फैली जहाँ मलिन धूलि अमेय राशि, कोई सशस्त्र नर जाकर के विलासी।
लो! अंग अंग तिल तेल लगा-लगाके, आयाम नित्य करता बल को जगाके ॥२५२॥
स्वच्छन्द हो सरस नीरस पादपों को, बाँसों तमाल कदली तरु के दलों को।
वो तोड़-तोड़ टुकड़े-टुकड़े बनाता, आमूलतः कर उखाड़ उन्हें मिटाता ॥२५३॥
नाना प्रकार इस ताण्डव नृत्य द्वारा, लो देह में चिपकती रज आ अपारा।
क्यों वस्तुतः चिपकती रज आ वहाँ है? क्या जानते तुम कि कारण क्या रहा है॥२५४॥
वो तेल लेप वश ही रज आ लगी है, भाई अकाट्य ध्रुव सत्य यही सही है।
व्यायाम कारण नहीं उस कार्य में है, ऐसा जिनेश कहते निज कार्य में है ॥२५५॥
मिथ्यात्व मंडित कुधी त्रय योग द्वारा, चेष्टा निरंतर किया करता विचारा।
ज्यों रागरंग रँगता उपयोग को है, पाता स्वयं नियम से विधि योग को है ॥२५६॥
फैली जहाँ मलिन धूली अमेय राशि, कोई सशस्त्र नर जाकर के विलासी।
लो! अंग-अंग तिल तेल बिना लगाया, व्यायाम नित्य करता बल को जगाया ॥२५७॥
स्वच्छन्द हो सरस नीरस पादपों को, बाँसों तमाल कदली तरु के दलों को।
वो तोड़-तोड़ टुकड़े-टुकड़े बनाता, आमूलतः कर उखाड़ उन्हें मिटाता ॥२५८॥
नाना प्रकार इस ताण्डव नृत्य द्वारा, है देह में न चिपकी रज आ अपारा।
क्यों वस्तुत: चिपकती रज ना वहाँ है, क्या जानते तुम कि कारण क्या रहा है? ॥२५९॥
ना तेल लेप तन पे उसने किया है, भाई नितान्त यह कारण ही रहा है।
व्यायाम कारण नहीं उस कार्य में है, ऐसा जिनेश कहते निज कार्य में है॥२६०॥
होता इसी तरह ही समदृष्टिवाला, चेष्टा अनेक विध है करता निहाला।
रागाभिभूत उपयोग नहीं बनाता, पाता न बंध, उसको शिर मैं नवाता ॥२६१॥
मारूँ उसे वह मुझे जब मारता है, मोही कुधी मनमना यह मानता हैं।
मेरा नहीं मरण, हूँ ध्रुव शीलवाला, ज्ञानी कहे मुनि, निरा जड़ में निराला ॥२६२॥
देहावसान जब आयु विलीन होती, है भारती जिनप की सुख को सँजोती।
तू जीव की जब न आयु चुरा सकेगा, कैसा भला सहज मार उसे सकेगा? ॥२६३॥
देहावसान जब आयु विलीन होती, है भारती जिनप की सुख को सँजोती।
कोई त्वदीय नहिं आयु चुरा सकेगा, तेरा भला मरण क्या कि करा सकेगा? ॥१॥
मैं आपकी मदद से बस जी रहा हूँ, जीता तुम्हें सहज आज जिला रहा हूँ।
ऐसा सदैव कहता वह मूढ़ प्राणी, ज्ञानी विलोम चलता जड़ से अमानी ॥२॥
है आयु के उदय पा जग जीव जीता, ऐसा कहें जिन जिन्हें मद ने न जीता।
कोई न आयु तुझमें जब डाल देता, कैसे तुझे फिर सुजीवित पाल लेता? ॥३॥
है आयु के उदय पा जग जीव जीता, ऐसा कहें जिन जिन्हें मद ने न जीता।
तू जीव में यदपि आयु न डाल देता, कैसा उसे तदपि जीवित पाल लेता ॥२६४॥
मैंने तुझे धन दिया कि सुखी बनाया, मारा, चुरा धन अपार, दुखी बनाया।
मोही प्रमत्त जड़ की यह धारणा है, ज्ञानी चले न इस भाँति महामना है॥२६५॥
साता यदा उदय में अथवा असाता, होता सुखी जग दुखी, यह छंद गाता,
तू डालता न पर में जब कर्म वैसा, भाई दुखी जग सुखी बन जाय कैसा? ॥२६६॥
लो कर्म का उदय जीवन में जभी हो, औचित्य है जग दुखी व सुखी तभी हो।
देता न कर्म जग है तुमको कदापि, कैसे हुए तुम अपार दुखी तथापि ॥२६७॥
लो कर्म का उदय जीवन में जभी हो, सिद्धांत है जग दुखी व सुखी तभी हो।
ता न कर्म जग है तुमको कदापि, कैसे अकारण सुखी तुम हो तथापि ॥२६८॥
दुःखानुभूति करता यम धाम जाता, संसारिजीव उदया-गत कर्म पाता।
मारा तुम्हें दुखित पूर्ण किया कराया, वो मान्यता तव मृषा जिनदेव गाया ॥२६९॥
मानो दुखी नहिं हुवा न मरा सदेही, जो भी हुवा वह सभी विधिपाक से ही।
मैंने दुखी मृत नहीं तुमको बनाया, ऐसा विचार भ्रम है जिन ने बताया ॥२७०॥
मैं शीघ्र ही अति दुखी पर को बनाता, किंवा उसे सहज शीघ्र सुखी बनाता।
ऐसा कहो भ्रमित ही मति आपकी है, बाँधे शुभाशुभ विधी खनि पाप की है॥२७१॥
ऐसा विकल्प यदि हो जग को दुखी ही, सामर्थ्य है कर सकें अथवा सुखी ही।
वो पापका मलिन संग दिला सकेगा, या पुण्य का मुख तुम्हें दिखला सकेगा ॥२७२॥
मैं मित्र में सदय हो कर प्राण डालूँ, औ शत्रु को अदय होकर मार डालूँ।
ऐसा विभाव मन में यदि धारते हो, तो पुण्य पाप क्रमशः तुम बाँधते हो ॥२७३॥
प्राणों हरो मत हरो जग जंगमों के, संकल्प बंध करता विधि-बंधनों के।
लो बंध का विधि-विधान यही रहा है, ऐसा सहर्ष नय निश्चय गा रहा है॥२७४॥
एवं असत्य अरु स्तेय व ब्रह्महानी, औ संग संकलन में रुचि की निशानी।
माने गये अशुभ अध्यवसाय सारे, ये पाप बंध करते दुख के पिटारे ॥२७५॥
अस्तेय सत्य सुमहाव्रत को निभाना, जो ब्रह्मचर्य धर, संग सभी हटाना।
ये हैं अवश्य शुभ अध्यवसाय सारे, हैं पुण्य बंधक कथंचित, पाप टारें ॥२७६॥
पंचेद्रि के विषय को लखता जभी से, रागादिमान यह आतम हो तभी से।
पै वस्तुतः विषय बंधक वे नहीं हैं, रागादिभाव विधिबंधक हैं, सही है ॥२७७॥
मैं आपको अति दुखी व सुखी बनाता, या बाँधता झटिति बंधन से छुड़ाता।
ऐसी त्वदीय मति सन्मति-हारिणी है, मिथ्यामयी विषमयी दुखकारिणी है ॥२७८॥
रागादि से जबकि बंधन जीव पाते, आरूढ़ मुक्ति पथ पे मुनि मुक्ति जाते।
मैं बाँधता जगत को अथवा छुड़ाता, तेरा विकल्प फिर वो किस काम आता? ॥२७९॥
रे काय से जगत को दुख हैं दिलाते, ऐसा कहीं तुम कहो बलधार पाते।
निर्भ्रान्त! भ्रान्त तब तो मति है तुम्हारी, संसार कर्मवश पीड़ित क्योंकि भारी ॥२८०॥
लो विश्व को वचन से दुख हैं दिलाते, ऐसा कहीं तुम मनो मति धार पाते।
निर्भ्रांत! भ्रान्त मति है तब तो तुम्हारी, संसार कर्मवश पीड़ित क्यों कि भारी ॥२८१॥
संसार को दुखित हैं मन से कराते, ऐसा कहो तुम मनो मति धार पाते।
निर्भ्रान्त! भ्रान्त मति है तब तो तुम्हारी, संसार कर्मवश पीड़ित क्योंकि भारी ॥२८२॥
या विश्व को दुखित आयुध से कराते, ऐसा कहीं तुम मनो मति धार पाते।
निर्भ्रान्त! भ्रान्त मति है तब तो तुम्हारी, संसार कर्मवश पीड़ित क्योंकि भारी ॥२८३॥
या काय से वचन से मन से कराते, हैं विश्व को हम सुखी करुणा दिखाते।
ऐसा कहो मति मृषा फिर भी तुम्हारी, पा कर्म का फल सुखी जग क्योंकि भारी ॥२८४॥
ज्यों जीव राग रति की कर आरती है, होता सुरेश नर वानर नारकी है।
है पाप-पुण्य परिपाक जु आप पाता, ऐसा वसंततिलका यह छंद गाता ॥२८५॥
शुद्धात्म से पृथक द्रव्य छहों निराले, हैं भिन्न-भिन्न गुण लक्षण धर्म धारे।
संसारि-जीव पर, अध्यवसान द्वारा, संसार को हि अपना करता विचारा ॥२८६॥
ऐसे अनेक विध अध्यवसाय छोड़े, नीराग भाव धर के मन को मरोड़े।
ज्ञानी मुनीश्वर शुभाशुभ रेणुओं से, होते नहीं मलिन, शोभित हो गुणों से ॥२८७॥
संकल्प जन्य सविकल्प अरे! करेगा, तो पाप-पुण्य विधिबंध नहीं टरेगा।
ना बोध दीप दिल में उजला जलेगा, फैला विमोहतम ना तबलौं टलेगा ॥२८८॥
जो पारिणाम मति अध्यवसाय भाव, विज्ञान बुद्धि व्यवसाय चिती विभाव।
हे भव्य ये वसु जिनोदित शब्द सारे, हैं भिन्न-भिन्न पर आशय एक धारे॥२८९॥
है नित्य निश्चय निषेधक मोक्षदाता, होता निषिद्ध व्यवहार मुझे न भाता।
लेते सुनिश्चय नयाश्रय संत योगी, निर्वाण प्राप्त करते तज भोग भोगी! ॥२९०॥
भाई अभव्य व्रत क्यों न सदा निभा ले, लेते भले हि तप संयम गीत गा ले।
औ गुप्तियाँ समितियाँ कल शील पाले, पाते न बोध दृग वे न बने उजाले ॥२९१॥
एकादशांग श्रुत पा न स्व-में रुची से, श्रद्धान मोक्ष सुख का जिसको नहीं है।
ऐसा अभव्य जन का श्रुत पाठ होता, रे राम! राम! रटता दिन-रात तोता ॥२९२॥
सद्धर्म धार उसकी करते प्रतीति, श्रद्धान गाढ़ रखते रुचि और प्रीति।
चाहे अभव्य फिर भी भव भोग पाना, ना चाहते धरम से विधि को खपाना ॥२९३॥
तत्त्वार्थ में रुचि हुई दृग हो वहीं से, सज्जान हो मनन आगम का सही से।
चारित्र, पालन चराचर का सुहाता, संगीत ईदृश सदा व्यवहार गाता ॥२९४॥
विज्ञान में चरण में दृग संवरों में, औ प्रत्यख्यान गुण में लसता गुरो मैं।
शुद्धात्म की परम-पावन भावना का, है पाक मात्र सुख, है दुख वासना का ॥२९५॥
अध्वादि कर्म कृत भोजन दोष सारे, जाते अजीव पर-पुद्गल के पुकारे।
साधू करे फिर उन्हें किस भाँति ज्ञानी ? वे अन्य द्रव्य गुण हैं यह वीर-वाणी ॥२९६॥
अध्वादि कर्म कृत भोजन दोष सारे, जाते अजीव जड़ पुद्गल के पुकारे।
है अन्य से रचित ये गुण देख लेता, ज्ञानी उन्हें अनुमती किस भाँति देता? ॥२९७॥
औद्देशिकादि सब कर्म निरे-निरे हैं, चैतन्य से रहित हैं जड़ता धरे हैं।
हूँ ज्ञानवान जब मैं मुझसे कराया, कैसा गया वह ? नहीं कुछ जान पाया ॥२९८॥
औद्देशिकादि सब कर्म निरे-निरे हैं, चैतन्य से रहित है जड़ता धरे हैं।
ज्ञानी विचार करते मुनिराज ऐसा, वो अन्य कर्म जड़कर्म मदीय कैसा ॥२९९॥
ज्योतिर्मयी स्फटिक शुभ्रमणी सुहाती, आत्मीयता तज स्वयं न विरूप पाती।
पै पार्श्व में मृदुल फूल गुलाब होती, आश्चर्य क्या फिर भला मणि लाल होती ॥३००॥
ज्ञानी मुनीश इस भाँति निरा निहाला, होता स्वयं नहिं कदापि विकार वाला।
मोहादि के वश कभी प्रतिकूलता में, रंजायमान बनता निज भूलना में ॥३०१॥
संमोहराग करते नहिं रोष ज्ञानी, होते प्रभावित नहीं पर से अमानी।
कर्ता अतः, नहिं कषाय उपाधियों के, साधू उपास्य जब हैं हम प्राणियों के ॥३०२॥
क्रोधादियों विकृतभाव-प्रणालियों में, मोही उदीरित कुकार्मिक-नालियों में।
होता प्रवाहित तभी निज-भूल जाता, है कर्म कीच फँसता प्रतिकूल जाता ॥३०३॥
अज्ञान की कलुष-राग तरंग माला, काषायिकी परिणती भव दुःख-शाला।
भावी नवीन विधिबंधन हेतु होती, आत्मा सबंध बनता मिट जाय ज्योति ॥३०४॥
होता द्विधा परम पाप अप्रत्यख्यान, हे भव्य दो क्रमण-अप्रति ही सुजान!
माना गया इसलिए मुनि वीतरागी, है कर्म का वह अकारक संग-त्यागी ॥३०५॥
है द्रव्य भावमय दोय अप्रत्यख्यान, एवं द्विधा क्रमण-अप्रति भी सुजान।
ये निंद्य निंद्यतर निंद्यतमा रहे हैं, ज्ञानी इन्हें तज सदा निज में रहे हैं ॥३०६॥
आत्मा समाधिगिरि से गिर के सरागी, मानो इन्हें कर रहा मुनि दोष भागी।
तो धूलि-धूसरित भूपर आ हुवा है? कर्माभिभूत बन के पर को छुवा है॥३०७॥