठते प्रमाद पीछे फिरते हो ॥१८९॥

     

    प्रमाद मिश्रित भाव-प्रणाली शुद्ध-भाव नहिं वह साता,

    कषायरंजित पूर्ण रहा है अलस-भाव है कहलाता।

    सरस स्वरस परि-पूरित निज के स्वभाव में मुनिरत होवें,

    फलतः पावन शुचिता पावें शिव को, पर अविरत रोवें ॥१९०॥

     

    विकृत विभावों के कारण पर-द्रव्यन को बस तजता है,

    रुचि लेता मुनि यथार्थ निज में, पर को कभी न भजता है।

    तोड़-तोड़ कर वसु-विध-बंधन पाप पंक को धोता है,

    चेतन जल से पूरित सर में स्नपित-पूर्ण शुचि होता है॥१९१॥

     

    अतुल्य अव्यय शिवपद को वह पूर्ण-ज्ञान पा, राग हटा,

    जगमग जगमग करता निज को सहज दशा में जाग उठा।

    केवल! केवल, रस से पूरित नीर-राशि सम गंभीरा,

    ज्योति-धाम निज ओज- तेज से अगम अमित तम, समधीरा ॥१९॥

     

    ॥ इति मोक्षाधिकारः ॥

     

    दोहा

     

    वसु विध विधि का विलयमय, निलय, समय का मोक्ष।

    व्यक्त-रूप है सिद्ध में, तुझमें वही परोक्ष ॥१॥

    दृग व्रत-समता धार के, द्रव्य- भव्य भज आप।

    निरा निरामय आत्म हो, रूप द्रव्य तज ताप ॥२॥


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