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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • निर्जरा अधिकार

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    रागादिक सब आस्रव भावों को निज बल से विदारता,

    संवर था वह भावी विधि को सुदूर से ही निवारता।

    धधक रही अब सही निर्जरा पूर्व बद्ध विधि जला-जला,

    सहज मिटाती, रागादिक से ज्ञान न हो फिर चला चला ॥१३३॥

     

    यह सब निश्चित अतिशय महिमा अविचल शुचितम ज्ञानन की,

    अथवा मुनि की विरागता की समता में रममानन की।

    विधि के फल को समय समय पर भोग भोगता भी त्यागी,

    तभी नहीं यह विधि से बँधता बँधे असंयत पर रागी ॥१३४॥

     

    इन्द्रिय विषयों का मुनि सेवन करता रहता है प्रतिदिन,

    किन्तु विषय के फल को वह नहिं पाता, रहता है रति बिन।

    आत्म ज्ञान के वैभव का औ विरागता का यह प्रतिफल,

    सेवक नहिं हो सकता फिर भी विषय सेव कर भी प्रतिपल ॥१३५॥

     

    ज्ञान शक्ति को विराग बल को सम्यक्-दृष्टी ढोता है,

    पर को तजने निज को भजने में जो सक्षम होता है।

    पर को पर ही निज को निज ही जान मान मुनि निश्चित ही,

    निज में रमता पर-रति तजता राग करे नहिं किंचित भी ॥१३६॥

     

    दृग-धारक हम अतः कर्म नहिं बंधते हमसे बनते हैं,

    रागी मुनि ही इस विधि बकते वृथा गर्व से तनते हैं।

    यदपि समितियाँ पालें पालो फिर भी अघ से रंजित हैं,

    स्वपर भेद के ज्ञान बिना वे समदर्शन से वंचित हैं ॥१३७॥

     

    चिर से रागी प्रमत्त बनके भ्रमवश करता शयन जहाँ,

    दुखकर परघर निजघर नहिं वो जान! खोल तू नयन अहा।

    निज-घर तो बस निज-घर ही है सुखकर है सुखकेतन है,

    शुद्ध शुद्धतर विशुद्धतम है अक्षय ध्रुव है चेतन है॥१३८॥

     

    पद पद पर बहु पद मिलते हैं पर वे दुख पद परपद हैं,

    सब पद में बस पद ही वह पद सुखद निरापद निजपद है।

    जिसके सम्मुख सब पद दिखते अपद दलित-पद आपद हैं,

    अतः स्वाद्य है पेय निजीपद सकल गुणों का आस्पद है॥१३९॥

     

    आदि आतमा निज अनुभव का जान ज्ञान को रख साता,

    भेद भिन्नता खेद खिन्नता घटा हटाकर इक भाता।

    ज्ञायक रस से पूरित रस को केवल निशिदिन चखता है,

    नीरस रस मिश्रित रस को नहिं चखता मुनि निज लखता है॥१४०॥

     

    सकल अर्थमय रस पी पीकर मानो उन्मद सी निधियाँ,

    उजल उजल ये उछल उछलती निज संवेदन की छवियाँ।

    अभिन्न चिन्मय रस पूरित हैं भगवन-सागर एक रहे,

    अगणित लहरें उठती जिनमें इसीलिए भी नैक रहें ॥१४१॥

     

    सूख सूखकर सोंठ भले हो-शिवपथ-च्युत व्रत भरणों से,

    तपन तप्त हो तापस गिरि पे केवल जपतप चरणों से।

    मोक्ष मात्र नित निरा निरामय निज संवेदन ज्ञान सही,

    ज्ञान बिना मुनि पा नहिं सकते शिव को इस विध जान सही ॥१४२॥

     

    मोक्षधाम यह मिले न केवल क्रियाकाण्ड के करने से,

    परंतु मिलता सहज सुलभ निज बोधन में नित चरने से।

    सदुपयोग तुम करो इसी से स्वीय-बोध जब मिला तुम्हें,

    सतत यतन यति जगत! जगत में करो मिले शिव किला तुम्हें ॥१४३॥

     

    ज्ञानी मुनि तो सहज स्वयं ही देव रूप है सुख-शाला,

    चिन्मय चिंतामणि चिंतित को पाता अचिंत्य बल-वाला।

    काम्य नहीं कुछ कार्य नहीं कुछ सब कुछ जिसको साध्य हुआ,

    पर संग्रह को अतः सुधी नहिं होगा था है बाध्य हुआ ॥१४४॥

     

    स्वपर बोध का नाशक जो है बाधक तम है शिवमग को,

    तजकर इस विध विविध संग को दशविध बाहर के अघ को।

    भीतर घुस-घुस बनकर मुनि अब केवल ज्ञानावरणी को,

    पूर्ण मिटाने मिटा रहा है, मानस-कालुष-सरणी को ॥१४५॥

     

    गत जीवन में अर्जित विधि के उदयपाक जब आता है,

    ज्ञानी मुनि को भी उसका रस चखना पड़ तब जाता है।

    विषयों के रस चखते पर वे रस के प्रति नहिं रति रखते,

    विगतराग हैं परिग्रही नहिं नियमित निज में मति रखते ॥१४६॥

     

    भोक्ता हो या भोग्य रहा हो दोनों मिटते क्षण-क्षण से,

    इसीलिये ना इच्छित कोई भोगा जाता तन मन से।

    विराग झरना जिस जीवन में झर-झर झर-झर झरता है,

    विषय राग की इच्छा किस विध ज्ञानी मुनि फिर करता है? ॥१४७॥

     

    विषय राग के रसिक नहीं मुनि ज्ञानी नित निज रस चखते,

    विग्रह-मूल परिग्रह ही है, भाव परिग्रह नहिं रखते।

    रंग लगाओ वसन रंगेगा किन्तु रंग झट उड़ सकता,

    हलदी फिटकरि लगे बिना ही गाढ़ रंग कब चढ़ सकता? ॥१४८॥

     

    विषय-विषम-विष ज्ञानी जन ना कभी भूलकर भी पीते,

    निज रस समरस सहर्ष पीते पावन जीवन ही जीते।

    कर्म कीच के बीच रहे यति परंतु उससे ना लिपते,

    रागी द्वेषी गृही असंयत पाप पंक से पर लिपते ॥१४९॥

     

    जिसका जिस विध स्वभाव हो, हो उसका तिस विध अपनापन,

    उसमें अंतर किस विध फिर हम ला सकते हैं अधुनापन।

    अज्ञ रहा वह विज्ञ न होता ज्ञान कभी अज्ञान नहीं,

    भोगो ज्ञानी पर वश विषयों तज रति, विधि बंधान नहीं ॥१५०॥

     

    पर मम कुछ ना कहता पर तू भोग भोगता हूँ कहता,

    वितथ भोगता तब ए! ज्ञानी भोग बुरा क्यों दुख सहता।

    भोगत ‘बंध' न हो यदि कहता भोगेच्छा क्या है मन में,?

    ज्ञान लीन बन, नहिं तो!! रति वश जकड़ेगा विधि बंधन में ॥१५१॥

     

    कर्ता को विधि बलपूर्वक ना कभी निजी-फल है देता,

    कर्ता विधि फल-चखना चाहे खुद ही विधि फल चख लेता।

    विधि को कर भी मुनि, विधिफल को, तजता परता सब जड़ता,

    विधि फल में ना रचता पचता ना बंधन में तब पड़ता ॥१५२॥

     

    विधि फल तज भी विधि करते मुनि इस विध हम ना हैं कहते,

    परन्तु परवश विधिवश कुछ कुछ विधि आ गिरते हैं रहते।

    कौन कहें विधि ज्ञानी करते जब या रहते अमल बने,

    आ, आ गिरते विधि, रहते निज-ज्ञान भाव में अचल तने ॥१५३॥

     

    वज्रपात भी मुनि पर हो पर धर दृढ़ दृग धृति जपता है,

    जबकि जगत यह कायर भय से पीड़ित कप कप कपता है।

    आत्म बोध से चिगता नहिं है, ज्ञान धाम निज लखता है,

    निसर्ग निर्भय निसंग बनकर भय ना उर में रखता है॥१५४॥

     

    एक लोक है विरत आत्म का चेतन जो है शाश्वत है,

    उसी लोक को ज्ञानी केवल लखता विकसित भास्वत है।

    चिन्मय मम है लोक किन्तु यह पर है पर से डर कैसा?

    निशंक मुनि अनुभवता तब बस स्वयं ज्ञान बनकर ऐसा ॥१५५॥

     

    भेद रहित निज सुवेद्य वेदक-बल से केवल संवेदन,

    विराग मन से आस्वादित हो अचल ज्ञानमय इक चेतन।

    परकृत परिवेदन पीड़न से ज्ञानी को फिर डर कैसा,

    सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१५६॥

     

    जो भी सत है वह ना मिटता स्पष्ट वस्तु की यह गाथा,

    ज्ञान स्वयं सत रहा कौन फिर उसका पर हो तब त्राता?

    अतः अरक्षाकृत भय ज्ञानी जन को होगा फिर कैसा?

    सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१५७॥

     

    वस्तु रूप ही गुप्ति रही बस उसमें नहिं पर घुसता है,

    उसी तरह वह ज्ञान सुधी का स्वरूप सुख कर लसता है,

    अतः अगुप्ति न ज्ञानी जन को हो फिर किससे डर कैसा?

    सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१५८॥

     

    प्राणों का हो कण कण खिरना मरण नाम बस वह पाता,

    ज्ञानी का पर ज्ञान न नश्वर कभी नहीं मिट यह जाता,

    मरण नहीं निज आतम का है अतः मरण से डर कैसा?

    सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१५९॥

     

    आदि अन्त से रहित अचल है एक ज्ञान है उचित सही,

    आप स्वतः है जब तक तब तक उसमें पर हो उदित नहीं।

    आकस्मिक निज में ना कुछ हो फिर तब उससे डर कैसा?

    सहज ज्ञान को स्वयं सुनिर्भय अनुभवता मुनिवर ऐसा ॥१६०॥

     

    समरस पूरित शुद्ध बोध का पावन भाजन बन जाता,

    विराग दृग धारक विधि-नाशक दृष्टि अंग वसु धन पाता।

    इस विध परिणति जब हो मुनि की पर परिणति की गंध न हो,

    पूर्व उपार्जित कर्म निर्जरा भोगत भी विधि बंध न हो ॥१६१॥

     

    अष्ट अंग दृग संग संभाले नव्य कर्म का कर संवर,

    बद्ध कर्म को जर, जर कर क्षय करते तज मुनिवर अंबर।

    आदि अंत से रहित ज्ञान बन स्वयं मुदित हों दृगधारी,

    तीन लोक के रंग मंच पर नाच रहा है अघहारी ॥१६२॥

     

    ॥ इति निर्जराधिकारः ॥

     

    दोहा

     

    साक्षी बनकर विषय का करते मुनिवर भोग।

    पूर्व-कर्म की निर्जरा हो तब शुचि उपयोग ॥१॥

    बंध किये बिन बंध का बंधन टूटे आप।

    महिमा यह सब साम्य की विराग- दृग की छाप ॥२॥


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